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गुरु ही हमारे ध्यान को प्रभु की ज्योति और श्रुति से जोड़ते हैं

हरि किरपा जो होय तो , नाहीं होय तो नाहिं |
पै गुर किरपा दया बिन , सकल बुद्धि बहि जाहिं ||
राम तजूं पै गुरु न बिसारूँ ,
गुरु के सम हरि कूँ न निहारूँ |
वाणी : सहजोबाई जी
भाव : यहाँ सहजोबाई जी हमें गुरु की महिमा के बारे में समझा रही हैं कि अगर प्रभु की कृपा हो तो
बहुत अच्छी बात है , नहीं भी होती तो भी कोई बात नहीं परन्तु यदि गुरु कृपा न हुई तो हम
बुद्धि रुपी अन्धकार यानि अपराविद्या में ही लगे रहेंगे और पराविद्या की ओर नहीं जायेंगे |
यदि किसी गुरु की छत्रछाया में हम नहीं पहुँचते तो हमारी जिंदगी व्यर्थ हो जाती है |
वे कहतीं हैं राम यानि परमात्मा को तो मैं छोड़ सकती हुईं लेकिन मैं अपने गुरु को कभी भी
नहीं भूल सकती तथा गुरु और परमात्मा यदि साथ – साथ खड़े हों तो मैं गुरु की ही ओर देखती
रहूंगी परमात्मा की ओर बिलकुल नहीं देखूंगी क्योंकि प्रभु की प्राप्ति केवल गुरु द्वारा ही संभव है |
गुरु ही हमारे ध्यान को प्रभु की ज्योति और श्रुति से जोड़ते हैं
संत कबीर दास जी भी कहते हैं :-
हरि रूठे को ठौर है , गुरु रूठे नाहीं ठौर |
प्रस्तुति राकेश खुराना