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इंटरनेट से सूचना तंत्र में आई क्रांति का भविष्य क्या होगा ;सीधे एल के अडवाणी के ब्लॉग से

एन डी ऐ के पी एम् इन वेटिंग और वरिष्ठ पत्रकार लाल कृष्ण अडवाणी ने अपने ब्लॉग के माध्यम से इंटरनेट(अंतरताना)के उपयोग दुरूपयोग और इसके दमन के विषय में रोचक तथ्य दिए हैं| आतंक वादियों द्वारा इसके दुरूपयोग और विक्लिक्स के अनेकों राजनितिक रहस्योद्घाटन और फिर उसके दमन का उल्लेख करके भविष के प्रति चिंता प्रकट की है| प्रस्तुत है सधे एल के अडवाणी के ब्लॉग से;
गत् सप्ताह एक मित्र ने मुझे ‘इंटरनेट‘ (अंतरताना) से सम्बन्धित एक उत्कृष्ट पुस्तक भेजी, सत्य यह है कि हाल ही के वर्षों में जिन उत्तम पुस्तकों को पढ़ने का मौका मिला, यह उनमें से एक है। पुस्तक का शीर्षक है

”दि न्यू डिजिटल एज”

इस पुस्तक पर की गई टिप्पणियों में

ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर की टिप्पणी

भी समाहित है, जिसमें वह कहते हैं:
यह पुस्तक इंटरनेट द्वारा सृजित की जा रही नई दुनिया की प्रकृति और इसकी चुनौतियों-दोनों को परिभाषित करती है। यह जन्म ले रही एक प्रौद्योगिक क्रांति का वर्णन करती है। हम इसे कैसे माप पाते हैं, यह देशों, समुदायों और नागरिकों के लिए चुनौती है। एरिक चमस्मिट (Eric schmidt½ और जारेड कोहेन (Jared Cohen½ – इन दोनों से ज्यादा और कौन इसके तात्पर्य को अच्छी तरह से जान सकता है।
इरिक सचमिड्ट, गूगल के इग्जेक्यटिव चेयरमैन हैं और जारेड कोहेन इस पुस्तक के सहयोगी लेखक होने के साथ-साथ गूगल आईडियाज़ के निदेशक हैं।
लेखक द्वारा लिखी गई प्रस्तावना का शुरुआती वाक्य है: ”इंटरनेट उन कुछ चीजों में से है जिसे मनुष्यों ने बनाया लेकिन वे इसे वास्तव में समझते नहीं हैं।”
प्रस्तावना के अंतिम पैराग्राफ में लिखा है:
”यह पुस्तक गजेट्स, स्माल फोन एप्पस या आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के बारे में नहीं है, यद्यपि इन प्रत्येक विषयों के बारे में चर्चा की जाएगी….
सर्वाधिक, यह पुस्तक नए डिजिटल युग में मार्गदर्शक मानवीय हाथ के महत्व के बारे में है। संचार प्रौद्योगिकी जिन सभी संभावनाओं का प्रतिनिधित्व करती है, उनका अच्छे या बुरे उपयोग का सारा दारोमदार लोगों पर निर्भर करता है। भूल जाइए उन सभी बातों को जो मशीनों के प्रभावी होने से उठती हैं। हमारे लिए मुख्य है कि भविष्य में क्या होगा।”
मार्च, 2011 में चेन्नई से प्रकाशित हिन्दू ने भारत की विदेश नीति और घरेलू मामलों से सम्बंधित रिपोर्टों की श्रृंखला प्रकाशित करना शुरु किया था, जिनके चलते भारतीय पाठकों को विकीलीक्स नाम के संगठन से घनिष्ठ परिचय हुआ। 15 मार्च, 2011 को हिन्दू के तत्कालीन मुख्य सम्पादक एन. राम ने लिखा:
आज से हिन्दू अपने पाठकों को लिए ऐसी श्रृंखला शुरु कर रहा है जो इसके पाठकों को भारत की विदेश नीति और घरेलू मामलों, कूटनीति, राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और बौध्दिक पक्ष की अप्रत्याशित अंतरंग जानकारी देगी जिसे अमेरिकी राजनायिकों ने वाशिंगटन डीसी में विदेश विभाग को भेजे गए केबलों में प्राप्त, प्रत्यक्षदर्शी, जुटाई गई, परिभाषित, टिप्पणियों सहित संजोया गया था।
विषयों, मुद्दों और इण्डिया केबल्स में वर्णित व्यक्तियों का दायरा अद्भुत है। जबकि दक्ष राजनयिकों की दृष्टि बहुधा सदैव अपने लक्ष्य पर थी-विकसित होते भारत-अमेरिकी सामरिक रिश्ते और इसमें सहायक या रोड़ा अटकाने वाली हर चीज-इस दायरे में शामिल है। भारत के अपने पड़ोसियों से रिश्ते, रुस, यूरोपियन यूनियन, ईस्ट एशिया, इस्राइल, फिलस्तीन, इरान और समूचा पश्चिम एशिया, अफ्रीका, क्यूबा और संयुक्त राष्ट्र। गुप्तचर सूचनाओं का आदान-प्रदान, निर्यात नियंत्रण, मानवाधिकार, भारतीय नौकरशाही, पर्यावरण, अफगान-पाक और बहुत कुछ। 26/11 पर विशेष फोकस है, कश्मीर, पाकिस्तान श्रीलंका, नेपाल, बंगलादेश और म्यनमार के प्रति भारत की नीति और भारतीय नीति किधर जा रही है। सभी दलों के राजनीतिक, कूटनीतिज्ञ, और सभी अधिकारी, जासूस, व्यवसायी, पत्रकार, व्यस्ततम लोग, बड़े-बड़े और छोटे-छोटे लोग विकीलीक्स के भारत सम्बन्धी केबल्स में हैं-जो अमेरिकी दूतावास और कान्सुलेट के 5100 केबल्स हैं जो भारत के संदर्भ में प्रासंगिक हैं (सभी भारत से नहीं भेजे गए हैं) और विस्मयकारी 6 मिलियन शब्दों में फैले हैं।”
समाचारपत्र के बहुत से पाठकों की भांति मैं भी विकीलीक्स के मुख्य सम्पादक द्वारा गुप्त दस्तावेजों में सेंध लगाकर रहस्योद्धाटित की गई जानकारियों से काफी प्रभावित हुआ। इसलिए, ब्रिटेन में एसांजे के नजरबंद किए जाने से मैं काफी दु:खी हुआ।
चमस्मिट और कोहेन ने नजरबंदी के दौरान एसांजे से साक्षात्कार किया:
पुस्तक में लिखा है:
साक्षात्कार के दौरान,

एसांजे ने इस विषय पर अपने दो मूल तर्कों को साझा किया। जोकि सम्बंधित हैं: पहला, हमारी मानव सभ्यता हमारे सम्पूर्ण बौध्दिक जीवन इतिहास (रिकार्ड) पर बनी है; अत: रिकार्ड जितना सम्भव हो उतना बड़ा होना चाहिए जो हमारे अपने समय को आकार दे सके तथा भावी पीढ़ियों को सूचित कर सके। दूसरा, क्योंकि विभिन्न पात्र सदैव अपने इतिहास को आत्मसम्मान की खातिर नष्ट करने या संवारने का प्रयास करते हैं, तो अत: सबका जहां तक संभव हो सक,े जो सत्य चाहते हैं और उसे महत्व देते हैं को रिकार्ड को नकारने से बचाने, और फिर इस रिकार्ड को जहां तक सम्भव हो सभी लोगों को सभी जगह सुलभ और शोधयोग्य बनाना चाहिए।

एसांजे के इस अवतार ने स्वाभाविक रुप से मुझे सत्तर के दशक में हमारे आपातकाल के प्रकरण का स्मरण करा दिया जब एक लाख से ज्यादा विपक्षी कार्यकर्ताओं को राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा मानकर जेलों में ठूंस दिया गया, इस पृष्ठभूमि में, इसलिए मैं इस मत का समर्थन करता हूं कि इंटरनेट इत्यादि पर सभी नियंत्रण अवांछनीय हैं और इसलिए एसांजे के उपरोक्त तर्कों से सहमत हूं तथा उनके विचार को समर्थन देता हूं कि व्यापक पारदर्शिता एक ज्यादा न्यायसंगत, सुरक्षित और स्वतंत्र विश्व बनाएगी।
मैं अवश्य ही यह मानता हूं कि इस पुस्तक ने मेरे लिए एक चेतावनी दी है कि इंटरनेट और अन्य आधुनिक संचार उपकरणों द्वारा लाई गई क्रांति ने राष्ट्रों और वैयक्तिक नागरिकों की सुरक्षा के लिए बहुत गंभीर परिणाम पैदा कर दिए हैं।
जब मैंने ‘चेतावनी‘ शब्द का प्रयोग जोर देकर किया कि कैसे यह पुस्तक इंटरनेट जैसे आधुनिक संचार उपकरणों के प्रति मेरे सहज मोह को प्रभावित करती है, तो मुख्य रूप से मेरे दिमाग में इस पुस्तक का पांचवां अध्याय है, जिसका शीर्षक है ”

दि फ्यूचर ऑफ टेरोरिज्म”।

अध्याय की शुरूआत में ही लिखा है:
”जैसाकि हमने स्पष्ट किया कि तकनीक एक समान अवसर हेतु सक्षम बनाने, लोगों को अपने लक्ष्यों के लिए प्रयोग करने हेतु शक्तिशाली औजार प्रदान करती है, कभी अद्भुत रूप से रचनात्मक लक्ष्यों लेकिन कभी-कभी अकल्पनीय विनाशकारी लक्ष्यों के लिए। अपरिहार्य सत्य यह है कि कनेक्टिविटी आतंकवादियों और हिंसक चरमपंथियों को भी फायदा देती है; जैसे यह फैलती है वैसे ही जोखिम भी। भविष्यगत आतंकवादी गतिविधियों में भर्ती से लेकर क्रियान्वयन जैसे भौतिक और वास्तविक पहलू शामिल रहेंगे। आतंकवादी समूह बम या अन्य माध्यमों से वार्षिक तौर पर हजारों लोगों को मारते रहेंगे। यह व्यापक लोगों, उन देशों के लिए बहुत बुरा समाचार है जो पहले से ही भौतिक विश्व में अपनी मातृभूमि को बचाने में काफी मुश्किलों का सामना कर रहे हैं और कम्पनियां निरंतर उनकी मार के दायरे में आएंगी। और निस्संदेह यह भयावह संभावना बनी रहेगी कि इनमें से कोई एक समूह परमाणु, रसायनिक या जैविक हथियार से युक्त हो जाए।
इस पुस्तक के लेखकद्वय ने परिचय में उल्लेख किया है कि इस पुस्तक का विचार उन्हें सन् 2009 में बगदाद में मिलने पर सूझा। दोनों इराक में इस महत्वपूर्ण सवाल से जूझ रहे थे कि एक समाज को फिर से बनाने में कैसे तकनीक का उपयोग किया जा सकता है।
आतंकवाद सम्बन्धी अध्याय में वे कहते हैं ”सन् 2009 में जब वे यात्रा कर रहे थे तब उन्हें यह ख्याल आया कि एक ”आतंकवादी बनना कितना सरल” हो गया है। वे लिखते हैं कि आई ई डी (उन्नत विस्फोटक उपकरण) पहले महंगे थे। सन् 2009 तक वे काफी सस्ते हो गए और ”एक बम जिसका ट्रीगर मोबाईल फोन सेट के कम्पायमान (वाईब्रेट) से दूर से ही नम्बर मिलाकर विस्फोट किया जा सकता है।”
एबटाबाद में ओसामा बिन लादेन प्रकरण का संदर्भ देते हुए पुस्तक कहती है:
”भविष्य में आतंकवादी पाएंगे कि तकनीक आवश्यक है लेकिन ज्यादा जोखिम वाली है। सन् 2011 में ओसामा बिन लादेन की मौत प्रभावी रूप से आधुनिक प्रौद्योगिकी पर्यावरण से अलग-थलग रहकर गुफा के ठिकाने वाले आतंकवादी युग को समाप्त करती है। कम से कम पांच वर्ष तक बिन लादेन पाकिस्तान के एबटाबाद के अपने ठिकाने में इंटरनेट या मोबाइल फोन के बगैर छुपा रहा।
और भले ही ‘ऑफ लाइन‘ रहकर बिन लादेन पकड़े जाने से बचा रहा, लेकिन वह फलैश ड्राइव्स, हार्ड ड्राइव्स और डीवीडी का प्रयोग अपनी जानकारी तरोजाता बनाए रखने के लिए किया करता था। इन उपकरणों ने उसे अल-कायदा के दुनियाभर में चल रहे ऑपरेशनों पर नजर रखने में सबल बनाया और उसके गुर्गों को उसके तथा सर्वत्र विभिन्न आतंकी गुटों के बीच बड़ी मात्रा में डाटा प्रदान करने में सहायता की। जब तक वह आजाद रहा, इन उपकरणों पर उपलब्ध सूचनाएं सुरक्षित थीं और पहुंच से बाहर। लेकिन जब नेवी सील टीम सिक्स ने उसके घर पर धावा किया, उन्होंने उसके उपकरणों को कब्जे में लिया, और न केवल उन्हें वांछित व्यक्ति पकड़ने में सफलता मिली अपितु उन सभी के बारे में भी महत्वपूर्ण सूचनाएं मिलीं जिनके सम्पर्क में वह था।”
इसी संदर्भ में एक और उदाहरण दिया गया है कि कैसे नए उपकरणों ने एक आतंकवादी ऑपरेशन करने में सफलता प्राप्त की लेकिन अपने पीछे सन् 2008 में मुंबई पर हुए आतंकवादी हमले जिसमें दस नकाबधारी लोगों ने शहर को तीन दिन तक बंधक बना कर रखा और अनेक विदेशियों सहित 174 व्यक्ति मारे गए, को फंसाने वाला वर्णन भी छोड़ा।
”बंदूकधारी पाकिस्तान में बैठे अपने सूत्रधारों से सामंजस्य बैठाने और हमला करने हेतु, तथा बुनियादी उपभोक्ता प्रौद्योगिकी – ब्लैकबेरी, गूगल अर्थ और वीओआईपी – पर निर्भर थे, जो इस घटना का ताजा प्रसारण्ा सेटेलाइट टेलीविजन पर देख रहे थे और समाचारों की मॉनिटरिंग कर सचमुच में सामरिक निर्देश दे रहे थे। प्रौद्योगिकी ने इन हमलों को अन्य स्थिति की तुलना में ज्यादा घातक बना दिया लेकिन एक बार जब (अंतिम और एकमात्र जीवित) बंदूकधारी पकड़ा गया, उसके पास जो सूचना थी और महत्वपूर्ण यह कि उसके साथियों के छोड़े गए उपकरणों ने जांचकर्ताओं को इलेक्ट्रॉनिक जांच करते हुए पाकिस्तान में बैठे महत्वपूर्ण लोगों और स्थानों तक पहुंचाया जोकि दूसरी स्थिति में अनेक महीनों तक पता ही नहीं चलते, कभी नहीं भी।”
टेलपीस (पश्च्य लेख)
सी आई ए के पूर्व डारेक्टर जनरल मिशेल हायडेन ‘दि न्यू डिजिटल एज‘ ‘उन सभी को पढ़ने के लिए अनिवार्य मानते हैं जो डिजिटल क्रांति की गहराई को समझना चाहते हैं।‘
यह पुस्तक कहती है कि दुनियाभर के अधिकांश इंटरनेट उपयोगकर्ताओं को किसी रूप में सेंसरशिप – जिसे कोमल भाषा में ‘फिल्टरिंग‘ के नाम से जाना जाता है – का सामना करना पड़ता है। लेकिन देशों में फिल्टरिंग के तीन मॉडल प्रचलित हैं : खुले तौर पर, संकोची और राजनीतिक तथा सांस्कृतिक रूप से स्वीकार्य।
खुले तौर पर : चीन दुनिया में सूचनाओं का सर्वाधिक उत्साही फिल्टर करने वाला देश है। दुनियाभर में प्रर्याप्त लोकप्रिय समूचे प्लेटफार्म – फेसबुक, टि्वटर, टुमबलर – पर चीनी सरकार ने रोक लगाई हुई है। इसी प्रकार राजनीतिक रूप से नाजुक तियनामेन स्कवेयर विरोध, दलाई लामा, तिब्बती अधिकार आंदोलन, 2011 में गूगल के चेयरमैन की बीजिंग यात्रा इत्यादि भी।
संकोची- हालांकि तुर्की में चीन जैसी खुले तौर पर फिल्टरिंग नहीं है परन्तु तुर्की सरकार का खुले इंटरनेट से सम्बन्ध सहज नहीं है। फिर भी लगभग 8000 वेबसाइट्स बगैर सार्वजनिक नोटिस या अधिकारिक सरकारी स्वीकृति के तुर्की मे ‘ब्लॉक‘ कर दी गईं।
राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप से स्वीकार्य: पुस्तक इस श्रेणी में दक्षिण कोरिया, जर्मनी और मलेशिया जैसे देशों को रेखांकित करती है। यह फिल्टरिंग चुनींदा है और कानून आधारित अत्यन्त विशेषीकृत सामग्री को सेंसरशिप से रोकने का न तो प्रयास करती है न ही औचित्य का।
पुस्तक की इच्छा है कि यह तीसरा मॉडल समूचे विश्व का नियम बनना चाहिए।

पोलिटिकली+कल्चरली सेंसरशिप स्वीकार्य है : सीधे एल के अडवाणी के ब्लाग से

एन डी ऐ इन वेटिंग और वरिष्ठ पत्रकार लाल कृषण अडवाणी ने अपने नवीनतम ब्लॉग के पश्च्य लेख[ TAILPIECE ] के माध्यम से इन्टरनेट के माध्यम से व्यक्त किये जा रहे विचारों पर लगाई जा रही सेंसरशिप का उल्लेख किया है | उन्होंने सी आई ऐ [CIA ]के पूर्व निदेशक MichaelHayden के हवाले से पोलिटिकली+कल्चरली [ POLITICALLY AND CULTURALLY ] सेंसरशिप को बेहतर बताया है| श्री आडवाणी ने माइकल हेडेन [ MichaelHayden ] की पुस्तक के हवाले से विश्व में तीन प्रकार की सेंसरशिप का उल्लेख किया है|
[१]

खुल्लमखुल्ला

सेंसर शिप के लिए दबंग चाइना का ज्वलंत उदहारण दिया जा सकता है| चाइना में फेस बुक+ट्विटर+टुम्बिर आदि सोशल साईट्स को थियमनन चौक कांड के बाद [ Tianenmen Square ] सरकार द्वारा खुल्लम खुल्ला बैन कर दिया गया| दलाई लामा के तिब्बत आन्दोलन पर चर्चा पर पूर्णतया पाबंदी है|
[२]

शर्मनाक भेड़ छननी

[ SHEEPISH:Filter ]इसके सपोर्ट में टर्किश सरकार का उदहारण दिया गया है| टर्किश सरकार स्वयम को इंटरनेट यूसर्स के साथ असहज मानती है| बेशक यहाँ चीन की तरह खुल्लम खुल्ला दबंगई नही है फिर भी सूचना या चेतावनी दिए बगैर ही लगभग ८००० वेबसाइट ब्लाक कर दी गई है|
[३]

पोलिटिकली+कल्चरली स्वीकार्य

[POLITICALLY AND CULTURALLY ]इस फ़िल्टर को सबसे भिन्न बताया गया है| इसके लिए साउथ कोरिया+ जर्मनी + मलेशिया के उधारण हैं| यह सेंसर शिप चुनिन्दा और कानूनन कुछ स्पेशल केसों पर ही लागू होती है| जिसे छुपाया नहीं जाता +जबरदस्ती थोपा नही जाता+चोरी छुपे लागू नहीं किया जाता| हेडेन की पुस्तक में इस तरीके की सेंसरशिप की कामना की गई है|
सर्व विदित है के भारत में इमरजेंसी के कारण श्री आडवाणी आदि राजनीतिज्ञों ने जेलों में कष्ट सहे थे|और उस उत्पीडन से उबरने के लिए जनता पार्टी का गठन किया गया था| अब फिर से देश में सोशल मीडिया पर पाबन्दी लगाने के लिए प्रयास शुरू हो गए हैं ऐसे में यह लेख आई ओपनर हो सकता है|