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Tag: प्रस्तुति राकेश खुराना

सद्गुरु का वास जैसे आटे में नमक समाया हुआ है

अपने तन की खबर नहीं, सजन की खबर ले आवे कौन
ना मैं माटी ना मैं अग्नि ना पानी ना पवन
बुल्लिया साईं घट-घट वसदा
ज्यों आटे में लौंन.
भावार्थ: सूफी संत बुल्लेशाह समझाते हुए कहते हैं जब तुम खुद को ही नहीं समझ
पाए तो सद्गुरु को क्या जान पाओगे? सद्गुरु के पास जाने से पहले
अपने आप को जान लेने की आवश्यकता है कि हम आत्मा हैं हम
शरीर नहीं हैं. मिटटी , आग, पानी अथवा वायु से तो यह भौतिक
शरीर बना है जो नश्वर है. मेरे तो घट-घट मैं सद्गुरु के नाम का
वास उसी प्रकार हैं जैसे आटे में नमक समाया हुआ है.
सूफी संत बुल्लेशाह की वाणी

परमात्मा से प्रेम करने पर संसार और हमारी जिन्दगी ख़ूबसूरत हो जाती हैं.

प्रेम का उन्माद

मेरा कोई दोस्त नहीं है, मेरे प्रियतम के सिवाय,
मुझे कोई काम नहीं है, उसके प्रेम के सिवाय
खिजां नसीब रास्ते भी सज गए संवर गए,
उन्हें बहार ही मिली, जहाँ गये, जिधर गए..
भाव-
रूहानी संत, संत दर्शन सिंह जी महाराज आत्मा और परमात्मा के प्रेम के सम्बन्ध में कहते हैं
जिस प्रकार कोई प्रेमी दिन-रात अपनी प्रेमिका के बारे में सोचता रहता है , वैसे ही जब हमारी आत्मा एक बार
प्रभु से मिलकर उसके प्रेम से ओत-प्रोत हो जाती हैं, तो वह भी उसी हालत में रहती है.
परमात्मा से प्रेम करने पर हमारा संसार और हमारी जिन्दगी ख़ूबसूरत हो जाती हैं. हमारे जीवन में अनगिनत फूलों
की सुगंध आ जाती है. ऐसा लगता हैं मानो सर से पैर तक हमारे अन्दर ईश्वर का प्रेम बह रहा हो.

संत हमारे जीवन के प्राणाधार हैं

मीराबाई की वाणी
साधू हमारे हम साधुन के, साधू हमारे जीव,
साधुन मीरा मिल रही, जिमी माखन मैं घीव

.
भावार्थ – सत्संग के रंग में रंगी मीरा कहती है – संत ही मुझे सबसे प्रिय हैं.,वे ही मेरे अपने हैं. संत ही मेरे जीवन और प्राण हैं . मैं संतों की हूँ. मैं उनकी संगती में
यूं समा गई हूँ जिस प्रकार मक्खन मैं घी समाया रहता है .

भव बन्धनों से मुक्त होकर परमात्मा की आराधना जरुरी

रहिमन बहरी बाज , गगन चढ़े फिर क्यों तिरे,
पेट अधम के काज, फेरी आय बंधन परे .
अर्थ – कवि रहीम कहते हैं कि बहरा बाज बार- बार आकाश में उड़ता है. लेकिन उसे मोक्ष प्राप्त नहीं होता क्योंकि वह पेट की आग बुझाने के
लिए बार- बार बंधन में पड़ा रहता है.
भाव – मोक्ष प्राप्त करने के लिए सांसारिक मोह माया के बन्धनों का त्याग करना परम आवश्यक है. कवि रहीम जी का कहना है कि बाज पक्षी
आकाश में ऊंची- ऊंची उड़ानें भरता है किन्तु उसका लक्ष्य परमात्मा तक पहुँचने का नहीं होता. उसका लक्ष्य केवल अपना पेट भरने का
होता है.
पेट की आग बुझाने की चिंता ही आदमी को इस सांसारिक भव-बन्धनों में उलझाती है इसी कारण से उसे मोक्ष कभी प्राप्त नहीं होता.है.
व्यक्ति को इन भव बन्धनों से मुक्त होकर परमात्मा की आराधना करनी चाहिए.

पमात्मा को वही पाता है जो उसे और उसकी कायनात से प्रेम करता है .

कहा भयो जो दोऊ लोचन मूंदी कै
बैठ रहियो बक धिआनु लगाइयो
न्हात फिरिओ लीए सात समुद्रण
लोक गएओ परलोक गवायो
बास कीयो बिखियन सों बैठि कै
ऐसे ही ऐसे सु बैस बिताईओ
सच कहूं सुनि लेहु सभै
जिनि प्रेम कीयो तिन ही प्रभु पाएओ

भाव : दोनों आँखें मूँद कर बगुले की तरह बैठने से क्या होगा जबकि अन्दर मन में कपट भरा हो. ऐसा व्यक्ति सात समुंदर
पार करके तीर्थों में नहाता फिरे तो समझो कि उसका इहलोक और परलोक दोनों बर्बाद हैं .विषय-विकारों में सदा
लिप्त रहने वाला अपनी आयु यूं ही गँवा देता है . मैं सच कहता हूँ पमात्मा को वही पाता है जो उसे और उसकी
कायनात से प्रेम करता है .
—- वाणी दशम पादशाही गुरु गोबिंद सिंह जी

गलती का अहसास कराके एक बार फिर संभलने का अवसर दिया जाये.

छिमा बढ़न को चाहिए, छोटेन को उत्पात ,
का रहिमन हरी को घट्यो , जो भृगु मरी लात .

व्याख्या – छोटी आयु के लोगों के द्वारा उपद्रव करने पर बड़ों का क्षमादान करना ही शोभनीय है . कवि रहीम कहते हैं कि यदि भृगु ऋषि ने
क्रोध में आकर प्रभु की छाती पर लात मार दी तो भगवन की गरिमा में कोई कमी नहीं आई.
भाव – क्षमा करना आदमी का सबसे बड़ा गुण है. इसी गुण को लेकर कवि रहीम ने इस दोहे की रचना की है.. यदि छोटे लोग कोई अपराध
करते हैं तो बड़ों का बड़प्पन इसी में है कि उन्हें क्षमा कर दिया जाये और उन्हें उनकी गलती का अहसास कराके एक बार फिर
संभलने का अवसर दिया जाये.
इसे कवि ने एक विशेष पौराणिक घटना से जोड़कर दर्शाया है एक बार भृगु ऋषि भगवान् विष्णु से मिलने गए .विष्णु को सोता देखकर
भृगु ने उनकी छाती पर लात मार दी . इससे भगवान क्रोधित नहीं हुए .अपितु उनहोंने पूछा -ऋषिवर आपके पैर में चोट तो नहीं आई ?
विष्णु जी की बात सुनकर ऋषि का क्रोध शांत हो गया . प्रस्तुति राकेश खुराना