तांघ माहि दी जली आं
नित काग उडावां खली आन
नै चन्दन दे शोर किनारे
घुम्मन घेरा ते ठाठा मारे
डुब डुब मोहे तारु सारे
शोर करा ते मैं झल्ली आं ।
बुल्ले शाह फरमाते हैं कि हे प्रियतम मैं तेरी चाह में विरह की आग में जल रही हूँ , कागों[क्रो] के रूप में सांसारिक वासनाओं को अपने समीप नहीं आने देती,
संसार के तमाम रिश्ते नाते, कामनाएँ , वासनाएं प्रेम नदी के किनारे इतना शोर मचा रही हैं जिसके कारण आत्मा नदी में उतर ही नहीं पा रही है । तथा नदी भी इतनी भयानक है कि मोह , माया एवं ममता की भँवरे इतनी तेज पड़ती हैं कि तैरने वाला तो तैरने वाला कभी कभी दूसरों को पार पहुँचाने वाली लकड़ी की नाव भी इस में डूब जाती हैं । कितने ज्ञानी विज्ञानी इस नदी में डूब कर मर गए ऐसे में मेरा क्या होगा ? एक तरफ तो मैं तो इन मोह , माया, ममता, अहम्, फरेब, का त्याग नहीं कर पा रही , तथा दूसरी तरफ मैं शोर मचा रही हूँ की मुझे सद्गुरु परमात्मा की समीपता नहीं मिल पा रही, तो लोग तो मुझे झल्ली ही कहेंगे नां ।
सूफी संत बुल्ले शाह का कलाम
प्रस्तुति राकेश खुराना
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