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अडवाणी ने धारा ३७० के लिए कांग्रेस और उमर अब्दुल्लाह के दादा की गलतियों का इतिहास पढाया ;सीधे एल के अडवाणी के ब्लाग से

भाजपा के पी एम् इन वेटिंग और वरिष्ठ पत्रकार लाल कृषण अडवाणी ने कभी अपने सहयोगी रहे जम्मू एवं कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को धारा ३७० पर सलाह देते हुए कहा कि उन्हें ‘धोखाधड़ी‘ और ‘विश्वासघात‘ जैसे शब्दों से भरी आक्रामक भाषा का उपयोग कभी नहीं करना चाहिए। अपने ब्लाग के माध्यम से अडवाणी ने कहा कि उन्हें[उमर] पता होना चाहिए कि संविधान सभा में धारा-370 जो जम्मू एवं कश्मीर राज्य को विशेष दर्जा प्रदान करती, को जब स्वीकृति दी गई तब तक जनसंघ का जन्म भी नहीं हुआ था। हालांकि संविधान के प्रारूप में यदि कोई ऐसा प्रावधान था जिसका विरोध लगभग समूची कांग्रेस पार्टी कर रही थी तो वह यही प्रावधान था। इस मुद्दे पर नवम्बर, 1946 में संविधान सभा द्वारा संविधान को औपचारिक रूप से अंगीकृत करने से दो महीने पूर्व ही विचार किया गया।
इस विषय को लेकर इतिहास के पन्नो को पलटते हुए अडवाणी ने कहा कि सरदार पटेल के तत्कालीन निजी सचिव वी. शंकर द्वारा लिखित दो खंडों में प्रकाशित पुस्तक ‘माई रेमिनीसेंसेज ऑफ सरदार पटेल” के अनुसार विदेश जाने से पहले नेहरू ने जम्मू व कश्मीर राज्य से संबंधित प्रावधानों को शेख अब्दुल्ला के साथ बैठकर अंतिम रूप दिया और संविधान सभा के माध्यम से उन प्रावधानों को आगे बढ़ाने का काम अपने रक्षामंत्री गोपालस्वामी अयंगार को सौंप दिया। प्रस्तुतु है सीधे एल के अडवाणी के ब्लाग से :
अयंगार ने अपने प्रस्तावों को कांग्रेस संसदीय दल की बैठक में प्रस्तुत किया। शंकर के अनुसार इससे चारों ओर से रोषपूर्ण विरोध के स्वर उठने लगे और अयंगार स्वयं को बिल्कुल अकेला महसूस कर रहे थे, एक अप्रभावी समर्थक के रूप में मौलाना आजाद को छोड़कर।
शंकर के अनुसार, ‘पार्टी में एक बड़ा वर्ग था, जो जम्मू व कश्मीर और भारत अन्य तिरस्कृत राज्यों के बीच भेदभाव के किसी भी सुझाव को भावी दृष्टि से देख रहा था और जम्मू व कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा दिए जाने के संबंध में एक निश्चित सीमा से आगे बढ़ने के लिए तैयार नहीं था।
सरदार पटेल स्वयं इसी मत के पक्ष में थे; लेकिन नेहरू और गोपालस्वामी अयंगार के निर्णयों में दखलंदाजी न करने की अपनी स्वाभाविक नीति के चलते उन्होंने अपने विचार प्रस्तुत नहीं किए और इस प्रकार, नेहरू और अयंगार ने अपने अनुसार ही सारा मामला निपटाया था। सच तो यह है कि प्रस्ताव का प्रारूप तैयार करने में सरदार पटेल ने भाग नहीं लिया था। इनके बारे में उन्हें तभी पता चला, जब गोपालस्वामी अयंगार ने कांग्रेस संसदीय दल के सामने उसे पढ़कर सुनाया।‘
कांग्रेस संसदीय दल की बैठक में अपने साथ हुए कठोर बरताव से निराश होकर अयंगार अंतत: सरदार पटेल के पास पहुंचे और उन्हें इस स्थिति से बचाने का अनुरोध किया। सरदार पटेल ने कांग्रेस संसदीय ल की एक और बैठक बुलाई।
शंकर लिखते हैं कि: ”मैंने कभी भी ऐसी तूफानी और कोलाहलपूर्ण बैठक नहीं देखी। मौलाना आजाद को भी शोर मचाकर चुप करा दिया गया। अंत में चर्चा को सामान्य व व्यावहारिक स्थिति में लाने और बैठक में उपस्थित लोगों को यह समझाने-कि अंतरराष्ट्रीय जटिलताओं के कारण एक कामचलाऊ व्यवस्था ही की जा सकती है-का काम सरदार पटेल पर छोड़ा गया।‘
”ऐसा प्रतीत होता है कि कांग्रेस पार्टी अनिच्छापूर्वक ही सरदार पटेल की इच्छाओं के सामने झुकी। वस्तुत: इसी से स्पष्ट हो जाता है कि संविधान सभा में इस प्रावधान पर हुई चर्चा इतनी सतही और नीरस क्यों थी। अयंगार के अलावा और किसी ने कुछ नहीं कहा-न विरोध में, और न ही समर्थन में।”
यह ज्ञात हुआ, यहां तक कि सरदार पटेल और अयंगार को भी उन प्रारूप प्रावधानों को कांग्रेस पार्टी को सहमत कराना मुश्किल रहा जो विदेश जाने से पूर्व अयंगार और शेख अब्दुल्ला ने पण्डित नेहरू के साथ बैठकर तैयार किए थे; शेख अब्दुल्ला इन स्वीकृत प्रारूप् पर भी पुनर्विचार के संकेत देने लगे थे।
14 अक्तूबर, 1949 को गृह मंत्रालय में कश्मीर मामलों के सचिव विष्णु सहाय ने वी. शंकर को लिखा कि शेख अब्दुल्ला ने प्रारूप पर अपना रूख इस दलील पर बदला है कि नेशनल कांफ्रेंस की वर्किंग कमेटी ने इसे स्वीकृति नहीं दी है।
सहाय लिखते हैं कि अब्दुल्ला ने एक वैकल्िपिक प्रारूप भेजा है जिसमें प्रावधान है कि भारतीय संविधान जम्मू एवं कश्मीर में केवल माने गए विषयों पर ही लागू होगा। शेख ने इस तथ्य पर भी आपत्ति की कि प्रस्तावित अनुच्छेद को अस्थायी वर्णित किया गया है और राज्य की संविधान सभा इसे समाप्त करने हेतु सशक्त है।
15 अक्तूबर, 1949 को शेख अब्दुल्ला और उनके दो साथी अयंगार से मिले तथा उन पर प्रारूप बदलने को दवाब डाला। उसी दिन अयंगार ने सरदार पटेल कोइसकी जानकारी दी। 15 अक्तूबर को सरदार पटेल को लिखे अपने पत्र में अयंगार ने लिखा कि ”उनके (अब्दुल्ला और उनके दो साथियों) द्वारा की गई आपत्तियों में कोई ठोस मुद्दा नहीं था।” उन्होंने आगे जोड़ा ”अंत में मैंने उन्हें कहा कि मुझे उम्मीद नहीं थी कि आपके घर (पटेल) और पार्टी बैठक में हमारे प्रारूप के प्रावधानों पर सहमत होने के बाद, वे मुझे और पण्डितजी को इस तरह से शर्मिंदा करेंगे जिसका वे प्रयास कर रहे थे। उत्तर में, शेख अब्दुल्ला ने कहा कि ऐसा सोचने पर वह भी काफी दु:ख महसूस कर रहे हैं। लेकिन अपने लोगों के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वाह करते हुए मुझे इस रूप में प्रारूप स्वीकार करना असम्भव है…….. उसके पश्चात् मैंने उन्हें कहा कि आप वापस जाइए और इस सब पर विचार कीजिए जो मैंने आपको कहा है और आशा है कि वह सही दिमागी दशा में आज या कल मेरे पास वापस आएंगे। तत्पश्चात् मैंने मामले पर आगे विचार किया तथा एक प्रारूप लिखा जिसमें मुख्य दृष्टिकोण को बदले बिना जोकि हमने हमारे प्रारूप में उल्लिखित किया है, में मामूली सा बदलाव किया है जिसे मैं उम्मीद करता हूं कि शेख अब्दुल्ला राजी हो जाएंगे।”
16 अक्तूबर, 1949 को सरदार पटेल का अयंगार को जवाब संक्षिप्त और कठोर था। वह अयंगार से इस पर सहमत नहीं थे कि बदलाव मामूली हैं। पटेल लिखते हैं: ”मैंने पाया कि मूल प्रारूप में ठोस बदलाव किए गए हैं, विशेष रूप से राज्य नीति के मूलभूत अधिकारों और नीति निदेशक सिध्दान्तों की प्रयोजनीयता को लेकर। आप स्वयं इस विसंगति को महसूस कर सकते हैं कि राज्य भारत का हिस्सा बन रहा है और उसी समय इन प्रावधानों में से किसी को भी स्वीकार नहीं कर रहा।”
पटेल ने आगे लिखा: ”शेख साहब की उपस्थिति में हमारी पार्टी द्वारा समूचे प्रस्ताओं को स्वीकृत करने के पश्चात् इसमें किसी भी बदलाव को मैं पसंद नहीं करता। जब चाहे शेख साहब लोगों के प्रति अपने कर्तव्य की दलील पर सदैव हमसे टकराव करते रहते हैं। मान लिया कि उनकी भारत या भारतीय सरकार या आपके और प्रधानमंत्री के जिन्होंने उनकी बात मानने में कोई कोताही नहीं बरती, के प्रति भी निजी आधार पर कोई कर्तव्य नहीं बनता।
अपनी कसी हुई टिप्पणियों में उन्होंने कहा: ”इन परिस्थितियों में मेरी स्वीकृति का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। यदि आपको यह करना सही लगता है तो आप आगे बढ़ सकते हैं।”
इस बीच शेख अब्दुल्ला ने अयंगार का संशोधित प्रारूप भी रद्द कर दिया और 17 अक्तूबर को अयंगार को लिखे एक पत्र में संविधान सभा से त्यागपत्र देने की धमकी भी दे दी।
17 अक्तूबर, 1949 को संविधान सभा ने बगैर ज्यादा बहस के अयंगार के मूल प्रारूप को स्वीकर कर लिया। शेख अब्दुल्ला से आशा थी कि वह बोलेंगे, लेकिन वह खिन्न और मौन रहे।
नेहरूजी के विदेश से लौटने के बाद सरदार पटेल ने उन्हें उनकी अनुपस्थिति में हुए घटनाक्रम को निम्न शब्दों में लिखा (3 नवम्बर, 1949):
”प्रिय जवाहरलाल,
कश्मीर सम्बन्धी प्रावधान के बारे में कुछ कठिनाईयां थी। शेख साहब उस समझौते से मुकर गए जो कश्मीर सम्बन्धी प्रावधान के सम्बन्ध में वह आपके साथ सहमत हुए थे। वह मूलभूत चरित्र में कुछ निश्चित बदलावों पर जोर दे रहे थे जो नागरिकता और मौलिक अधिकारों सम्बन्धी प्रावधानों को कश्मीर में लागू नहीं होने देने और इन सब मामलों सहित अन्य में भी वे हैं जो राज्य सरकार द्वारा एकीकरण के तीन विषयों जोकि इस रूप में वर्णित हैं कि महाराजा 8 मार्च, 1948 की उद्धोषणा के तहत नियुक्त मंत्रिपरिषद की सलाह पर काम कर रहे हैं। काफी विचार विमर्श के बाद मैं पार्टी को इन सब बदलावों पर सहमत कर सका सिवाय अंतिम को छोड़कर, जोकि संशोधित किया गया जिससे न केवल पहला मंत्रिमण्डल कॅवर हो सके अपितु इस उद्धोषणा के तहत तत्पश्चात् भी मंत्रिमण्डल नियुक्त हो सकें।
शेख साहब अपने आपको इन बदलावों से नहीं जोड़ सके, लेकिन हम इस मामले में उनके विचारों को नहीं मान सके और प्रावधान सदन ने जैसाकि हमने बदले थे, को पारित कर दिया। इसके पश्चात् उन्होंने गोपालास्वामी अयंगार को पत्र लिखकर संविधान सभा की सदस्यता से त्यागपत्र देने की धमकी दी है। गोपालस्वामी ने उनको जवाब दिया है कि वह आपके आने तक अपना निर्णय स्थगित रखें।
आपका
वल्लभभाई पटेल
जैसाकि इस ब्लॉग के शुरू में ही मैंने लिखा कि जम्मू एवं कश्मीर के संदर्भ में भाजपा के रूख पर ‘धोखाधड़ी‘ जैसे अपमानजनक शब्दों का उपयोग करना किसी के लिए भी शोभनीय नहीं है। यह एक ऐसा मुद्दा है जिस पर 1951 में जनसंघ के जन्म से लेकर आज तक हम न केवल सुस्पष्ट, स्पष्टवादी और सतत् दृष्टिकोण बनाए हुए हैं, अपितु यही एक ऐसा मुद्दा है जिसे लेकर हमारे संस्थापक-अध्यक्ष ने अपना जीवन बलिदान कर दिया और जिसके लिए लाखों पार्टी कार्यकर्ताओं ने अपनी गिरफ्तारियां दी तथा अनेक तरह के कष्ट सहे। कानपुर में हमारे पहले अखिल भारतीय सम्मेलन के समय से लेकर हम जम्मू एवं कश्मीर के भारत में पूर्ण एकीकरण के लिए कटिबध्द हैं।

कश्मीर में धारा ३७० के लिए पटेल नही वरन नेहरू जिम्मेदार हैं :एल के आडवाणी

भाजपा के पी एम् इन वेटिंग और वरिष्ठ पत्रकार एल के अडवाणी ने अपने नए ब्लॉग के पश्च्य लेख (टेलपीस)में कश्मीर में धारा ३७० के लिए पहले प्रधान मंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू को जिम्मेदार ठहराते हुए लोह पुरुष +इंडियन बिस्मार्क पटेल का बचाव किया है| श्री आडवाणी ने स्वतंत्र भारत के इतिहास के प्रारम्भिक पन्नो को खोलते हुए कहा है कि पहले गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने तत्कालीन प्रधान मंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के दबाब में आ कर कश्मीर नीति में अपने स्वयम के निर्णय को त्याग कर सरेंडर कर दिया था|आडवाणी ने बताया कि सरदार पटेल की मृत्यु दिसम्बर, 1950 में हो गई थी।
24 जुलाई 1952 को पण्डित नेहरू ने जम्मू एवं कश्मीर से जुड़े मुद्दों पर लोकसभा में एक विस्तृत वक्तव्य दिया। इसमें उन्होंने मजबूती से अनुच्छेद 370 का बचाव किया। उन्होंने यह भी कहा कि सरदार पटेल ही जम्मू एवं कश्मीर के मामले को देख रहे थे। वी. शंकर जो 1952 में आयंगार के मंत्रालय में संयुक्त सचिव थे, अपने मंत्री के पास गए और जो हुआ था उस पर परस्पर जानकारी साझा की। गोपालस्वामी आयंगार की टिप्पणी थी: ”यह सरदार पटेल की उस उदारता का गलत और दुर्भावनापूर्ण प्रतिफल है, जो उन्होंने अपने उत्कृष्ट निर्णय को छोड़कर पण्डित नेहरू के दृष्टिकोण को स्वीकार करने में दिखाई।”