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डा. श्यामा प्रसाद के बलिदान को सच्ची श्रधांजलि देने के लिए जम्मू कश्मीर में धारा 370 की समाप्ति जरुरी है :सीधे एल के अडवाणी के ब्लाग से

भाजपाके पी एम् इन वेटिंग और वरिष्ठ पत्रकार एल के अडवाणी ने अपने ब्लॉग में अपने नेता स्वर्गीय डॉ श्यामा प्रसाद मुखेर्जी को श्रधांजली देते हुए जम्मू कश्मीर में धारा ३७० को समाप्त किये जाने पर बल दिया है प्रस्तुत है सीधे एल के अडवाणी के ब्लाग से :
ठीक साठ वर्ष पूर्व 23 जून १९५३ में इसी दिन देश को जम्मू एवं कश्मीर राज्य से ह्दय विदारक समाचार मिला कि डा. श्यामा प्रसाद मुकर्जी अब हमारे बीच नहीं रहे।मुझे अच्छी तरह से स्मरण है कि रात्रि के लगभग 2 बजे या उसके आसपास मैं जयपुर के जनसंघ कार्यालय के बाहर किसी के खटखटाने और रोने की आवाज सुनकर नींद से जागा; और मैंने सुना कि ”आडवाणीजी, उन्होंने हमारे डा. मुकर्जी को मार दिया है!” वह एक स्थानीय पत्रकार था, जिसको टिकर पर यह समाचार मिला और वह अपने को रोक नहीं पाया तथा हमारे कार्यालय आकर इस दु:ख में मेरे साथ शामिल हुआ।
यह समाचार लाखों लोगों के लिए एक गहरा धक्का था। इस वर्ष की शुरुआत में डा. श्यामा प्रसाद की नवगठित पार्टी भारतीय जनसंघ का कानपुर में अखिल भारतीय सम्मेलन सम्पन्न हुआ था। इस सम्मलेन में राजस्थान से एक प्रतिनिधि के रुप में भाग लेने का सौभाग्य मुझे मिला था। यहीं पर फूलबाग में इकठ्ठे हुए हजारों प्रतिनिधियों को डा. मुकर्जी ने यह राष्ट्रभक्तिपूर्ण प्रेरक आह्वान किया था-”एक देश में दो प्रधान, दो निशान, दो विधान, नहीं चलेंगे, नहीं चलेंगे।”
कानपुर में ही पार्टी ने जम्मू एवं कश्मीर के भारत में पूर्ण एकीकरण को लेकर पहला राष्ट्रव्यापी आंदोलन चलाने का संकल्प लिया। डा. मुकर्जी ने तय किया कि वह इस आंदोलन का नेतृत्व आगे रहकर करेंगे-व्यक्तिगत रुप से शेख अब्दुल्ला के द्वारा लागू किए गए परमिट सिस्टम की अवज्ञा कर। उन्होंने यह भी निर्णय किया कि वह इस आन्दोलन के लिए समर्थन जुटाने हेतु देश के विभिन्न हिस्सों में जाएंगे। अपने इस पूर्व-अभियान जोकि रेलगाड़ी के माध्यम से हुआ, में उन्होंने श्री वाजपेयी को अपने साथ रहने को कहा।
उन दिनों मैं राजस्थान के कोटा में था। जब मुझे ज्ञात हुआ कि डा. मुकर्जी और अटलजी कोटा जंक्शन से गुजरेंगे तो मैं उनसे स्टेशन पर मिला। तब मुझे इसका तनिक भी आभास नहीं था कि मैं हमारी पार्टी के महान संस्थापक डा. श्यामा प्रसाद को अंतिम बार देख रहा हूं।
8 मई, 1953 को डा. मुकर्जी दिल्ली से जम्मू जाने के लिए पंजाब रवाना हुए। अमृतसर पर 20,000 से ज्यादा के समूह ने उनका शानदार स्वागत किया। अमृतसर से पठानकोट और वहां से माधोपुर की उनकी यात्रा एक विजयी जुलूस की तरह थी। माधोपुर एक छोटा सा कस्बा है जो पठानकोट सैनिक कैण्ट से करीब बारह किलोमीटर की दूरी पर है। माधोपुर रावी नदी के किनारे पर स्थित है और यही रावी नदी पंजाब को जम्मू एवं कश्मीर से अलग करती है। डा. मुकर्जी, अटलजी के साथ एक जीप पर बैठकर जम्मू-कश्मीर में प्रवेश करने हेतु रावी के पुल की ओर बढे। पुल के बीच में जम्मू एवं कश्मीर पुलिस के एक जत्थे ने जीप को रोका और डा. मुकर्जी से पूछा कि क्या उनके पास परमिट है। डा. मुकर्जी ने नहीं में उत्तर दिया और कहा भारतीय संविधान के तहत प्रत्येक भारतीय नागरिक को देश की किसी भी भाग में जाने की आजादी है। जब पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया तो उन्होंने वाजपेयीजी से कहा ”कृपया आप वापस जाओ और लोगों को बताओ कि मैंने बगैर परमिट के जम्मू एवं कश्मीर राज्य में प्रवेश किया है, भले ही एक कैदी के रुप में।”
यह उल्लेखनीय है कि पठानकोट में पंजाब के वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों ने डा. श्यामा प्रसाद को मिलकर बताया कि उन्हें पंजाब सरकार से निर्देश हैं कि यदि डा. मुकर्जी के पास परमिट नहीं भी हो तो भी उन्हें पुल पर स्थित माधोपुर पोस्ट जाने दिया जाए।
साफ है कि यह केन्द्र सरकार और जम्मू एवं कश्मीर राज्य सरकार का संयुक्त ऑपरेशन था कि डा. मुकर्जी को जम्मू एवं कश्मीर राज्य में बंदी बनाकर रखा जाए न कि पंजाब में।इस सुनियोजित अभियान का परिणाम देश के लिए सदमा पहुंचाने वाली विपदा के रुप में सामने आया। 23 जून, 1953 को राष्ट्र को यह समाचार पाकर सदमा पहुंचा कि डा. मुकर्जी जिन्हें बंदी बनाकर श्रीनगर के एक घर में रखा गया था, अचानक बीमार हुए, और थोड़ी बीमारी के बाद चल बसे!
पश्चिम बंगाल के तत्कालीन कांग्रेसी मुख्यमंत्री डा. विधान चन्द्र राय, डा. मुकर्जी की पूजनीय माताजी श्रीमती जोगोमाया देवी और देश के सभी भागों से अनेकानेक प्रबुध्द नागरिकों ने प्रधानमंत्री कार्यालय को टेलीग्राम और पत्र इत्यादि भेजकर न केवल अपना दु:ख और आक्रोश प्रकट किया अपितु तुरंत जांच कराने की भी मांग की कि यह त्रासदी कैसे घटी। इस राष्ट्रीय आक्रोश का कोई नतीजा नहीं निकला। इस असाधारण व्यक्ति की मृत्यु आज भी रहस्य बनी हुई है। ऐसी किसी अन्य घटना के संदर्भ में, एक औपचारिक जांच सर्वदा गठित की जाती रही हैं। लेकिन इस मामले में नहीं। कोई नहीं कह सकता कि क्या यह मात्र अपराधिक असंवेदनशीलता का मामला है या वास्तव में अपराध बोध का भाव!
****हालांकि, रहस्यमय परिस्थितियों में डा. मुकर्जी की मृत्यु को लेकर उमड़े व्यापक जनाक्रोश के चलते अगले कुछ महीनों में घटनाक्रम तेजी से बदला जिससे राष्ट्रीय एकीकरण की प्रक्रिया महत्वपूर्ण रुप से आगे बढ़ी।
सर्वप्रथम और सर्वाधिक महत्वपूर्ण रहा परमिट सिस्टम की समाप्ति।
उस समय तक न तो सर्वोच्च न्यायालय, न ही निर्वाचन आयोग और न ही नियंत्रक एवं महालेखाकार के क्षेत्राधिकार में जम्मू एवं कश्मीर राज्य नहीं था। इन तीनों संवैधानिक संस्थाओं का क्षेत्राधिकार जम्मू एवं कश्माीर पर भी लागू किया गया। उस समय तक राज्य के मुख्यमंत्री को वजीरे-आजम और राज्य के प्रमुख को सदरे-रियासत कहा जाता था। सैध्दान्तिक रुप से, न तो भारत के राष्ट्रपति और न ही प्रधानमंत्री का इस राज्य पर कोई अधिकार था।
डा. मुकर्जी के बलिदान ने इस स्थिति में भी बदलाव लाया। राज्य में प्रधानमंत्री मुख्यमंत्री बन गये, सदरे-रियासत राज्यपाल बन गये और राष्ट्रपति एवं प्रधानमंत्री के औपचारिक अधिकार जम्मू एवं कश्मीर राज्य पर भी लागू हुए।
एक प्रकार से, इस प्रेरक नारे की तीन मांगों में से एक, दो प्रधान एक हो गए, और यद्यपि दो निशान अभी भी हैं मगर राष्ट्रीय तिरंगा राज्य में ऊपर लहराता है।इसके अलावा, दो प्रधानमंत्री एक बने, दो सर्वोच्च न्यायालय एक हुए, दो निर्वाचन प्राधिकरण एक हुए – यह सब डा. श्यामा प्रसाद के बलिदान के कारण हुआ।
देश व्यग्रता से उस दिन की प्रतीक्षा कर रहा है जब धारा 370 समाप्त होगी और दो विधान भी एक हो जाएंगे!