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परमात्मा के नाम रुपी अमृत को चखने से चौरासी लाख जियाजून के चक्कर से निकला जा सकता है

ता कउ बिघनु न कोऊ लागै जो सतिगुरु अपुनै राखे ।
चरण कमल बसे रिद अंतरि अम्रित हरि रसु चाखे ।
भाव: गुरु अर्जन देव जी फरमा रहे हैं , जिसको सतगुरु ने अपना बनाकर रख लिया है उसे कोई विघ्न नहीं आ सकता , उसे कोई भी फ़िक्र नहीं हो सकती । उसके अन्दर परमात्मा के चरण कमल बसे हुए हैं , वह अपने परमात्मा के नाम रुपी अमृत को चखता है अर्थात जब हम उस नाम रुपी रस को चखते हैं , तब ही हम चौरासी लाख जियाजून के चक्कर से निकल पाते हैं अन्यथा हमारी आत्मा एक चोला छोड़ेगी , उसे दूसरा चोला मिलेगा इसी तरह यह क्रम चलता रहेगा । हमारी आत्मा सृष्टि की शुरुआत से ही भटक रही है । जब सतगुरु की हमारे ऊपर मेहर होती है तो वह अपने अन्दर बसे हुए परमात्मा की ओर खींचता है और जब हम परमात्मा की ओर खिंचे चले जाते हैं और उस शब्द के साथ जुड़ते चले जाते हैं , हमारे कर्म कटने शुरू हो जाते हैं और हम चौरासी लाख के जियाजून के चक्कर से निकलना शुरू हो जाते हैं ।
वाणी : गुरु अर्जन देव जी ,
प्रस्तुति राकेश खुराना

कहत कबीर सुनो भाई साधो , होनी होके रही

कर्मों के विधान से कोई भी नहीं बच नहीं सका। एक पौराणिक आख्यान के माध्यम से कबीर दास जी हमें समझाते हैं :-
राहु केतु औ भानु चंद्रमा , विधि संयोग परी ।
कहत कबीर सुनो भाई साधो , होनी होके रही ।
कबीर दास जी फरमाते हैं कि जो राहु और केतु हैं उनका ग्रहण भानु और चंद्रमा को लगता है । उसकी कहानी इस प्रकार है – समुद्र मंथन हो रहा था । उसमें से अमृत , शराब और जहर तीनों ही निकले । जो देवता थे उन्होंने सोचा कि हम अमृत पीयें और शराब राक्षसों को पिलायें , विष तो महादेव जी ने पी लिया था । देवताओं ने अमृत पीना शुरू कर दिया तो एक राक्षस जिसका नाम राहु था, उसको मालुम हो गया । उसने अपना भेष बदला और देवताओं की पंक्ति मेंजाकर बैठ गया । उसने अमृत पीया , अमृत अभी मुंह में ही था , गले के नीचे भी नहीं उतरा था कि भगवान विष्णु को पता चल गया , भगवान विष्णु ने तुरंत उसका सिर काट दिया । अब जो सिर कटा हुआ है उसको केतु बोलते हैं और जो नीचे का धड़ है , उसको राहु बोलते है। चंद्रमा और सूर्य ने यह बात भगवान विष्णु को बताई थी । चंद्रमा और सूर्य को कुछ – कुछ समय बाद जो ग्रहण लगता है , राहु और केतु ही उसका निमित्त होते हैं । इस दोहे का कोई सम्बन्ध जे दी यूं और भाजपा के गठबंधन से नही है|
संत कबीर दास जी,
प्रस्तुति राकेश खुराना

गुरु प्रीतम मेरे साथ है कष्टों में , वह स्वयम मुझे छुड़ा लेता है

गुरु प्यारे मेरे नाल है , जित्थे किथे मैनूं लए छुड़ाई ।
अर्थात गुरु प्रीतम मेरे साथ है , जहाँ कहीं भीड़ पड़ती है , वह मुझे छुड़ा लेता है ।
गुरु और शिष्य का रिश्ता बहुत गाढ़ा है जिसकी मिसाल नहीं दी जा सकती , फिर भी महात्माओं ने समझाने का यत्न किया है । माता और बच्चे के प्रेम के उदाहरण से इस रिश्ते को समझने में मदद मिल सकती है । बच्चे को जन्म देकर माता उसकी कितनी संभाल करती है ,बच्चा दुखी हो तो माता को चैन नहीं , उसका दुःख दूर करना का यत्न करती है । सारी – सारी रात जागती है , बच्चा खुश हो तो माता का ह्रदय खिल उठता है । बच्चा मल-मूत्र में सन जाता है , माता को घिन नहीं आती , उसको साफ़ करके ह्रदय से लगा लेती है । बच्चे के लालन-पालन के साथ -साथ वह उसके बौद्धिक विकास में सहायता देती है , बुरे भले का ज्ञान उसे देती है । इसी प्रकार शिष्य जब सतगुरु के घर जन्म लेता है अर्थात दीक्षा या नाम लेता है तो वह परमार्थ में अबोध होता है , गुरु मन और इन्द्रियों को स्थिर करने का साधन शिष्य को देता है अपनी दया – मिहर की दृष्टि से अंतर्मुख नाद या ध्वनि का परिचय और अनुभव उसे देता है । गुरु को हर वक्त शिष्य की भलाई का ध्यान रहता है , वह यत्न करता है कि शिष्य विकार रहित हो , उसके सारे अवगुण धुल जाएं ।
ज्यों जननी सुत जन पालती रखती नदर मंझार ।
त्यों सतगुरु सिख को रखता हरि प्रीत प्यार ।
गुरुवाणी ,
प्रस्तुति राकेश खुराना

भगवान का नाम परम पवित्र और संसार सागर से पार उतारने वाला है

परम – पुण्य प्रतीक है , परम – ईश का नाम ।
तारक-मन्त्र शक्ति घर , बीजाक्षर है राम ।
साधक-साधन साधिये , समझ सकल शुभ-सार ।
वाचक – वाच्य एक है , निश्चित धार विचार ।

भाव: परमेश्वर, स्वामी , उच्चतम शासक अर्थात भगवान का नाम परम पवित्रता का चिन्ह है – परम शुद्धता की मूर्ति है- नाम। “राम ” जो शक्ति का पुंज है , पूर्ण अर्थात मूल मन्त्र है , वह संसार सागर से पार उतरने वाला है , उद्धार करने वाला है , मोक्ष दाता है ।
अतएव हे साधक , राम-मन्त्र को सब अच्छाइयों का निचोड़ समझकर आध्यात्मिक साधनों का अभ्यास करो । इस तथ्य को निश्चित रूप से धारण करो कि जिस वस्तु तथा शब्द द्वारा उसे वर्णित किया जा रहा है , दोनों एक हैं , अर्थात अपने ह्रदय में यह सुदृढ़ विश्वास रखो कि नाम एवं नामी , वाचक एवं वाच्य एक ही हैं ।
स्वामी सत्यानन्द जी महाराज द्वारा रचित अमृतवाणी का एक अंश,
प्रस्तुति राकेश खुराना

सच्चे गुरु के बगैर माया रुपी जाल से मुक्ति नही मिलती

माया दीपक नर पतंग , भ्रमि भ्रमि इवैं पड़ंत ।
कह कबीर गुरु ग्यान तैं , एक आध उबरंत ।
भाव: कबीर दास जी कहते हैं कि जीव पतंगे के समान बार-बार माया रुपी
दीपक के प्रति आकर्षित होकर भ्रमजाल में पड़ जाता है और अपने जीवन को बिगाड़ लेता है । एकाध ही गुरु कृपा और गुरुज्ञान के सहारे इस आवागमन के चक्र से छूट जाता है । अर्थात- चाहे आप कितनी ही साधना,जप और नियमों में बंधे हैं जब तक आपको सच्चा गुरु नहीं मिल जाता , तब तक आप इस माया रुपी जाल से निकल नहीं सकते और न ही आत्म-ज्ञान को प्राप्त कर सकते हैं ।
वाणी: संत कबीर दास जी,
प्रस्तुति राकेश खुराना

हे प्रभु मुझे आपने मोह माया की दुनिया में फंसा तो दिया है अब इससे निकलने में मदद भी करो

साहिब कौन देस मोहि डारा ।
साहिब कौन देस मोहि डारा ॥
वह तो देश अजर हंसन का ।
यह सब काल पसारा ॥
भाव: इन शब्दों में रूह की पुकार है । हे परमात्मा , ये तूने क्या किया ? मैं जो सतनाम की वासी हूँ , महाचेतनता के समुद्र की बूंद हूँ , मुझे मोह माया की दुनिया में फंसा दिया है और अब मेरी ऐसी शोचनीय अवस्था है कि कुछ कहते नहीं बनता । मेरी मदद कर , मुझे अपने घर ले चल । मेरी हालत ऐसी है कि मैं मोह माया में , इन्द्रियों के घाट पर , रो रही हूँ , हे गुरुवर , मुझ पर दया करो और मुझे अपने निज घर ले चलो । जो मेरा असली देश है वह तो अविनाशी है , वहां रहने वाले हंस वृत्ति के लोग हैं जो सत – असत का निर्णय कर सकते हैं । मगर इस दुनिया में जहाँ तुमने मुझे डाल दिया है , सब कुछ नष्ट होने वाला है ।
वाणी : श्री धर्म दास जी,
प्रस्तुति राकेश खुराना

प्रभु राम का रूप है – परम कृपा -(Supreme Grace) किन्तु उनका आतंरिक स्वभाव सुख देने वाला मंगल कारी है

सुखदा है शुभा कृपा, शक्ति शांति स्वरूप ।
है ज्ञान आनंदमयी, राम – कृपा अनूप ।
भावार्थ :प्रभु राम का रूप है – परम कृपा -(Supreme Grace) किन्तु उनका स्वरूप (आतंरिक स्वभाव) है – सुख देने वाला , मंगल करनेवाला, हर्ष, हित,
अच्छाई , सौभाग्य प्रदान करने वाला । उनकी कृपा अतुल्य है , वह ज्ञान एवं आनंद का भंडार है , शक्ति-सामर्थ्य , शांति-आनंद का अक्षय स्रोत है । राम कृपा सुख देने वाली है, सब का मंगल करने वाली है , शक्ति व शांति उसके निज रूप हैं , वह आनंद और ज्ञान से परिपूर्ण है अतः अनुपम है ।
रूप-स्वरूप : आभूषण का रूप है – हार, कंगन,कुंडल आदि परन्तु उसका स्वरूप है स्वर्ण । मिश्री चपटी है , दानेदार है – यह मिश्री का दिखाई देने वाला रूप है , परन्तु मिश्री का स्वरूप है- उसकी मिठास । हर प्रकार की मिश्री मीठी होती है ।
स्वामी सत्यानन्द जी महाराज द्वारा रचित अमृतवाणी का एक अंश,
प्रेषक: श्री राम शरणम् आश्रम, गुरुकुल डोरली, मेरठ,
प्रस्तुति राकेश खुराना

गुरुभक्त के सामने तो काल भी सिर झुकाता है

लगा रहे सतज्ञान सों, सबही बंधन तोड़ ।
कहैं कबीर व दास सौं, काल रहै हथजोड़ ।
भावार्थ: कबीर साहिब शिष्य की महिमा बताते हुए कहते हैं, जिसने विषयों से अपने मन को हटा लिया है, जो सांसारिक बंधनों से रहित है और सत्य-स्वरूप में जिसकी दृढ़ निष्ठा है, ऐसे गुरुभक्त के सामने तो काल भी सिर झुकाए खड़ा रहता है। अर्थात- मन की लम्बी दौड़ और काम-वासना ही मनुष्य का काल है। एक सच्चे गुरु-भक्त के सामने कामवासनाएं या कल्पनाएँ ठहरती ही नहीं हैं ।
वाणी: कबीर दास जी,
प्रस्तुति राकेश खुराना

राम नाम का धन ही परलोक में भी मनुष्य के साथ जाता है

राम नाम की पूँजी मुक्ति का आधार

पूँजी राम नाम की पाइए. पाथेय साथ नाम ले जाइये
नशे जन्म मरण का खटका, रहे राम भक्त नहीं अटका.

भाव : संतजन हमें समझाते हुए कहते हैं कि मनुष्य को इस जीवन में राम नाम का धन एकत्र करना चाहिए क्योंकि केवल यही धन ऐसा है जो परलोक में भी मनुष्य के साथ जाता है इसके सिवाय कोई और सांसारिक वस्तु साथ नहीं जाती . जिस मनुष्य के पास राम नाम की पूँजी है उसे जीवन मृत्यु के आवागमन का संशय नहीं रहता . तथा मुक्ति मार्ग में आने वाली विघ्न- बाधाएँ परमात्मा की कृपा से समाप्त हो जाती हैं .
पूजनीय स्वामी सत्यानन्द जी महाराज द्वारा रचित अमृतवाणी का एक अंश
प्रस्तुति राकेश खुराना

माया के सुखों का उपयोग करने से परमात्मा दूर होता है

भारत वर्ष आदि काल से संत+मुनि+ऋषियों का देश है |मानव मात्र के कल्याण के लिए समर्पित ये संत जन समय समय पर मानव का मार्ग दर्शन करते रहते हैं ऐसी ही प्रस्तुत है एक संत वाणी
संत महापुरुष समझाते हुए कहते हैं कि परमात्मा ही सुख का स्वरुप है। जगत भोगों में इन्द्रियों को जो सुख जान पड़ता है, वह क्षण भंगुर, परिणामों में दुखदाई , मन बुद्धि को मलिन एवं चंचल करने वाला है। अतः परमात्मा की प्राप्ति के लिए भरसक कोशिश करनी चाहिए।
माया के सुख वास्तव में उस परमात्मा की खोज करने के लिए साधनमात्र हैं इस के अतिरिक्त इनका उपयोग करने से परमात्मा से दूर होना है।
संत वाणी
प्रस्तुति राकेश खुराना