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मिर्ज़ा ग़ालिब का जन्म दिन हैं ,सो तहे दिल से मुबारक

[नयी दिल्ली]मिर्ज़ा ग़ालिब का जन्म दिन हैं ,सो तहे दिल से मुबारक
‘मिर्ज़ा असदुल्लाह बेग खान [ग़ालिब] के दीवानों को उनके महबूब शायर के जन्म दिन की तहे दिल से मुबारक|
1797 की 27 दिसंबर को जन्मी इस अजीम शख्सियत की “मजार” को दिल्लगी करने वाले ऐरागिरे सिरफिरों का ही सहारा रह गया है
मिर्ज़ा के अल्फाजों में
“उस अंजुमन-ए-नाज़ की क्या बात है ‘ग़ालिब’
हम भी गए वाँ और तिरी तक़दीर को रो आए”
“एक हंगामे पे मौक़ूफ़ है घर की रौनक़
नौहा-ए-ग़म ही सही नग़्मा-ए-शादी न सही”
पिछले हफ्ते मुझे मिर्ज़ा के संग्राहलय +मजार और हजरत निजामुद्दीन की दरगाह जाने का मौका मिला
यकीन उस समय भी जो चहलपहल या गहमागहमी थी उसका रुख और पीठ केवल निजामुद्दीन की दरगाह की तरफ ही थी |मिर्ज़ा के दीवाने अपने महबूब मरहूम शायर की बेनूरी पर आंसू ही बहा रहे थे| हमें सरकारों से कोई उम्मीद नहीं महज एक पत्थर लगा कर अपना फर्ज पूरा कर लेते हैं हमें तो गिला उनसे हैं जो बस दीवाने हैं|
मिर्ज़ा ग़ालिब ने बरसों पहले अपने आप को बहुत खूब बयां किया था और आज उनकी 220वीं सालगिरह के मौके पर भी यह शेर उतना ही प्रासंगिक है।‘‘हैं और भी दुनिया में सुख़न-वर बहुत अच्छे, कहते हैं कि ‘ग़ालिब’ का है अंदाज़-ए-बयाँ और’’। शायद इसीकारण उनके कलाम आज भी इंसानी सरहदों को पार कर चुके हैं
शेर-ओ-शायरी के सरताज कहे जाने वाले और उर्दू को आम जन की जुबां बनाने वाले ग़ालिब को उनकी सालगिरह के अवसर पर गूगल ने एक खूबसूरत डूडल बना कर उन्हें खिराज-ए-अकीदत पेश की है।
ग़ालिब मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के बड़े बेटे को शेर-ओ-शायरी की गहराइयों की तालीम देते थे। उन्हें वर्ष 1850 में बादशाह ने दबीर-उल-मुल्क की उपाधि से सम्मानित किया।
ग़ालिब ने 11 वर्ष की उम्र में शेर-ओ-शायरी शुरू की थी। तेरह वर्ष की उम्र में शादी करने के बाद वह दिल्ली में बस गए। उनकी शायरी में दर्द की झलक मिलती है और उनकी शायरी से यह पता चलता है कि जिंदगी एक अनवरत संघर्ष है जो मौत के साथ खत्म होती है।
पुरानी दिल्ली में उनके घर को संग्रहालय में तब्दील कर दिया गया है