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“पटेल” के सफल हैदराबाद ऑपरेशन से नाराज “नेहरू” ने “के एम् मुंशी” पर खीझ उतारी:सीधे ल क अडवाणी ब्लॉग से

केंद्र सरकार ने ने बेशक उन्नाव के डोंड़िआखेड़ा में खोदाई बंद करने की घोषणा कर दी है लेकिन लाल कृष्ण अडवाणी की इतिहास की खोदाई जारी है अपने नए ब्लॉग में उन्होंने जवाहर लाल नेहरू के अलगाव वादी निजाम हैदराबाद के प्रेम को उजागर किया है |अपने ब्लॉग के टेल पीस [TAILPIECE]में के एम् मुंशी की किताब पिल्ग्रिमेज टू फ्रीडम [ Pilgrimage to Freedom] का उल्लेख किया है |
भारतीय जनता पार्टी के वयोवृद्ध नेता और वरिष्ठ पत्रकार एल के अडवाणी ने अपने इस ब्लॉग में सरदार वल्ल्भ भाई पटेल और मुंशी के बीच के संवादों के हवाले से जवाहर लाल नेहरू की तुष्टिकरण की नीति का उपहास उड़ाया है |
अडवाणी ने लिखा है कि पाकिस्तान में शामिल होने को आतुर हैदराबाद को भारत में विलय के लिए चलाये गए अभियान की सफलता के पश्चात गृह मंत्री सरदार पटेल ने के एम् मुंशी को तत्कालीन प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू से शिष्टाचार वश [ Courtesy ]मुलाकात करने के लिए भेजा |के एम् मुंशी पार्लियामेंट हाउस में पी एम् कार्यालय पहुंचे |नेहरू अंटे रूम [ante-room] में आये और बेहद ठंडेपन [भाव रहित]से पहले बोले हेल्लो मुंशी “I have come to call on you, now that I am back in Delhi,” इसके साथ ही उन्होंने हाथ मिलाया और लौट गए |इसके पश्चात मुंशी ने सरेडर पटेल को इस भाव रहित ठन्डे व्यवहार के विषय में बताया तो सरेडर ने हँसते जवाब दिया इत्तेहादी शक्तियों को परास्त करने से कुछ लोग तुमसे नाराज हैं “Some of them are angry that you helped in liquidating the Ittehad Power” इसके लिए मुझ पर गुस्सा करने में असमर्थ लोग तुम पर खीझ उतार रहे हैं |
हैदराबाद में भारतीय सेना के सफल ऑपरेशन के बाद के एम् मुंशी ने एजेंट जनरल Agent General.के कार्यालय से त्याग दे दिया

दुःख के बादल पिघलाने वाली वोह सुबह आयेगी और उसे भाजपा ही लाएगी :एल के अडवाणी

भारतीय जनता पार्टी के वयोवृद्ध नेता और वरिष्ठ पत्रकार लाल कृष्ण अडवाणी ने अपने नवीनतम ब्लॉग के टेल पीस[ TAILPIECE ] में संकेत दिया है कि यदि देश में परिवर्तन लाना है तो भाजपा से अच्छा कोई दूसरा विकल्प नहीं हो सकता |
ब्लॉगर अडवाणी ने आर्गेनाइसर[दीपाली] में छपी खबर को याद करते हुए बताया कि १९५८ में दिल्ली कारपोरेशन के चुनाव में मिली हार के गम को भुलाने के लिए उन्होंने अटल बिहारी वाजपई के साथ दोस्तोएव्स्की की क्राइम एंड पनिशमेंट [ Dostoevsky’s Crime and Punishment. ]स्टोरी पर आधारित राज कपूर स्टारर फ़िल्म “वोह सुबह कभी तो आयेगी” देखी|फ़िल्म देखने के बाद साहिर लुधियानवी के मुकेश द्वारा गए गए आशावादी गीत गाते हुए बाहर आये | गीत के बोल थे
“वोह सुबह कभी तो आयेगी,
जब दुःख के बादल पिघलेंगे
जब सुख का सागर छलकेगा
जब अम्बर झूमके नाचेगा
जब धरती नगमे गायेगी
वोह सुबह कभी तो आयेगी”
और ३० सालों के बाद १९९८ में वोह सुबह आई अटल बिहारी वाजपई प्रधान मंत्री बने |तब मैंने [अडवाणी]कहा था कि वोह सुबह आ गई है और उसे हम[बीजेपी]ही लाये हैं

ब्लॉगर लाल कृषण अडवाणी ने सोम नाथ मंदिर के उद्घाटन को लेकर कांग्रेस के छद्म धर्म निरपेक्षता को उजागर किया

भाजपा के वयोवृद्ध नेता और पत्रकार लाल कृषण अडवाणी ने अपने ब्लॉग में सोम नाथ मंदिर के उद्घाटन को लेकर कांग्रेस के छद्म धर्म निरपेक्षता को उजागर किया|
अपने नवीनतम ब्लॉग के टेलपीस [पश्च्य लेख] में अडवाणी ने लिखा है कि सोमनाथ मंदिर जब बन कर तैयार हुआ तब तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ राजेंदर प्रसाद को मंदिर का उद्घाटन करने के लिए ज्योतिर्लिन्ग्हम [Jyotirlingam. ] स्थापित करने का आमत्रण दिया गया |इस कार्य के लिए तत्कालीन प्रधान मंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु आपत्ति उठा चुके थे लेकिन प्रधान मंत्री की आपत्ति को दरकिनार करते हुए राजेंद्र बाबू ने यह कहते आमंत्रण स्वीकार किया कि मस्जिद या चर्च में अगर ऐसा आयोजन होता तो भी में सहर्ष स्वीकार करता| अडवाणी ने कहा किहमारा राष्ट्र धर्म विरुद्ध या अधार्मिक नहीं है बल्कि डॉ राजेन्द्र प्रसाद के भाव देश के सच्चे सेकुलरिज्म को दर्शाते हैं | राष्ट्रपति ने अपने प्रधान मंत्री के विरोध के बावजूद धार्मिक अनुष्ठान में मुख्य अथिति की भूमिका निभा कर यह प्रमाणित भी किया .

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एल के अडवाणी अपनी पहली अयोध्या यात्रा से देश में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद भी लाना चाहते थे :सीधे एल के अडवाणी के ब्लाग से

भारतीय जनता पार्टी [भाजपा]के वयोवृद्ध नेता और पत्रकार लाल कृषण आडवाणी अपनी पहली अयोध्या यात्रा से देश में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद लाना चाहते थे| यह स्पष्टि करण उन्होंने अपने ब्लॉग के टेलपीस (पश्च्यलेख) में किया है |
अडवाणी ने अपनी पहली अयोध्या यात्रा के उद्देश्यों को स्पष्ट करते हुए बताया कि इस यात्रा के माध्यम से सांस्कृतिक राष्ट्रवादको मजबूत करना भी एक लक्ष्य था | उन्होंने कहा “ऊपरी तौर पर, मेरी पहली यात्रा, सोमनाथ से अयोध्या तक को माना जाता है कि यह विश्व हिन्दू परिषद द्वारा अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के उद्देश्य को मजबूत करने के उद्देश्य से की गई। परन्तु भाजपा के लिए, इस अभियान के दो स्पष्ट राजनीतिक उद्देश्य भी थे।
(1) असली सेक्युलरिज्म और छद्म सेक्युलरिज्म के बीच बहस चलाना, और
(2) सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के मुद्दे को मजबूत करना।”
आज के ब्लॉग में मैंने पूर्व ब्लॉग में लिखे गए असली सेक्युलरिज्म सम्बन्धी मार्क टुली के विचारों को हवाला दिया। संस्कृति और धर्म के बारे में उन्होंने ”नो फुल स्टॉप्स इन इण्डिया” पुस्तक में जो लिखा है, मैं उसे यहाँ उदृत किया जा रहा है
मार्क टुली लिखते हैं:
“किन्हीं लोगों की संस्कृति और पहचान को नष्ट करने का सर्वाधिक अच्छा तरीका है उनके धर्म और उसकी भाषा को उपेक्षित करना। हम, ब्रिटिशों ने भारत के शासक के रूप में और अब विश्व की प्रभुत्व वाली संस्कृति के रूप में कर रहे हैं। यह सत्य है कि भारत के ब्रिटिश शासक हिन्दुओं के बारे में, विशेष रूप से विद्रोह के बाद ज्यादा सचेत थे। हमने भारत को ईसाइयत में बदलने का प्रयास नहीं किया। लेकिन हमने यह आभास पैदा कर दिया कि हमारा धर्म हिन्दूइज्म से श्रेष्ठ है। कलकत्ता में एक बच्चे के रूप में मुझे स्मरण है कि हमें सिखाया जाता था कि मुस्लिम हिन्दुओं की तुलना में श्रेष्ठ हैं क्योंकि कम से कम वे मूर्तिपूजा नहीं करते।
स्वतंत्रता के समय, भारत ने आधुनिक पश्चिमी विचार को अपनाया कि सामान्य ज्ञान बताता है कि धर्म को सम्पूर्ण रूप से निजी दायरे तक सीमित रखना चाहिए और इसे सभी सार्वजनिक जीवन से दूर रखना होगा। तथ्य यह है कि पश्चिम में बहुसंख्या में लोग धर्म को अपने तक सीमित रखते हैं। ‘आधुनिक‘ भारतीय अपरिहार्य रूप से हमारा उदाहरण अपनाते हैं और जो कोई भी सार्वजनिक जीवन से सभी रूपों में धर्म को अलग रखने में विश्वास नहीं करते, को ‘साम्प्रदायिक‘ माना जाता है, पूर्ण रूप से उनके अपने समुदाय से। अभिजात वर्ग का तथाकथित सेक्युलरिज्म, अपरिहार्य रूप से धर्म के प्रति अनादर के रूप में होता है। लेकिन बहुसंख्यक भारतीयों जो आधुनिकता के लाभों का आनन्द नहीं लेते, अभी भी मानते हैं कि धर्म – उनके जीवन के महत्वपूर्ण तत्वों में से सर्वाधिक जरूरी है।”

अनिवार्य मतदान को अनिवार्य बनाने के लिए नरेंदर मोदी के विचार स्वागत योग्य हैं ;सीधे एल के अडवाणी के ब्लाग से

भाजपा के वयोवृद्ध नेता और पत्रकार लाल कृषण आडवाणी ने नरेंदर मोदी के सुरों के साथ सुर मिलते हुए अनिवार्य मतदान को अनिवार्य बनाए जाने पर बल दिया है | एल के आडवाणी ने इस दिशा में पहल के लिए नरेंदर मोदी की तारीफ भी की है।
श्री आडवाणी ने अपने नए ब्लाग में लोगों को नकारात्मक मतदान का अधिकार देने वाले सुप्रीम कोर्ट के सुझाव का स्वागत किया इसके साथ ही उन्होंने कहा कि मतदान के प्रावधान को अनिवार्य बनाया जाना चाहिए।


ब्लॉगर आडवाणी ने कहा कि वर्तमान में मतदाता संविधान प्रदत्त अपना मत देने के बहुमूल्य अधिकार का बिना किसी वैध कारण के उपयोग नहीं करता है वोह अनचाहे ही सभी उम्मीदवारों के खिलाफ नकारात्मक वोट दे देता है
।आडवाणी ने नरेन्द्र मोदी के गुजरात में किये गए सुधारों की प्रशंसा करते हुए कहा कि गुजरात विधानसभा ने दो बार अनिवार्य मतदान के पक्ष में वोट दिया, लेकिन राज्यपाल और नई दिल्ली दोनों ने ही विधेयक को मंजूरी नही दी | उन्होंने बताया कि दुनिया के 31 देशों में अनिवार्य मतदान का प्रावधान है और मात्र एक दर्जन देशों ने ही प्रतिरोधक प्रावधाव के साथ इसे लागू किया है। आर एस एस के बाद जनसंघ और अब भारतीय जनता पार्टी से जुड़े लाल कृष्ण आडवानी ने अपनी यादों को समेटते हुए बताया है कि १९५७ में जब दीनदयाल उपाध्याय ने उन्हें अटल बिहारी को सहयोग करने के लिए राजस्थान से दिल्ली बुलाया था उस समय उन्होंने चुनावी सुधारों का अध्ययन करने और उन पर पर कार्य करने का सुझाव दिया था तभी से लगातार इस दिशा में कार्य किया जा रहा है ,

दिल से पत्रकारिता और राजनीती करने वाले बेहद दुर्लभ हैं :एल के अडवाणी के ब्लॉग से

एन डी ऐ के पी एम् इन वेटिंग और वरिष्ठ पत्रकार[अब ब्लॉगर] लाल कृष्ण आडवाणी ने अपने नवीनतम ब्लॉग के पश्च्य लेख[ Tailpiece ] में कहा है कि दिमाग के दिशा निर्देशों पर केवल निजी स्वार्थ पूर्ती के बजाय दिल की पुकार पर पत्रकारिता और राजनीती करने वाले बेहद दुर्लभ हैं | पी पी बालाचंद्रन की पुस्तक ऐ व्यू फ्रॉम रायसीना हिल्स [“A view from the Raisina Hill.”]के अध्याय आर्ट +कल्चर+और मीडिया [“Art, Culture and Media”]. में उल्लेखित कार्टूनिस्ट रंगानाथ [अब स्वर्गीय] की जीवन के उतार चडाव के हवाले से कहा है कि रंग ने पत्रकारिता में अगर नाम कमाया और आज हम रंगा को याद करते हैं उसकी कमी को महसूस करते हैं तो केवल इसीलिए कि रंगा ने जीवन पर्यंत पोलिटिकल कार्टूनों में हमेशा अपने दिल के भावों से पाठकों का दिल जीता|.वर्तमान में क्रिकेटर द्वारा मैच फिक्सिंग या स्पॉट फिक्सिंग के द्वारा दौलत कमाए जाने के समाचार फ्रंट पेज पर छाते हैं|
किताब में बाते गया है कि महात्मा गाँधी + नेल्सन मंडेला+यास्सेर अराफात+ मोहम्मद अली+मदर टेरेसा+ मारग्रेट थेचर +बिल क्लिंटन +रंगा की अमूल्य २००० कृतियाँ यदि बेच दी जाती तो रंगा भी करोड़ों डॉलर्स का मालिक हो सकता था|दुर्भाग्य से वर्तमान में पत्रकारिता+राजनीती के अलावा दुसरे छेत्रों में भी रंगा जैसे समर्पित लोग बेहद दुर्लभ हैं| रंगा वाकई प्रशंसा के पात्र हैं

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कश्मीर समस्या को सुलझाने के लिए नेहरू ने ही ,सेना का उपयोग करने के बजाय, यूं.एन का रुख किया था

भाजपा के पी एम् इन वेटिंग और वरिष्ठ पत्रकार लाल कृष्ण आडवाणी ने स्वतंत्र भारत के इतिहास में जम्मू &काश्मीर के पन्नो को पलटते हुए एक बार फिर कश्मीर समस्या के लिए कांग्रेस को कटघरे में खडा करने का प्रयास किया है|
अपने नए ब्लॉग के पश्च्यलेख [ TAILPIECE] में ब्लॉगर अडवाणी ने आई ऐ एस अधिकारी [१९४७]एम् के के नायर की पुस्तक विद नो इल फीलिंग टू एनीबडी [ With No Ill Feeling to Anybody”] और पायनियर [ Pioneer ] के हवाले से कहा है कि तत्कालीन केबिनेट मीटिंग के दौरान लोह पुरुष भारतीय बिस्मार्क सरदार वल्लभ भाई पटेल , प्रथम पी एम् की आपत्तिजनक टिपण्णी पर ,मीटिंग छोड़ कर चले गए थे| उन्होंने आगे कहा है कि पुस्तक में लिखा गया है कि कांग्रेस के पहले प्रधान मंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने कश्मीर में पटेल के सैनिक अभियान के सुझाव का हमेशा विरोध किया और संयुक्त राष्ट्र की और रुख किया|

डा. श्यामा प्रसाद के बलिदान को सच्ची श्रधांजलि देने के लिए जम्मू कश्मीर में धारा 370 की समाप्ति जरुरी है :सीधे एल के अडवाणी के ब्लाग से

भाजपाके पी एम् इन वेटिंग और वरिष्ठ पत्रकार एल के अडवाणी ने अपने ब्लॉग में अपने नेता स्वर्गीय डॉ श्यामा प्रसाद मुखेर्जी को श्रधांजली देते हुए जम्मू कश्मीर में धारा ३७० को समाप्त किये जाने पर बल दिया है प्रस्तुत है सीधे एल के अडवाणी के ब्लाग से :
ठीक साठ वर्ष पूर्व 23 जून १९५३ में इसी दिन देश को जम्मू एवं कश्मीर राज्य से ह्दय विदारक समाचार मिला कि डा. श्यामा प्रसाद मुकर्जी अब हमारे बीच नहीं रहे।मुझे अच्छी तरह से स्मरण है कि रात्रि के लगभग 2 बजे या उसके आसपास मैं जयपुर के जनसंघ कार्यालय के बाहर किसी के खटखटाने और रोने की आवाज सुनकर नींद से जागा; और मैंने सुना कि ”आडवाणीजी, उन्होंने हमारे डा. मुकर्जी को मार दिया है!” वह एक स्थानीय पत्रकार था, जिसको टिकर पर यह समाचार मिला और वह अपने को रोक नहीं पाया तथा हमारे कार्यालय आकर इस दु:ख में मेरे साथ शामिल हुआ।
यह समाचार लाखों लोगों के लिए एक गहरा धक्का था। इस वर्ष की शुरुआत में डा. श्यामा प्रसाद की नवगठित पार्टी भारतीय जनसंघ का कानपुर में अखिल भारतीय सम्मेलन सम्पन्न हुआ था। इस सम्मलेन में राजस्थान से एक प्रतिनिधि के रुप में भाग लेने का सौभाग्य मुझे मिला था। यहीं पर फूलबाग में इकठ्ठे हुए हजारों प्रतिनिधियों को डा. मुकर्जी ने यह राष्ट्रभक्तिपूर्ण प्रेरक आह्वान किया था-”एक देश में दो प्रधान, दो निशान, दो विधान, नहीं चलेंगे, नहीं चलेंगे।”
कानपुर में ही पार्टी ने जम्मू एवं कश्मीर के भारत में पूर्ण एकीकरण को लेकर पहला राष्ट्रव्यापी आंदोलन चलाने का संकल्प लिया। डा. मुकर्जी ने तय किया कि वह इस आंदोलन का नेतृत्व आगे रहकर करेंगे-व्यक्तिगत रुप से शेख अब्दुल्ला के द्वारा लागू किए गए परमिट सिस्टम की अवज्ञा कर। उन्होंने यह भी निर्णय किया कि वह इस आन्दोलन के लिए समर्थन जुटाने हेतु देश के विभिन्न हिस्सों में जाएंगे। अपने इस पूर्व-अभियान जोकि रेलगाड़ी के माध्यम से हुआ, में उन्होंने श्री वाजपेयी को अपने साथ रहने को कहा।
उन दिनों मैं राजस्थान के कोटा में था। जब मुझे ज्ञात हुआ कि डा. मुकर्जी और अटलजी कोटा जंक्शन से गुजरेंगे तो मैं उनसे स्टेशन पर मिला। तब मुझे इसका तनिक भी आभास नहीं था कि मैं हमारी पार्टी के महान संस्थापक डा. श्यामा प्रसाद को अंतिम बार देख रहा हूं।
8 मई, 1953 को डा. मुकर्जी दिल्ली से जम्मू जाने के लिए पंजाब रवाना हुए। अमृतसर पर 20,000 से ज्यादा के समूह ने उनका शानदार स्वागत किया। अमृतसर से पठानकोट और वहां से माधोपुर की उनकी यात्रा एक विजयी जुलूस की तरह थी। माधोपुर एक छोटा सा कस्बा है जो पठानकोट सैनिक कैण्ट से करीब बारह किलोमीटर की दूरी पर है। माधोपुर रावी नदी के किनारे पर स्थित है और यही रावी नदी पंजाब को जम्मू एवं कश्मीर से अलग करती है। डा. मुकर्जी, अटलजी के साथ एक जीप पर बैठकर जम्मू-कश्मीर में प्रवेश करने हेतु रावी के पुल की ओर बढे। पुल के बीच में जम्मू एवं कश्मीर पुलिस के एक जत्थे ने जीप को रोका और डा. मुकर्जी से पूछा कि क्या उनके पास परमिट है। डा. मुकर्जी ने नहीं में उत्तर दिया और कहा भारतीय संविधान के तहत प्रत्येक भारतीय नागरिक को देश की किसी भी भाग में जाने की आजादी है। जब पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया तो उन्होंने वाजपेयीजी से कहा ”कृपया आप वापस जाओ और लोगों को बताओ कि मैंने बगैर परमिट के जम्मू एवं कश्मीर राज्य में प्रवेश किया है, भले ही एक कैदी के रुप में।”
यह उल्लेखनीय है कि पठानकोट में पंजाब के वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों ने डा. श्यामा प्रसाद को मिलकर बताया कि उन्हें पंजाब सरकार से निर्देश हैं कि यदि डा. मुकर्जी के पास परमिट नहीं भी हो तो भी उन्हें पुल पर स्थित माधोपुर पोस्ट जाने दिया जाए।
साफ है कि यह केन्द्र सरकार और जम्मू एवं कश्मीर राज्य सरकार का संयुक्त ऑपरेशन था कि डा. मुकर्जी को जम्मू एवं कश्मीर राज्य में बंदी बनाकर रखा जाए न कि पंजाब में।इस सुनियोजित अभियान का परिणाम देश के लिए सदमा पहुंचाने वाली विपदा के रुप में सामने आया। 23 जून, 1953 को राष्ट्र को यह समाचार पाकर सदमा पहुंचा कि डा. मुकर्जी जिन्हें बंदी बनाकर श्रीनगर के एक घर में रखा गया था, अचानक बीमार हुए, और थोड़ी बीमारी के बाद चल बसे!
पश्चिम बंगाल के तत्कालीन कांग्रेसी मुख्यमंत्री डा. विधान चन्द्र राय, डा. मुकर्जी की पूजनीय माताजी श्रीमती जोगोमाया देवी और देश के सभी भागों से अनेकानेक प्रबुध्द नागरिकों ने प्रधानमंत्री कार्यालय को टेलीग्राम और पत्र इत्यादि भेजकर न केवल अपना दु:ख और आक्रोश प्रकट किया अपितु तुरंत जांच कराने की भी मांग की कि यह त्रासदी कैसे घटी। इस राष्ट्रीय आक्रोश का कोई नतीजा नहीं निकला। इस असाधारण व्यक्ति की मृत्यु आज भी रहस्य बनी हुई है। ऐसी किसी अन्य घटना के संदर्भ में, एक औपचारिक जांच सर्वदा गठित की जाती रही हैं। लेकिन इस मामले में नहीं। कोई नहीं कह सकता कि क्या यह मात्र अपराधिक असंवेदनशीलता का मामला है या वास्तव में अपराध बोध का भाव!
****हालांकि, रहस्यमय परिस्थितियों में डा. मुकर्जी की मृत्यु को लेकर उमड़े व्यापक जनाक्रोश के चलते अगले कुछ महीनों में घटनाक्रम तेजी से बदला जिससे राष्ट्रीय एकीकरण की प्रक्रिया महत्वपूर्ण रुप से आगे बढ़ी।
सर्वप्रथम और सर्वाधिक महत्वपूर्ण रहा परमिट सिस्टम की समाप्ति।
उस समय तक न तो सर्वोच्च न्यायालय, न ही निर्वाचन आयोग और न ही नियंत्रक एवं महालेखाकार के क्षेत्राधिकार में जम्मू एवं कश्मीर राज्य नहीं था। इन तीनों संवैधानिक संस्थाओं का क्षेत्राधिकार जम्मू एवं कश्माीर पर भी लागू किया गया। उस समय तक राज्य के मुख्यमंत्री को वजीरे-आजम और राज्य के प्रमुख को सदरे-रियासत कहा जाता था। सैध्दान्तिक रुप से, न तो भारत के राष्ट्रपति और न ही प्रधानमंत्री का इस राज्य पर कोई अधिकार था।
डा. मुकर्जी के बलिदान ने इस स्थिति में भी बदलाव लाया। राज्य में प्रधानमंत्री मुख्यमंत्री बन गये, सदरे-रियासत राज्यपाल बन गये और राष्ट्रपति एवं प्रधानमंत्री के औपचारिक अधिकार जम्मू एवं कश्मीर राज्य पर भी लागू हुए।
एक प्रकार से, इस प्रेरक नारे की तीन मांगों में से एक, दो प्रधान एक हो गए, और यद्यपि दो निशान अभी भी हैं मगर राष्ट्रीय तिरंगा राज्य में ऊपर लहराता है।इसके अलावा, दो प्रधानमंत्री एक बने, दो सर्वोच्च न्यायालय एक हुए, दो निर्वाचन प्राधिकरण एक हुए – यह सब डा. श्यामा प्रसाद के बलिदान के कारण हुआ।
देश व्यग्रता से उस दिन की प्रतीक्षा कर रहा है जब धारा 370 समाप्त होगी और दो विधान भी एक हो जाएंगे!

साम्राज्य समाप्त होने के बाद भी पाप की परछाई पीछा नहीं छोडती :सीधे एल के आडवाणी के ब्लॉग से

साम्राज्य के पाप

भाजपा के पी एम् इन वेटिंग और वरिष्ठ पत्रकार लाल कृषण आडवाणी ने अपने नवीनतम ब्लॉग में ब्रिटिश साम्राज्य के पाप गिनाते हुए यह कहने का प्रयास किया है कि साम्राज्य समाप्त होने के दशकों बाद भी पाप की परछाई पीछा नहीं छोडती इसीकारण आज कल ब्रिटिश सरकार केन्याई पीड़ितों को मुआवजा दे कर अपने पाप धोने में लगी है जबकि इससे कहीं जयादा पाप तो भारत में किये गए थे| प्रस्तुत है सीधे एल के आडवाणी के ब्लॉग से:
डेविड एम. एण्डरसन, यूनिवर्सिटी ऑफ वारबिक में अफ्रिकी इतिहास के प्रोफेसर हैं। इन्टरनेशनल हेराल्ड ट्रिब्यून के 14 जून, 2013 के संस्करण में इन प्रोफेसर महोदय का एक महत्वपूर्ण लेख ”एटोनिंग फॉर दि सिन्स ऑफ एम्पायर” शीर्षक से प्रकाशित हुआ है।
लेख का सार यह है कि ”गत् सप्ताह ब्रिटिश सरकार ने एक ऐतिहासिक फैसले में 1950 के दशक में मऊ मऊ विद्रोह के दौरान जिन 5228 केनयाइयों को बंदी बनाने के समय प्रताड़ित किया गया उन्हें मुआवजा देने का निर्णय किया है। प्रत्येक दावेदार को लगभग 2670 पौण्ड (करीब 4000 डॉलर) मिलेंगे।”
डेविडसन की टिप्पणी है: ”पैसा नगण्य है। लेकिन इससे जो सिध्दान्त स्थापित हुआ है, और जो इतिहास फिर से लिखा गया है, वह अथाह है।”
भारत भी ब्रिटिश साम्राज्य के प्रमुख उपनिवेशों में से एक रहा है। और यहां पर अनगिनत गुनाह किए गए। तबकी सरकार द्वारा किया सर्वाधिक बर्बर अपराध था जलियांवाला बाग का कत्लेआम। यह कत्लेआम 13 अप्रैल (रविवार), 1919 को अमृतसर में बैशाखी के दिन किया गया। गोली चलाने का आदेश ब्रिगेडियर-जनरल इ.एच. डायर ने दिया। डायर का मानना था कि कोई बड़ी बगावत होने वाली है।
यह जानकारी मिलने पर कि 15 से 20 हजार की संख्या में लोग जलियांवाला बाग मैदान में इक्ट्ठे हो गए हैं तो डायर 50 गोरखा बंदूकधारियों को वहां एकत्रित हुए पुरुषों, महिलाओं और बच्चों पर फायरिंग करने को कहा गया। फायरिंग तब तक जारी रही जब तक उनके पास का गोलियों का स्टॉक समाप्त नहीं हो गया। डायर ने स्वयं बताया कि 1650 राऊण्ड गोलियां चलाई गई: ब्रिटिश अधिकारिक सूत्रों के मुताबिक 379 लोग मारे गए, जबकि लगभग 1000 लोग घायल हुए। भारतीय राष्ट्रीय क्रांग्रेस के अनुमान के मुताबिक शिकार हुए लोगों की संख्या 1500 से ज्यादा थी, जिसमें से लगभग 1000 लोग मारे गए।
जनरल डायर द्वारा अपने उच्च अधिकारियों को यह सूचना देने कि उन्हें ‘एक क्रांतिकारी सेना से मुकाबला करना पड़ रहा है,’ के बाद पंजाब के ब्रिटिश लेफ्टिनेंट-गवर्नर, माइकेल ओ‘डायर (Michael O’Dwyer) ने ब्रिगेडियर डायर को भेजे टेलीग्राम में लिखा। ”आपकी कार्रवाई ठीक है और लेफ्टिनेंट गर्वनर इसे स्वीकृति देते हैं।” ओ‘डायर ने अनुरोध किया कि अमृतसर और अन्य क्षेत्रों में मार्शल लॉ लागू कर दिया जाए, और इसे वायसराय लार्ड चेम्सफोर्ड ने लागू कर दिया।
*13 मार्च, 1940 को लंदन के केस्टन हॉल में, भारत के सुनाम के रहने वाले एक क्रांतिकारी ऊधम सिंह, जो अमृतसर की घटनाओं का प्रत्यक्षदर्शी या और स्वयं वहां घायल हो गया था, ने पंजाब के ब्रिटिश लेफ्टिनेंट-गवर्नर माइकेल ओ‘डायर की गोली मार कर हत्या कर दी। अमृतसर कत्लेआम के समय ओ‘डायर वहां का गर्वनर था ही, जिसने न केवल डायर की कार्रवाई को स्वीकृति दी अपितु माना जाता है कि वह इसका मुख्य सूत्रधार भी था। ब्रिगेडियर-जनरल डायर स्वयं 1927 में मर गया था।
ऊधम सिंह की कार्रवाई की भारत में अमृत बाजार पत्रिका जैसे राष्ट्रवादी समाचारपत्रों ने सराहना की। आम लोगों और क्रांतिकारियों ने इसे गौरवान्वित कदम कहा। दुनिया भर में अधिकांश समाचारपत्रों ने इस अवसर पर जलियांवाला बाग के कत्लेआम को स्मरण करते हुए माइकेल ओ‘डायर को इस कत्लेआम का जिम्मेदार ठहराया। ऊधम सिंह को ‘स्वतंत्रता के लिए लड़ने वाला‘ और उसके कदम को लंदन के दि टाइम्स तक ने इसे ”भारतीय लोगों के दबे हुए आक्रोश की एक अभिव्यक्ति” के रुप में वर्णित किया।
ऊधम सिंह को गवर्नर ओ‘डायर की हत्या के आरोप में 31 जुलाई, 1940 को फांसी दे दी गई। उस समय जवाहरलाल नेहरु और महात्मा गांधी सहित अनेकों ने ऊधम सिंह के कदम को नादान परन्तु साहसी करार दिया। हालांकि 1952 में नेहरु (तब के प्रधानमंत्री) ने ऊधम सिंह को निम्न शब्दों से सम्मानित किया (डेली प्रताप के अनुसार):
”मैं शहीदे-आजम ऊधम सिंह को सम्मानपूर्वक सलाम करता हूं जिसने फांसी के फंदे को गले लगाया ताकि हम स्वतंत्र रह सकें।”
*ब्रिटेन के वर्तमान प्रधानमंत्री डेविड कैमरुन फरवरी, 2013 में तीन दिवसीय भारत की यात्रा पर आए थे और इस अवधि में वह अमृतसर भी गए। यहां वह न केवल स्वर्ण मंदिर गए अपितु जलियांवाला बाग के कत्लेआम की जगह पर जानेवाले पहले ब्रिटिश प्रधानमंत्री बने।
उस मैदान पर जहां अब शहीद स्मारक है, पर डेविड कैमरुन ने पुष्प अर्पित किए और 1920 में तत्कालीन वॉर सेक्रेटरी, विंस्टन चर्चिल द्वारा कहे गए शब्दों का स्मरण किया जिसमें कत्लेआम को ‘सरासर गलत‘ कहा गया था। प्रधानमंत्री ने स्वयं टिप्पणी की कि यह कत्लेआम ”ब्रिटिश इतिहास में एक अत्यधिक शर्मनाक घटना है।”

एल के अडवाणी को क्या राजनीतिक सन्यास देने की तैय्यारी कर ली गई थी

गोवा में नरेन्द्र मोदी को चुनावी समिति का अध्यक्ष बनाये जाने के साथ ही भाजपा के पी एम् इन वेटिंग वरिष्ठ पत्रकार लाल कृषण अडवाणी को राजनीतिक सन्यास देने की तैय्यारी कर ली गई थी और इसकी भनक अडवाणी को लग गई तभी उन्होंने स्वयम ही इस्तीफा दे कर आर एस एस का सारा गेम ही उलटा कर दिया| | अपने ब्लॉग के टेलपीस (पश्च्यलेख) में उन्होंने इसका इशारा भी किया है|

प्रस्तुत है ब्लाग का सीधे टेलपीस (पश्च्यलेख):

फिल्म कलाकार कमल हासन ने जिस पुस्तक [ ग्रे वॉल्फ: दि एस्केप ऑफ एडोल्फ हिटलर ]का वायदा किया था, वह उन्होंने मुझे भेजी। 350 पृष्ठों वाली यह पुस्तक काफी शोधपरक है। दोनों लेखकों[ साइमन डूंस्टान+शोधपरक पत्रकार गेर्राड विलियम्स ]ने मिलकर सत्रह बार अर्जेन्टीना का दौरा किया, जहां माना जाता है कि 1962 तक वह वहां रहा। इस पुस्तक का पिछला आवरण इस रुप में सार प्रस्तुत करता है:
शोधपरक पत्रकार गेर्राड विलियम्स तथा सैन्य इतिहासकार साइमन डूंस्टान ने वर्षों के अपने शोध पर यह निष्कर्ष निकाला कि बर्लिन से एडॉल्फ हिटलर का पलायन-ऑपरेशन फ्यूरलैण्ड-को नाजियों ने 1943 से ही अत्यन्त गोपनीयता से तैयार किया था। इस सम्बन्ध में काफी प्रत्यक्षदर्शियों और साक्ष्यों के अनुसार यह आपरेशन सफल रहा और हिटलर दक्षिण अमेरिका को पलायन कर गया जहां वह 1962 में अपनी वास्तविक मृत्यु तक रहा।