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रंगमंच के कलाकार की भांति ,मानव को मृत्यु के पश्चात अपने स्वरुप”आत्मा” को ही प्राप्त करना है:संत राजिंदर सिंह जी

रंगमंच के कलाकार की भांति ,मानव को मृत्यु के पश्चात अपने स्वरुप”आत्मा” को ही प्राप्त करना है:संत राजिंदर सिंह जी
साइंस ऑफ़ स्प्रिचुअलिटी और सावन कृपाल रूहानी मिशन के मौजूदा संत राजिंदर सिंह जी महाराज ने अपने फॉलोवर्स के प्रश्नों के उत्तर देते हुए मानव जीवन के उद्देश्यों पर प्रकाश डाला |उन्होंने बताया कि जिस प्रकार भूमिका समाप्त होने पर एक कलाकार अपनी पोशाक उतारकर अपना वास्तविक रूप धारण करता है ठीक उसी प्रकार मानव का उदेश्य भी मृत्यु के पश्चात अपने वास्तविक स्वरुप अर्थार्त “आत्मा” को प्राप्त करना होता है | यह दुनिया प्रभु का रचाया एक खेल या नाटक है,और हम इसमें केवल अभिनेता और अभिनेत्री हैं।भूमिका ख़त्म हो जाती है, तो अभिनेता और अभिनेत्री अपनी-अपनी पोशाक उतारते हैं और घर वापस चले जाते हैं। फिर वो अपने वास्तविक स्वरूप में लौट जाते हैं।जीवन के इस आध्यत्मिक रहस्य के जिज्ञासु के प्रश्न और महाराज जी के उत्तर इस प्रकार हैं:
[१]प्रश्नः मैंने अक्सर यह सुना है कि इस भौतिक दुनिया में जो कुछ चल रहा है वो एक नाटक के समान ही है, फिर भी हमें ये सब बिल्कुल सच लगता है। क्या आप इस बारे में बतायेंगे?
राजिंदर सिंह जी का उत्तरः
संत मत के महापुरुष हमें सच्चाई के प्रति जागृत करने के लिए ही इस संसार में आते हैं। वो हमें बताते हैं कि यह दुनिया प्रभु का रचाया एक खेल या नाटक है, और हम इसमें केवल अभिनेता और अभिनेत्री हैं। जब नाटक में उनका रोल या भूमिका ख़त्म हो जाती है, तो अभिनेता और अभिनेत्री अपनी-अपनी पोशाक उतारते हैं और घर वापस चले जाते हैं। फिर वो अपने वास्तविक स्वरूप में लौट जाते हैं। इसी प्रकार, हम इस दुनिया में जीते हुए अपनी-अपनी भूमिकाओं में इतना अधिक खो गए हैं कि अपने सच्चे स्वरूप को ही भूल चुके हैं। हमारा सच्चा स्वरूप है हमारी आत्मा। ये ही प्रभु का वो अंश है जो इस दुनियावी भूमिका को अदा कर रही है।
यदि हम इस सच्चे स्वरूप को पहचान जायें, तो हम सम्पूर्ण सृष्टि के पीछे की असलियत को जान जायेंगे। हम समझ जायेंगे कि यह सांसारिक जीवन प्रभु रूपी लेखक द्वारा लिखी गई एक कहानी या नाटिका भर है। तब हम अपना जीवन अलग ढंग से जीने लगेंगे।
महापुरुष हमें केवल यही नहीं बताते कि यह जीवन एक अस्थाई नाटक है। वे तो हमें सच्चाई का साक्षात् अनुभव प्रदान करते हैं। नामदान के समय वे हमारे अंदरूनी आँख और कान खोल देते हैं। वे हमें ध्यानाभ्यास सिखाकर आंतरिक दिव्य ज्योति और श्रुति के संपर्क में ले आते हैं। उनके निर्देशों का पालन करके हम अंतर में ध्यान टिकाकर इस भौतिक संसार से ऊपर उठ सकते हैं।
हम इस दुनिया के रंगमंच से ऊपर उठकर वास्तविक संसार में जा सकते हैं। तब हम अनुभव कर लेते हैं कि यह दुनिया एक अस्थाई मंच ही है जहाँ हम एक भूमिका निभाने के लिए आए हैं, लेकिन वो भूमिका हमारा सच्चा आपा नहीं है।
हम आंतरिक मंडलों में ऊपर उठते चले जाते हैं। हम अंड के मंडल के रंगमंच में पहुँचते हैं, जोकि इस भ्रम का ही हिस्सा है लेकिन इस पिंड के मंडल से अधिक सूक्ष्म है। उससे ऊपर उठकर हम ब्रह्मंड के मंडल में पहुँचते हैं, जोकि है तो भ्रम ही परंतु अंड और पिंड के मंडलों से अधिक सूक्ष्म है। अंत में हम माया के इन तीनों निचले मंडलों से ऊपर उठकर पारब्रह्म और फिर सचखंड के आध्यात्मिक मंडलों में पहुँच जाते हैं। यहाँ सारी माया ख़त्म हो जाती है और हम स्वयं को परमात्मा के अंश आत्मा के रूप में देख पाते हैं। यहाँ आकर अभिनेता और अभिनेत्री अपने सारे आवरण उतार देते हैं और अपने सच्चे स्वरूप में वापस लौट आते हैं।