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सोचे-समझे बिना कभी किसी को पीड़ा नहीं पहुंचानी चाहिए .

अंतर दाव लगी रहै, धुआं ना प्रगटै सोई
कै जिय आपन जानहिं, कै जिहि बीती होइ
अर्थ : रहीम दास जी कहते है मन में अग्नि धधकती रहती है, परन्तु उसका धुंआ
बाहर प्रकट नहीं होता. जिस व्यक्ति के मन पर जो घटित हो रहा होता है ,
उसका अंतर ही उसको जान सकता है, अन्य कोई नहीं .
भाव : इस दोहे का भाव यही है कि प्रत्येक व्यक्ति का अपने जीवन में अपना
ही दुःख- सुख होता है. किसी की क्या पीड़ा है , वह तब तक नहीं जानी
जा सकती , जब तक वह स्वयं अपने मुख से न कहे .
इसलिए बिना सोचे-समझे कभी किसी को पीड़ा नहीं पहुंचानी चाहिए .
जीवन में न जाने कितने-कितने लोगों के साथ हमारा मिलना-जुलना
होता है और उनके मन की बात को जाने बिना ही हम या तो उन्हें
सलाह देने लगते हैं या उनके किसी कार्य अथवा बात को देख-सुनकर
उस पर टिप्पणी करने लगते है या उसकी आलोचना करने लगते हैं .
यह प्रवृति सरासर गलत है .