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Tag: Cultural Secularism Through Ayodhya yatara

एल के अडवाणी अपनी पहली अयोध्या यात्रा से देश में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद भी लाना चाहते थे :सीधे एल के अडवाणी के ब्लाग से

भारतीय जनता पार्टी [भाजपा]के वयोवृद्ध नेता और पत्रकार लाल कृषण आडवाणी अपनी पहली अयोध्या यात्रा से देश में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद लाना चाहते थे| यह स्पष्टि करण उन्होंने अपने ब्लॉग के टेलपीस (पश्च्यलेख) में किया है |
अडवाणी ने अपनी पहली अयोध्या यात्रा के उद्देश्यों को स्पष्ट करते हुए बताया कि इस यात्रा के माध्यम से सांस्कृतिक राष्ट्रवादको मजबूत करना भी एक लक्ष्य था | उन्होंने कहा “ऊपरी तौर पर, मेरी पहली यात्रा, सोमनाथ से अयोध्या तक को माना जाता है कि यह विश्व हिन्दू परिषद द्वारा अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के उद्देश्य को मजबूत करने के उद्देश्य से की गई। परन्तु भाजपा के लिए, इस अभियान के दो स्पष्ट राजनीतिक उद्देश्य भी थे।
(1) असली सेक्युलरिज्म और छद्म सेक्युलरिज्म के बीच बहस चलाना, और
(2) सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के मुद्दे को मजबूत करना।”
आज के ब्लॉग में मैंने पूर्व ब्लॉग में लिखे गए असली सेक्युलरिज्म सम्बन्धी मार्क टुली के विचारों को हवाला दिया। संस्कृति और धर्म के बारे में उन्होंने ”नो फुल स्टॉप्स इन इण्डिया” पुस्तक में जो लिखा है, मैं उसे यहाँ उदृत किया जा रहा है
मार्क टुली लिखते हैं:
“किन्हीं लोगों की संस्कृति और पहचान को नष्ट करने का सर्वाधिक अच्छा तरीका है उनके धर्म और उसकी भाषा को उपेक्षित करना। हम, ब्रिटिशों ने भारत के शासक के रूप में और अब विश्व की प्रभुत्व वाली संस्कृति के रूप में कर रहे हैं। यह सत्य है कि भारत के ब्रिटिश शासक हिन्दुओं के बारे में, विशेष रूप से विद्रोह के बाद ज्यादा सचेत थे। हमने भारत को ईसाइयत में बदलने का प्रयास नहीं किया। लेकिन हमने यह आभास पैदा कर दिया कि हमारा धर्म हिन्दूइज्म से श्रेष्ठ है। कलकत्ता में एक बच्चे के रूप में मुझे स्मरण है कि हमें सिखाया जाता था कि मुस्लिम हिन्दुओं की तुलना में श्रेष्ठ हैं क्योंकि कम से कम वे मूर्तिपूजा नहीं करते।
स्वतंत्रता के समय, भारत ने आधुनिक पश्चिमी विचार को अपनाया कि सामान्य ज्ञान बताता है कि धर्म को सम्पूर्ण रूप से निजी दायरे तक सीमित रखना चाहिए और इसे सभी सार्वजनिक जीवन से दूर रखना होगा। तथ्य यह है कि पश्चिम में बहुसंख्या में लोग धर्म को अपने तक सीमित रखते हैं। ‘आधुनिक‘ भारतीय अपरिहार्य रूप से हमारा उदाहरण अपनाते हैं और जो कोई भी सार्वजनिक जीवन से सभी रूपों में धर्म को अलग रखने में विश्वास नहीं करते, को ‘साम्प्रदायिक‘ माना जाता है, पूर्ण रूप से उनके अपने समुदाय से। अभिजात वर्ग का तथाकथित सेक्युलरिज्म, अपरिहार्य रूप से धर्म के प्रति अनादर के रूप में होता है। लेकिन बहुसंख्यक भारतीयों जो आधुनिकता के लाभों का आनन्द नहीं लेते, अभी भी मानते हैं कि धर्म – उनके जीवन के महत्वपूर्ण तत्वों में से सर्वाधिक जरूरी है।”