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स्वार्थी और शैतान धन के लिए कफ़न में जेब नही होती ONE’S LAST SHIRT HAS NO POCKET

एन डी ऐ पी एम् इन वेटिंग और वरिष्ठ पत्रकार एल के अडवाणी ने अपने ब्लाग में धन लोलुप्त्ता पर चर्चा करते हुए अधिक धन को सर्वाधिक स्वार्थी और खराब किस्म का शैतान बताया है वर्तमान क्रिकेट में व्याप्त भ्रष्टाचार की जड़ में पैसा ही मूल कारण बताते हुए अनेकों रोचक उदहारण भी दिए हैं प्रस्तुत है सीधे एल के अडवाणी के ब्लाग से :
मैं नियमित रुप से स्कूल जाने वाला विद्यार्थी रहा हूं जिसने शायद ही कभी-कभार छुट्टी ली होगी। लेकिन मुझे याद है कि रणजी ट्राफी क्रिकेट मैच देखने के लिए एक बार मैंने स्कूल से छुट्टी मारी और जहां तक मैं स्मरण कर पा रहा हूं कि उसमें या तो विजय हजारे अथवा वीनू मांकड़ खेल रहे थे।
तब से मैं क्रिकेट का शौकीन हूं। उन दिनों टेलीविजन नहीं था; अत: क्रिकेट प्रेमी कहीं भी खेले जा रहे महत्वपूर्ण मैचों का आनन्द आल इण्डिया रेडियो पर कमेंटरी सुनकर उठाया करते थे। मुझे स्मरण आता है कि कुछ वर्ष पूर्व बीबीसी ने मेरा एक इंटरव्यू किया था जिसमें मेरे गैर-राजनीतिक रूचियां जैसे फिल्में, पुस्तकें और क्रिकेट के बारे में पूछा गया था, इस दौरान मैंने उस युग के उत्कृष्ट कमेंटेटर एएफएस तल्यारखान की कमेंटरी की नकल करने का प्रयास किया था। इसलिए इन दिनों क्रिकेटरों को मुखपृष्ठ की सुर्खियां बनती देख मुझे गुस्सा आता है क्योंकि यह सुर्खियां उनके द्वारा कोई रिकार्ड तोड़ने, या बल्लेबाजी अथवा गेंदबाजी में कीर्तिमान बनाने के चलते नहीं अपितु मैच फिक्सिंग, या स्पॉट-फिक्सिंग से दौलत बटोरने तथा इसी प्रक्रिया में सट्टेबाजों और जुआरियों के और अमीर बनने के कारण बन रही हैं!
लाओ त्जु ईसा पूर्व छठी शताब्दी के एक महान चीनी दार्शनिक थे। उनकी सभी सीखें इस पर जोर देती हैं कि ठाठदार इच्छाओं से बढ़कर कोई बड़ी विपत्ति नहीं है। ‘वे ऑफ लाओ त्जू‘ शीर्षक वाली पुस्तक में उनको उदृत किया गया है: ”लालच से बढ़ी कोई विपदा नहीं है।”
हालैण्ड के एक दार्शनिक वेडेंडिक्ट स्पिनोझा ने धनलोलुपता और लिप्सा को न केवल पाप अपितु उसे ‘पागलपन‘ ठहराया है! मैं चाहता हूं कि प्रत्येक मनुष्य को यह अहसास रहना चाहिए कि अंतिम समय में कोई कुछ अपने साथ नहीं ले जाता।
इण्डियन एक्सप्रेस में शेखर गुप्ता के ‘वॉक दि टॉक‘ साक्षात्कार सदैव पाठकों को काफी समृध्द सामग्री उपलब्ध कराते हैं। इस महीने की शुरुआत में उन्होंने कभी भारत की क्रिकेट टीम के विकेट कीपर रहे फारुख इंजीनियर से एक सजीव साक्षात्कार किया है।
इस पूर्व विकेट कीपर से किया गया साक्षात्कार पूर्ण पृष्ठ पर प्रकाशित हुआ है, जिसका बैनर शीर्षक एक पूर्व तेज गेंदबाज का यह वाक्य है: ‘यदि आप तेज गेंदबाजी से डरते हो, तो बैंकिंग जैसे अन्य व्यवसाय में जाओ।‘
आज की भारतीय क्रिकेट में, वीरेन्द्र सहवाग की छवि शुरुआती तेज रन लेने वालों की है; उन दिनों में इंजीनियर एकमात्र ऐसे बल्लेबाज थे जिन्होंने 46 गेंदों में एक सेंचुरी बनाई थी! समूचे साक्षात्कार में पूर्व और वर्तमान युग के क्रिकेट मैचों की तुलना करते हुए इसका भी उल्लेख हुआ कि आज कल कितने बेहतरीन बल्ले बनाए जाते हैं जबकि फारुख के समय में ”हमारा तो ब्रुक बांड चाय का डब्बा था; कोई मिडिल था ही नहीं; आपको ही इसे तेल लगाना पड़ता था और यही सब वो जमाना था!”
निस्संदेह सर्वाधिक बड़ी बात तुलनात्मक रुप से यह उभर कर सामने आती है कि उन वर्षों में कभी किसी टेस्ट क्रिकेट खिलाड़ी पर ऐसे सवाल नहीं उठे कि उसने अपनी प्रतिभा का दुरूपयोग कर पैसा कमाया। वास्तव में, फारुख इंजीनियर का टीवी दर्शकों से परिचय कराते समय शेखर गुप्ता ने बताया: ”क्या आप जानते हैं कि एम.एस. धोनी से काफी पहले एक ऐसा भारतीय विकेट कीपर था जिसके बालों का स्टाइल और जिसके जोरदार तरीके पूरे भारत को दीवाना बना देते थे?”
इंजीनियर के बालों के स्टाइल का संदर्भ देते हुए शेखर गुप्ता ने कहा: ”आप अपने स्टाइल से प्रसिध्द हो गए थे। आप एक बड़े ब्रिलक्रीम मॉडल थे।”
आज कल के क्रिकेटरों की कमाई की पृष्ठभूमि में यह ब्रिलक्रीम का संदर्भ समूचे साक्षात्कार में बार-बार आया। शेखर की टिप्पणी थी: ”लोग नहीं जानते होंगे कि ब्रिलक्रीम के बारे में।” फारुख का उत्तर था:
”ब्रिलक्रीम वास्तव में एक चीज थी, यदि ब्रिलक्रीम ने आपको ‘एप्रोच‘ किया तो आपकी जिंदगी बन गई। तब आप अच्छे दिखने वाले सुअर हो या कुछ भी। और ब्रिलकी्रम ने वास्तव में मुझे 500 पौंड से ज्यादा किए बशर्ते मैं बगैर ‘कैप‘ के बल्लेबाजी करुं!”
साक्षात्कार में आगे चलकर वह स्मरण करते हैं कि कैसे आस्ट्रेलियाई और अन्य विदेशी हमें ‘ब्लडी इण्डियन‘ कहकर पुकारा करते थे। फारुख कहते हैं: इससे मुझे नाराजगी होती थी, इससे मैं दु:खी होता था क्योंकि मैं अपने भारतीय होने पर सोत्साहपूर्वक गर्व करता था। और अभी आइपीएल के सब पैसे हैं, वे सब यहां पैसा कमाने आए हैं।” साक्षात्कार के अंतिम पैराग्राफ निम्न हैं:
शेखर गुप्ता: फारुख यदि टीम ने क्रिकेट के खेल में शानदार मोड़ लाया था तो मैं देख सकता हूं कि यह कैसे सम्भव हुआ। यह आप जैसे लोगों की खेल में वह भावना और आनन्द था।
फारूख इंजीनियर% खेल में कोई पैंसे के बगैर।
शेखर गुप्ता: बिलक्रीम से मिले कुछ हजार पौण्ड के सिवाय, और वह भी कपिल देव द्वारा पॉलमोलिव के लिए किए जाने से काफी पहले।
फारुख इंजीनियर: ब्रिलक्रीम अंतराष्ट्रीय स्तर पर थी। पॉलमोलिव स्थानीय। जब आप ब्रिलक्रीम मॉडल हो तो यह ऐसा था कि आप ‘वोग‘ पत्रिका के मुखपृष्ठ पर छप रहे हों जो पूरी दुनिया में जाती है। इसलिए यह ब्रिलक्रीम जैसी थी।
शेखर गुप्ता: अनेक दशकों से भारतीय क्रिकेट में एक महान अंतराष्ट्रीय नागरिक आप जैसा है ही नहीं। अत: एक बार फिर से इस बातचीत की क्या विशेषता है।
फारुख इंजीनियर: पूर्णतया आनन्द।
देश में राजनीतिक भ्रष्टाचार के बारे में सन 2008 के राष्ट्रमंडल खेलों से सुना जा रहा है जिसके चलते हमारे राष्ट्र की काफी बदनामी हुई है। परन्तु वर्तमान के दौर में अलग श्रेणी के नायकों के शामिल होने से यही तथ्य उभरता है कि इस सभी गिरावट की जड़ में पैसा मुख्य है।
किसी ने सही ही कहा है: धन रखना बहुत अच्छा है; यह एक मूल्यवान चाकर हो सकता है। लेकिन धन आपको रखे तो यह ऐसा है जैसे कोई शैतान आपको पाल रहा है, और यह सर्वाधिक स्वार्थी और खराब किस्म का शैतान है!

लालकृष्ण आडवाणी
नई दिल्ली
26 मई, 2013

इंटरनेट से सूचना तंत्र में आई क्रांति का भविष्य क्या होगा ;सीधे एल के अडवाणी के ब्लॉग से

एन डी ऐ के पी एम् इन वेटिंग और वरिष्ठ पत्रकार लाल कृष्ण अडवाणी ने अपने ब्लॉग के माध्यम से इंटरनेट(अंतरताना)के उपयोग दुरूपयोग और इसके दमन के विषय में रोचक तथ्य दिए हैं| आतंक वादियों द्वारा इसके दुरूपयोग और विक्लिक्स के अनेकों राजनितिक रहस्योद्घाटन और फिर उसके दमन का उल्लेख करके भविष के प्रति चिंता प्रकट की है| प्रस्तुत है सधे एल के अडवाणी के ब्लॉग से;
गत् सप्ताह एक मित्र ने मुझे ‘इंटरनेट‘ (अंतरताना) से सम्बन्धित एक उत्कृष्ट पुस्तक भेजी, सत्य यह है कि हाल ही के वर्षों में जिन उत्तम पुस्तकों को पढ़ने का मौका मिला, यह उनमें से एक है। पुस्तक का शीर्षक है

”दि न्यू डिजिटल एज”

इस पुस्तक पर की गई टिप्पणियों में

ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर की टिप्पणी

भी समाहित है, जिसमें वह कहते हैं:
यह पुस्तक इंटरनेट द्वारा सृजित की जा रही नई दुनिया की प्रकृति और इसकी चुनौतियों-दोनों को परिभाषित करती है। यह जन्म ले रही एक प्रौद्योगिक क्रांति का वर्णन करती है। हम इसे कैसे माप पाते हैं, यह देशों, समुदायों और नागरिकों के लिए चुनौती है। एरिक चमस्मिट (Eric schmidt½ और जारेड कोहेन (Jared Cohen½ – इन दोनों से ज्यादा और कौन इसके तात्पर्य को अच्छी तरह से जान सकता है।
इरिक सचमिड्ट, गूगल के इग्जेक्यटिव चेयरमैन हैं और जारेड कोहेन इस पुस्तक के सहयोगी लेखक होने के साथ-साथ गूगल आईडियाज़ के निदेशक हैं।
लेखक द्वारा लिखी गई प्रस्तावना का शुरुआती वाक्य है: ”इंटरनेट उन कुछ चीजों में से है जिसे मनुष्यों ने बनाया लेकिन वे इसे वास्तव में समझते नहीं हैं।”
प्रस्तावना के अंतिम पैराग्राफ में लिखा है:
”यह पुस्तक गजेट्स, स्माल फोन एप्पस या आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के बारे में नहीं है, यद्यपि इन प्रत्येक विषयों के बारे में चर्चा की जाएगी….
सर्वाधिक, यह पुस्तक नए डिजिटल युग में मार्गदर्शक मानवीय हाथ के महत्व के बारे में है। संचार प्रौद्योगिकी जिन सभी संभावनाओं का प्रतिनिधित्व करती है, उनका अच्छे या बुरे उपयोग का सारा दारोमदार लोगों पर निर्भर करता है। भूल जाइए उन सभी बातों को जो मशीनों के प्रभावी होने से उठती हैं। हमारे लिए मुख्य है कि भविष्य में क्या होगा।”
मार्च, 2011 में चेन्नई से प्रकाशित हिन्दू ने भारत की विदेश नीति और घरेलू मामलों से सम्बंधित रिपोर्टों की श्रृंखला प्रकाशित करना शुरु किया था, जिनके चलते भारतीय पाठकों को विकीलीक्स नाम के संगठन से घनिष्ठ परिचय हुआ। 15 मार्च, 2011 को हिन्दू के तत्कालीन मुख्य सम्पादक एन. राम ने लिखा:
आज से हिन्दू अपने पाठकों को लिए ऐसी श्रृंखला शुरु कर रहा है जो इसके पाठकों को भारत की विदेश नीति और घरेलू मामलों, कूटनीति, राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और बौध्दिक पक्ष की अप्रत्याशित अंतरंग जानकारी देगी जिसे अमेरिकी राजनायिकों ने वाशिंगटन डीसी में विदेश विभाग को भेजे गए केबलों में प्राप्त, प्रत्यक्षदर्शी, जुटाई गई, परिभाषित, टिप्पणियों सहित संजोया गया था।
विषयों, मुद्दों और इण्डिया केबल्स में वर्णित व्यक्तियों का दायरा अद्भुत है। जबकि दक्ष राजनयिकों की दृष्टि बहुधा सदैव अपने लक्ष्य पर थी-विकसित होते भारत-अमेरिकी सामरिक रिश्ते और इसमें सहायक या रोड़ा अटकाने वाली हर चीज-इस दायरे में शामिल है। भारत के अपने पड़ोसियों से रिश्ते, रुस, यूरोपियन यूनियन, ईस्ट एशिया, इस्राइल, फिलस्तीन, इरान और समूचा पश्चिम एशिया, अफ्रीका, क्यूबा और संयुक्त राष्ट्र। गुप्तचर सूचनाओं का आदान-प्रदान, निर्यात नियंत्रण, मानवाधिकार, भारतीय नौकरशाही, पर्यावरण, अफगान-पाक और बहुत कुछ। 26/11 पर विशेष फोकस है, कश्मीर, पाकिस्तान श्रीलंका, नेपाल, बंगलादेश और म्यनमार के प्रति भारत की नीति और भारतीय नीति किधर जा रही है। सभी दलों के राजनीतिक, कूटनीतिज्ञ, और सभी अधिकारी, जासूस, व्यवसायी, पत्रकार, व्यस्ततम लोग, बड़े-बड़े और छोटे-छोटे लोग विकीलीक्स के भारत सम्बन्धी केबल्स में हैं-जो अमेरिकी दूतावास और कान्सुलेट के 5100 केबल्स हैं जो भारत के संदर्भ में प्रासंगिक हैं (सभी भारत से नहीं भेजे गए हैं) और विस्मयकारी 6 मिलियन शब्दों में फैले हैं।”
समाचारपत्र के बहुत से पाठकों की भांति मैं भी विकीलीक्स के मुख्य सम्पादक द्वारा गुप्त दस्तावेजों में सेंध लगाकर रहस्योद्धाटित की गई जानकारियों से काफी प्रभावित हुआ। इसलिए, ब्रिटेन में एसांजे के नजरबंद किए जाने से मैं काफी दु:खी हुआ।
चमस्मिट और कोहेन ने नजरबंदी के दौरान एसांजे से साक्षात्कार किया:
पुस्तक में लिखा है:
साक्षात्कार के दौरान,

एसांजे ने इस विषय पर अपने दो मूल तर्कों को साझा किया। जोकि सम्बंधित हैं: पहला, हमारी मानव सभ्यता हमारे सम्पूर्ण बौध्दिक जीवन इतिहास (रिकार्ड) पर बनी है; अत: रिकार्ड जितना सम्भव हो उतना बड़ा होना चाहिए जो हमारे अपने समय को आकार दे सके तथा भावी पीढ़ियों को सूचित कर सके। दूसरा, क्योंकि विभिन्न पात्र सदैव अपने इतिहास को आत्मसम्मान की खातिर नष्ट करने या संवारने का प्रयास करते हैं, तो अत: सबका जहां तक संभव हो सक,े जो सत्य चाहते हैं और उसे महत्व देते हैं को रिकार्ड को नकारने से बचाने, और फिर इस रिकार्ड को जहां तक सम्भव हो सभी लोगों को सभी जगह सुलभ और शोधयोग्य बनाना चाहिए।

एसांजे के इस अवतार ने स्वाभाविक रुप से मुझे सत्तर के दशक में हमारे आपातकाल के प्रकरण का स्मरण करा दिया जब एक लाख से ज्यादा विपक्षी कार्यकर्ताओं को राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा मानकर जेलों में ठूंस दिया गया, इस पृष्ठभूमि में, इसलिए मैं इस मत का समर्थन करता हूं कि इंटरनेट इत्यादि पर सभी नियंत्रण अवांछनीय हैं और इसलिए एसांजे के उपरोक्त तर्कों से सहमत हूं तथा उनके विचार को समर्थन देता हूं कि व्यापक पारदर्शिता एक ज्यादा न्यायसंगत, सुरक्षित और स्वतंत्र विश्व बनाएगी।
मैं अवश्य ही यह मानता हूं कि इस पुस्तक ने मेरे लिए एक चेतावनी दी है कि इंटरनेट और अन्य आधुनिक संचार उपकरणों द्वारा लाई गई क्रांति ने राष्ट्रों और वैयक्तिक नागरिकों की सुरक्षा के लिए बहुत गंभीर परिणाम पैदा कर दिए हैं।
जब मैंने ‘चेतावनी‘ शब्द का प्रयोग जोर देकर किया कि कैसे यह पुस्तक इंटरनेट जैसे आधुनिक संचार उपकरणों के प्रति मेरे सहज मोह को प्रभावित करती है, तो मुख्य रूप से मेरे दिमाग में इस पुस्तक का पांचवां अध्याय है, जिसका शीर्षक है ”

दि फ्यूचर ऑफ टेरोरिज्म”।

अध्याय की शुरूआत में ही लिखा है:
”जैसाकि हमने स्पष्ट किया कि तकनीक एक समान अवसर हेतु सक्षम बनाने, लोगों को अपने लक्ष्यों के लिए प्रयोग करने हेतु शक्तिशाली औजार प्रदान करती है, कभी अद्भुत रूप से रचनात्मक लक्ष्यों लेकिन कभी-कभी अकल्पनीय विनाशकारी लक्ष्यों के लिए। अपरिहार्य सत्य यह है कि कनेक्टिविटी आतंकवादियों और हिंसक चरमपंथियों को भी फायदा देती है; जैसे यह फैलती है वैसे ही जोखिम भी। भविष्यगत आतंकवादी गतिविधियों में भर्ती से लेकर क्रियान्वयन जैसे भौतिक और वास्तविक पहलू शामिल रहेंगे। आतंकवादी समूह बम या अन्य माध्यमों से वार्षिक तौर पर हजारों लोगों को मारते रहेंगे। यह व्यापक लोगों, उन देशों के लिए बहुत बुरा समाचार है जो पहले से ही भौतिक विश्व में अपनी मातृभूमि को बचाने में काफी मुश्किलों का सामना कर रहे हैं और कम्पनियां निरंतर उनकी मार के दायरे में आएंगी। और निस्संदेह यह भयावह संभावना बनी रहेगी कि इनमें से कोई एक समूह परमाणु, रसायनिक या जैविक हथियार से युक्त हो जाए।
इस पुस्तक के लेखकद्वय ने परिचय में उल्लेख किया है कि इस पुस्तक का विचार उन्हें सन् 2009 में बगदाद में मिलने पर सूझा। दोनों इराक में इस महत्वपूर्ण सवाल से जूझ रहे थे कि एक समाज को फिर से बनाने में कैसे तकनीक का उपयोग किया जा सकता है।
आतंकवाद सम्बन्धी अध्याय में वे कहते हैं ”सन् 2009 में जब वे यात्रा कर रहे थे तब उन्हें यह ख्याल आया कि एक ”आतंकवादी बनना कितना सरल” हो गया है। वे लिखते हैं कि आई ई डी (उन्नत विस्फोटक उपकरण) पहले महंगे थे। सन् 2009 तक वे काफी सस्ते हो गए और ”एक बम जिसका ट्रीगर मोबाईल फोन सेट के कम्पायमान (वाईब्रेट) से दूर से ही नम्बर मिलाकर विस्फोट किया जा सकता है।”
एबटाबाद में ओसामा बिन लादेन प्रकरण का संदर्भ देते हुए पुस्तक कहती है:
”भविष्य में आतंकवादी पाएंगे कि तकनीक आवश्यक है लेकिन ज्यादा जोखिम वाली है। सन् 2011 में ओसामा बिन लादेन की मौत प्रभावी रूप से आधुनिक प्रौद्योगिकी पर्यावरण से अलग-थलग रहकर गुफा के ठिकाने वाले आतंकवादी युग को समाप्त करती है। कम से कम पांच वर्ष तक बिन लादेन पाकिस्तान के एबटाबाद के अपने ठिकाने में इंटरनेट या मोबाइल फोन के बगैर छुपा रहा।
और भले ही ‘ऑफ लाइन‘ रहकर बिन लादेन पकड़े जाने से बचा रहा, लेकिन वह फलैश ड्राइव्स, हार्ड ड्राइव्स और डीवीडी का प्रयोग अपनी जानकारी तरोजाता बनाए रखने के लिए किया करता था। इन उपकरणों ने उसे अल-कायदा के दुनियाभर में चल रहे ऑपरेशनों पर नजर रखने में सबल बनाया और उसके गुर्गों को उसके तथा सर्वत्र विभिन्न आतंकी गुटों के बीच बड़ी मात्रा में डाटा प्रदान करने में सहायता की। जब तक वह आजाद रहा, इन उपकरणों पर उपलब्ध सूचनाएं सुरक्षित थीं और पहुंच से बाहर। लेकिन जब नेवी सील टीम सिक्स ने उसके घर पर धावा किया, उन्होंने उसके उपकरणों को कब्जे में लिया, और न केवल उन्हें वांछित व्यक्ति पकड़ने में सफलता मिली अपितु उन सभी के बारे में भी महत्वपूर्ण सूचनाएं मिलीं जिनके सम्पर्क में वह था।”
इसी संदर्भ में एक और उदाहरण दिया गया है कि कैसे नए उपकरणों ने एक आतंकवादी ऑपरेशन करने में सफलता प्राप्त की लेकिन अपने पीछे सन् 2008 में मुंबई पर हुए आतंकवादी हमले जिसमें दस नकाबधारी लोगों ने शहर को तीन दिन तक बंधक बना कर रखा और अनेक विदेशियों सहित 174 व्यक्ति मारे गए, को फंसाने वाला वर्णन भी छोड़ा।
”बंदूकधारी पाकिस्तान में बैठे अपने सूत्रधारों से सामंजस्य बैठाने और हमला करने हेतु, तथा बुनियादी उपभोक्ता प्रौद्योगिकी – ब्लैकबेरी, गूगल अर्थ और वीओआईपी – पर निर्भर थे, जो इस घटना का ताजा प्रसारण्ा सेटेलाइट टेलीविजन पर देख रहे थे और समाचारों की मॉनिटरिंग कर सचमुच में सामरिक निर्देश दे रहे थे। प्रौद्योगिकी ने इन हमलों को अन्य स्थिति की तुलना में ज्यादा घातक बना दिया लेकिन एक बार जब (अंतिम और एकमात्र जीवित) बंदूकधारी पकड़ा गया, उसके पास जो सूचना थी और महत्वपूर्ण यह कि उसके साथियों के छोड़े गए उपकरणों ने जांचकर्ताओं को इलेक्ट्रॉनिक जांच करते हुए पाकिस्तान में बैठे महत्वपूर्ण लोगों और स्थानों तक पहुंचाया जोकि दूसरी स्थिति में अनेक महीनों तक पता ही नहीं चलते, कभी नहीं भी।”
टेलपीस (पश्च्य लेख)
सी आई ए के पूर्व डारेक्टर जनरल मिशेल हायडेन ‘दि न्यू डिजिटल एज‘ ‘उन सभी को पढ़ने के लिए अनिवार्य मानते हैं जो डिजिटल क्रांति की गहराई को समझना चाहते हैं।‘
यह पुस्तक कहती है कि दुनियाभर के अधिकांश इंटरनेट उपयोगकर्ताओं को किसी रूप में सेंसरशिप – जिसे कोमल भाषा में ‘फिल्टरिंग‘ के नाम से जाना जाता है – का सामना करना पड़ता है। लेकिन देशों में फिल्टरिंग के तीन मॉडल प्रचलित हैं : खुले तौर पर, संकोची और राजनीतिक तथा सांस्कृतिक रूप से स्वीकार्य।
खुले तौर पर : चीन दुनिया में सूचनाओं का सर्वाधिक उत्साही फिल्टर करने वाला देश है। दुनियाभर में प्रर्याप्त लोकप्रिय समूचे प्लेटफार्म – फेसबुक, टि्वटर, टुमबलर – पर चीनी सरकार ने रोक लगाई हुई है। इसी प्रकार राजनीतिक रूप से नाजुक तियनामेन स्कवेयर विरोध, दलाई लामा, तिब्बती अधिकार आंदोलन, 2011 में गूगल के चेयरमैन की बीजिंग यात्रा इत्यादि भी।
संकोची- हालांकि तुर्की में चीन जैसी खुले तौर पर फिल्टरिंग नहीं है परन्तु तुर्की सरकार का खुले इंटरनेट से सम्बन्ध सहज नहीं है। फिर भी लगभग 8000 वेबसाइट्स बगैर सार्वजनिक नोटिस या अधिकारिक सरकारी स्वीकृति के तुर्की मे ‘ब्लॉक‘ कर दी गईं।
राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप से स्वीकार्य: पुस्तक इस श्रेणी में दक्षिण कोरिया, जर्मनी और मलेशिया जैसे देशों को रेखांकित करती है। यह फिल्टरिंग चुनींदा है और कानून आधारित अत्यन्त विशेषीकृत सामग्री को सेंसरशिप से रोकने का न तो प्रयास करती है न ही औचित्य का।
पुस्तक की इच्छा है कि यह तीसरा मॉडल समूचे विश्व का नियम बनना चाहिए।

पोलिटिकली+कल्चरली सेंसरशिप स्वीकार्य है : सीधे एल के अडवाणी के ब्लाग से

एन डी ऐ इन वेटिंग और वरिष्ठ पत्रकार लाल कृषण अडवाणी ने अपने नवीनतम ब्लॉग के पश्च्य लेख[ TAILPIECE ] के माध्यम से इन्टरनेट के माध्यम से व्यक्त किये जा रहे विचारों पर लगाई जा रही सेंसरशिप का उल्लेख किया है | उन्होंने सी आई ऐ [CIA ]के पूर्व निदेशक MichaelHayden के हवाले से पोलिटिकली+कल्चरली [ POLITICALLY AND CULTURALLY ] सेंसरशिप को बेहतर बताया है| श्री आडवाणी ने माइकल हेडेन [ MichaelHayden ] की पुस्तक के हवाले से विश्व में तीन प्रकार की सेंसरशिप का उल्लेख किया है|
[१]

खुल्लमखुल्ला

सेंसर शिप के लिए दबंग चाइना का ज्वलंत उदहारण दिया जा सकता है| चाइना में फेस बुक+ट्विटर+टुम्बिर आदि सोशल साईट्स को थियमनन चौक कांड के बाद [ Tianenmen Square ] सरकार द्वारा खुल्लम खुल्ला बैन कर दिया गया| दलाई लामा के तिब्बत आन्दोलन पर चर्चा पर पूर्णतया पाबंदी है|
[२]

शर्मनाक भेड़ छननी

[ SHEEPISH:Filter ]इसके सपोर्ट में टर्किश सरकार का उदहारण दिया गया है| टर्किश सरकार स्वयम को इंटरनेट यूसर्स के साथ असहज मानती है| बेशक यहाँ चीन की तरह खुल्लम खुल्ला दबंगई नही है फिर भी सूचना या चेतावनी दिए बगैर ही लगभग ८००० वेबसाइट ब्लाक कर दी गई है|
[३]

पोलिटिकली+कल्चरली स्वीकार्य

[POLITICALLY AND CULTURALLY ]इस फ़िल्टर को सबसे भिन्न बताया गया है| इसके लिए साउथ कोरिया+ जर्मनी + मलेशिया के उधारण हैं| यह सेंसर शिप चुनिन्दा और कानूनन कुछ स्पेशल केसों पर ही लागू होती है| जिसे छुपाया नहीं जाता +जबरदस्ती थोपा नही जाता+चोरी छुपे लागू नहीं किया जाता| हेडेन की पुस्तक में इस तरीके की सेंसरशिप की कामना की गई है|
सर्व विदित है के भारत में इमरजेंसी के कारण श्री आडवाणी आदि राजनीतिज्ञों ने जेलों में कष्ट सहे थे|और उस उत्पीडन से उबरने के लिए जनता पार्टी का गठन किया गया था| अब फिर से देश में सोशल मीडिया पर पाबन्दी लगाने के लिए प्रयास शुरू हो गए हैं ऐसे में यह लेख आई ओपनर हो सकता है|

अपने मंत्रियों की करतूतों से शासक वस्त्रहीन हैं : सीधे एल के अडवाणी के ब्लॉग से

एन डी ऐ के पी एम् इन वेटिंग और वरिष्ठ पत्रकार लाल कृषण अडवाणी ने अपने ब्लाग के माध्यम से वर्तमान शासक को वस्त्रहीन बताने के लिए एक रोचक कहानी और एक साप्ताहिक के सम्पादकीय का उल्लेख किया है|गौरतलब है कि पूर्व में एल के अडवाणी भारत के पी एम् डाक्टर मन मोहन सिंह को कमजोर +दब्बू और अपनी पार्टी अध्यक्षा के हाथों की कठपुतली बता चुके हैं|प्रस्तुत है सीधे एल के अडवाणी के ब्लाग से :
हंस एंडरसन की रोचक कहानी ‘दि एम्परर्स् न्यू क्लोज़ (सम्राट के नए वस्त्र)[Emperor’s New Clothes ]मैंने पहली बार स्कूल के दिनों में पढ़ी थी।
एंडरसन की कहानी दो बुनकरों के बारे थी जिन्होंने सम्राट को एक नए वस्त्र की पोशाक देने का वायदा किया था जो सर्वथा सुंदर होने के साथ ही उसकी उल्लेखनीय विशेषता होगी कि वह अदृश्य रहेगी जिसे अक्षम्य रूप से कोई मूर्ख नहीं देख सकेगा और अयोग्य अपने पद पर नहीं रह पाएगा।
इन दोनों बुनकरों जो वास्तव में ठग थे, को सुनकर सम्राट जो हमेशा अच्छे और मंहगे वस्त्रों का शौकीन था ने सोचा ”यदि मैं इस कपड़े की बनाई गई पोशाक पहनूंगा तो मैं पता लगा संकूगा कि मेरे राज में कौन व्यक्ति अपने पद के योग्य है और मैं चतुरों और मूर्खों में भेद कर सकूंगा।”
कहानी का चरमोत्कर्ष तब आया जब सम्राट अपनी ‘नई पोशाक‘ को धारण कर अपनी प्रजा के सामने निकला, इनमें से अनेकों ने उसकी इस कथित असाधारण पोशाक की भूरि-भूरि प्रशंसा की परन्तु तभी एक बच्चा चिल्लाया कि ”लेकिन उन्होंने (सम्राट) तो कोई वस्त्र पहना ही नहीं है!”
* * *सीबीआई द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में यह स्वीकार किए जाने कि उन्होंने इन दोनों घोटालों सम्बन्धी जांच रिपोर्ट को विधि मंत्री और प्रधानमंत्री कार्यालय के साथ साझा किया, पर सर्वोच्च न्यायालय ने उनके इस कृत्य के लिए उसे काफी लताड़ा है।
सीबीआई को ‘एक पिंजरे में बंद तोते‘ की तरह बताते हुए सर्वोच्च न्यायलय ने 8 मई के अपने निर्देश में सीबीआई को सभी ”दवाबों और खींचतान के विरुध्द डट कर खड़े होने को कहा। न्यायमूर्ति लोढा की अध्यक्षता वाली पीठ ने सीबीआई के इस निवेदन पर सवाल उठाए कि भले ही विधि मंत्री और प्रधानमंत्री कार्यालय के ईशारे पर कुछ महत्वपूर्ण बदलाव किए गए है, परन्तु रिपोर्ट का मुख्य अंश नहीं बदला गया है। सर्वोच्च न्यायलय ने अपने आदेश में कहा है कि ”सरकारी अधिकारियों के सुझाव पर रिपोर्ट का मुख्य तत्व (दिल) बदला गया।”
सरकार के कार्यकलापों के विरुध्द विपक्ष के आक्रोश को व्यापक स्तर पर मीडिया ने भी प्रकट किया। संसद के सदनों को सामान्य रुप से चलाने हेतु विपक्ष की कम से कम मांग यह थी कि विधि मंत्री को त्याग पत्र देना चाहिए और रेलवे मंत्री को बर्खास्त किया जाए।
संसद में इस वर्ष का बजट सत्र अपने अंतिम सप्ताह में पहुंच चुका था। कई दिनों से संसद में कामकाज नहीं हो सका था क्योंकि लगभग समूचा विपक्ष ‘कोयलागेट‘ और ‘रेलगेट‘ जैसे महाघोटालों के लिए सरकार से जवाबदेही की मांग कर रहा था, विशेष तौर पर प्रधानमंत्री (जब यह कोयला खदानों का आवंटन किया गया तब वह कोयला मंत्री थे), विधि मंत्री और रेलवे मंत्री के इस्तीफे की मांग।
बेशर्मी से अपने दोनों मत्रियों का बचाव करते हुए, विशेष रुप से विधि मंत्री का, जिन्हें सरकार से हटाने से प्रधानमंत्री का पद पर बने रहना असम्भव हो जाता, सरकार ने संसद की कार्यवाही 10 मई के बजाय दो दिन पूर्व यानी 8 मई को ही अनिश्चितकाल के लिए ही स्थगित कर दी।
समाचारपत्रों और टीवी चैनलों द्वारा की गई निंदात्मक टिप्पणियों में, मैं मेल टुडे में आर. प्रसाद के कार्टून से विशेष रुप से प्रभावित हुआ जोकि उपरोक्त वर्णित हंस एंडरसन की रोचक कहानी पर आधारित है। मुझे पता नहीं कि प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्षा ने इसे देखा है या नहीं।
इस कार्टून ने मुझे 1975-1977 के आपातकाल के दौरान अबू द्वारा बनाए गए कार्टून का स्मरण करा दिया जिसमें राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद को एक बाथ टब में लेटे दिखाया गया और वह उनको हस्ताक्षर के लिए दस्तावेज दे रहे अपने सहायक को कह रहे हैं ”यदि और अधिक अध्यादेश हैं तो उन्हें थोड़ा इंतजार करने के लिए कहिए!” सरकार या आपातकाल के आलोचक अनेक समाचारपत्रों और पत्रिकाओं को या तो प्रतिबंधित कर दिया गया या जबरदस्ती बंद करा दिया गया। परन्तु उन दिनों प्रकाशित होने वाली एक मात्र कार्टून पत्रिका ‘शकरर्स वीकली‘ ने स्वयं ही प्रकाशन बंद करने का निर्णय लिया। 31 अगस्त, 1975 को अपने अंतिम सम्पादकीय ‘फेयरवेल‘ (विदाई) शीर्षक से सम्पादक ने निम्नलिखित शानदार लेख लिखा :
सम्पादकीय में आपातस्थिति का नाम तक नहीं लिया गया, लेकिन उस समय के तानाशाही शासन की इससे ज्यादा कटु निंदा और नहीं हो सकती थी। सम्पादकीय निम्न है:-

“हमारे पहले सम्पादकीय में हमने रेखांकित किया था कि हमारा काम हमारे पाठकों को हंसाना होगा – दुनिया पर, आडम्बरपूर्ण नेताओं, कपटपूर्ण आचरण, कमजोरियों और अपने पर। पर ऐसे हास्य को समझने वाले और विनोदी स्वभाव रखने वाले लोग कैसे होते है? ये ऐसे लोग हैं जो व्यवहार में निश्चित सभ्यता व लोकाचार रखते हैं तथा जहां सहिष्णुता और दयालुपन का भाव होता है। अधिनायकवाद हंसी को नहीं बर्दाश्त करता क्योंकि लोग तानाशाह पर हसेंगे और वह नहीं चलेगा। हिटलर के सभी वर्षों में, कभी प्रहसन नहीं बना, कोई अच्छा कार्टून नहीं था, न ही पैरोडी थी या मजाकिया नकल भी नहीं थी।
इस दृष्टि से, दुनिया और दु:खद रुप से भारत असंवेदनशील, गंभीर और असहनशील होता जा रहा है। हास्य जब भी हो तो संपुटित होता है भाषा अपने आप में काम करने लगती है। प्रत्येक व्यवसाय अपनी शब्दावली विकसित कर रहा है। अर्थशास्त्री बंधुओं के समाज से बाहर एक अर्थशास्त्री अजनबी है, अनजाने क्षेत्र में हिचकिचाकर बोल रहा है, अपने बारे में अनिश्चित, गैर-आर्थिक भाषा से भयभीत है। यही वकीलों, डाक्टरों, अध्यापकों, पत्रकारों और उनके जैसों का हाल है।
इससे ज्यादा खराब यह है कि मानवीय कल्पना वीभत्स और विकृत में परिवर्तित होती प्रतीत होती है। पुस्तकें और फिल्में या तो हिंसा या सेक्स के भटकाव पर हैं। अनचाही घटनाओं और कृत्यों से लगने वाले झटके के बिना लोग जागरूक होते नहीं दिखते। लिखित शब्दों और समाज पर सिनेमा का अर्न्तसंवाद हो या न हो, समाज इन प्रवृत्तियों को अभिव्यक्त करता है। लूट-मार, अपहरण आदि अपराध नित्य हो रहे हैं और राजनीतिक कलेवर चढ़ा कर इन्हें सामाजिक स्वीकार्यता भी दी जा रही है।
परन्तु ”शंकरर्स वीकली” एक पक्की आशावादी है। हम निश्चिंत हैं कि वर्तमान परिस्थितियों के बावजूद, दुनिया खुशहाल और अधिक तनाव रहित स्थान बनेगी। मनुष्य की आत्मा अंतत: सभी मौत की शक्तियों पर हावी होगी और जीवन इतना पल्लवित होगा जहां मानवता अपना उच्चतम उद्देश्य हासिल करेगी। कुछ इसे भगवान पुकारते हैं। हमें इसे मानव नियति कहना पसंद करते हैं। और इसी विचार के साथ हम आप से विदा ले रहे हैं और आपके उज्जवल भविष्य की कामना करते हैं।”

स्विटजरलैण्ड को पारदर्शिता और वैश्विक मापदण्डों को अपनाना ही होगा:सीधा एल के अडवाणी के ब्लॉग से

एन डी ऐ के पी एम् इन वेटिंग और वरिष्ठ पत्रकार लाल कृषण आडवाणी ने अपने ब्लॉग के माध्यम से एक महीने में दोबारा काले धन को देश में लाये जाने के लिए कोई कार्यवाही नहीं किये जाने पर चिंता व्यक्त की है| श्री आडवाणी के अनुसार उनकी पार्टी भाजपा के प्रयासों से संसद में श्वेत पत्र तो केंद्र सरकार ले आई लेकिन उस पर कोई प्रभावी कार्यवाही नहीं हुई| इसके लिए इस ब्लॉग में उन्होंने खेद व्यक्त किया हैइसके अलावा इस वयोवृद्ध नेता ने अपने फ़िल्मी प्रेम का इजहार भी किया है|जेम्स बांड की फिल्म दि वर्ल्ड इज नॉट इनफ”[१९९९] के माध्यम से उन्होंने स्विस बैंको की विश्वसनीयता पर सवाल उठाया तो एम्मा थामेसन के लेख के माध्यम से जवाब भी तलाशने का प्रयास किया है| | प्रस्तुत है सीधा एल के अडवाणी के ब्लॉग से
इसी महीने में मैंने एक ब्लॉग लिखा था, जिसका शीर्षक था ”कालेधन पर श्वेत पत्र के बावजूद एक पैसा भी वापस नहीं आया।”
इस ब्लॉग में बताया गया था कि कैसे भाजपा द्वारा कालेधन के विरुध्द चलाए गए ठोस अभियान ने यूपीए सरकार को इस मुद्दे पर श्वेत पत्र प्रस्तुत करने को बाध्य किया। श्वेत पत्र में इसको स्वीकारा गया है कि भारत की ”समावेशी विकास रणनीति की सफलता मुख्य रुप से हमारे समाज से भ्रष्टचार की बुराई के खात्मे और काले धन को जड़ से उखाड़ फेंकने की क्षमता पर निर्भर करती है।”
भाजपा को इसका खेद है कि श्वेत पत्र पर कार्रवाई बिल्कुल नहीं की गई है। भ्रष्टाचार और कालाधन भारत की राजनीति और शासन को, विशेष रुप से पिछले नौ वर्षों से लगातार कमजोर कर रहे हैं।
इस मुद्दे पर भारत के उदासीन रवैये की तुलना में रिपोर्टें आ रही हैं कि कुछ शक्तिशाली पश्चिमी देशों द्वारा स्विस बैंकों के गोपनीय कानूनों के विरुध्द छेड़े गए विश्वव्यापी अभियान से स्विट्जरलैण्ड के बैंकिग सेक्टर में वास्तव में संकट खड़ा हो गया है। अंतरराष्ट्रीय समाचार एजेंसी रायटर ने हाल ही में स्विट्जरलैण्ड में अपनी ब्यूरो चीफ एम्मा थामेसन का एक लेख प्रसारित किया है जिसका शीर्षक है: बैटल फॉर दि स्विस सोल। इस लेख का मूल भाव इन शब्दों में वर्णित किया गया है:
”आज भी, कुछ स्विस नागरिक इस तथ्य पर बहस करना पसन्द करेंगे कि देश की अधिकांश समृध्दि, बैंकरों द्वारा विदेशी कर वंचकों की सहायता करने से आई है।”
इस लेख की शुरुआत 1999 में जेम्स बांड की फिल्म ”दि वर्ल्ड इज नॉट इनफ” से होती है, जिसमें बांड पूछता है” यदि आप स्विस बैंकर पर भरोसा नहीं करसकते तो किस दुनिया में हो?”
इस लेख की सुविज्ञ लेखक एम्मा जेम्स बांड के इस प्रश्न का उत्तर यूं देती हैं:
”यह इस प्रकार है: अमेरिका, फ्रांस और जर्मनी जैसे देशों के दबाव में स्विस बैंक अपनी गोपनीयता छोड़ रहे हैं, कुछ केसों में अपने खाता धारकों के नाम विदेशी कर प्राधिकरणों को दे रहे हैं। आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (Organisation for Economic Cooperation and Development-OECD½ द्वारा काली सूची में डाले जाने से बचने के लिए स्विस सरकार टैक्स धोखाधड़ी करने वालों की तलाश करने वाले विदेशी प्राधिकरणों के साथ सूचनाएं साझा करने पर सहमत हो गई है।”
एम्मा अपने लेख में लिखती हैं:
”स्विस बैंक काफी समय से उस अलिखित संहिता का पालन करते हैं जिसका डॉक्टर या पादरी करते हैं। बैंकर्स सार्वजनिक रुप से अपने ग्राहक को नहीं पहचानते, इस भय से कि इससे उनके खाताधारक होने का राज खुल जाएगा: अक्सर वे एक नाम का बिजनेस कार्ड रखते हैं बजाय बैंक या सम्पर्क विवरण के; और कम से कम 1990 के दशक तक वे कभी भी विदेशों में प्रचारित नहीं करते थे।…..”
दक्षिणपंथी स्विस पीपुल्स पार्टी बैंकिंग गोपनीय कानूनों के शिथिल होने को एक प्रकार का आत्मसमर्पण मानती है। पार्टी का मानना है कि यह आत्मसमर्पण ”न केवल ग्राहकों के साथ अपितु मूलभूत स्विस मूल्यों के साथ भी विश्वासघात है।”
एक बैंकर और स्विस पीपुल्स पार्टी के राजनीतिज्ञ थामस मट्टेर (Thomas Matter) इसे और साफ तीखे रूप से लिखते हैं : ”स्विस लोग स्वतंत्रता प्रेमी हैं; देश सदैव नागरिकों के लिए रहा है न कि इसका उल्टा।”
यद्यपि, वाशिंगटन, पेरिस और बर्लिन के भारी दवाब के चलते सन् 2009 में, देश का सबसे बड़ा बैंक यूबीएस चार हजार से अधिक अमेरिकी ग्राहकों के नाम अमेरिका को देने पर सहमत हुआ, 780 मिलियन अमेरिकी डॉलर का दण्ड इसलिए दिया कि उसने अमेरिकीयों की टैक्स से बचने में सहायता की थी। दो अन्य प्रमुख बैंकों -क्रेडिट सुइसे (Credit Suisse) और जूलियस बेअर (Julius Baer) ने भी अमेरिका में व्यवसाय में लगे अपने कर्मचारियों सम्बन्धी सूचनाएं वाशिंगटन को सौंपी जबकि क्रेडिट सुइसे ने भारी जुर्माने के लिए अपने खातों में प्रावधान किया।
हालांकि ज्यूरिख और जेनेवा, स्विटजरलैण्ड के मुख्य आर्थिक केन्द्र हैं, देश के बैंकिंग उद्योग की जड़ें संक्ट गालन (St. Gallen) शहर में हैं। हाल ही तक संक्ट गालन, स्विटजरलैण्ड के प्राचीनतम निजी बैंक बेगेलिन एण्ड कम्पनी (Wegelin & Co½ का शहर था। सन् 2012 में अमेरिका के जस्टिस विभाग ने इसकी आलोचना करते हुए कहा कि इसके विदेशी खातों में अमीर अमेरिकीयों द्वारा टैक्स से बचाए गए कम से कम 1.2 बिलियन डालर छुपे हैं। इस वर्ष जनवरी में बैंक को दोषी ठहराया गया। बेगेलिन के अधिकारियों जिन्होंने पहले ही अपने सभी गैर-अमेरिकी व्यवसाय को एक दूसरे बैंक रेफेइसियन (Raifeissen) को बेच दिए थे, ने घोषित किया है कि जो कुछ उनके बैंक में बचा है, वे उसे भी समेट रहे हैं।
इस समूची स्विस बहस में ‘दोषी‘ – एक महत्वपूर्ण निर्णायक विन्दु है क्योंकि बगैर कुछ कहे, बेगेलिन के अधिकारियों ने अपने साथी और बैंकों को साफ-साफ संदेश दे दिया है। एक प्रमुख रूढ़िवादी राजनीतिज्ञ क्रिस्टिफ डारबेले (Christoph Darbellay) ने सार्वजनिक रूप से बेगेलिन अधिकारियों को ‘देशद्रोही‘ कहा है। यू.बी.एस. के चीफ एग्जिक्यूटिव सेरगिओ इरमोट्टी (Sergio Ermotti) ने कहा: जैसाकि एक दशक या उससे पहले तक जिस बैंक गोपनीयता को हम जानते थे, वह अब समाप्त हो गई है। संक्ट गालन बैंकर जिन्होंने बेगेलिन के गैर-अमेरिकी व्यवसाय को खरीदा है, कहते हैं : ”हम वास्तव में संक्रमणकालीन प्रक्रिया में हैं।”
रेफेसियन के मालिक पेइरिन विन्सेंज (Pierin Vincenz) ने रूढ़िवादियों से अलग अपनी बात रखते हुए कहा कि स्विटजरलैण्ड को अंतत: पारदर्शिता और वैश्विक मापदण्डों को अपनाना होगा। अधिकाधिक बैंक और बध्दिजीवीगण इस मत के साथ खड़े नजर आ रहे हैं। कालेधन के विरूध्द वैश्विक युध्द में यह बड़ा सहायक होगा। यही आशा की जा सकती है कि भारत इन घटनाओं का पूरा-पूरा लाभ उठाएगा।

श्याम धन पर केंद्र सरकार के श्वेत पत्र पर अपने ब्लॉग में लाल पीले हुए एल के अडवाणी

श्याम धन पर केंद्र सरकार ने संसद में बेशक श्वेत पत्र रख कर अपने ऊपर लगे काले दागों को धोने का प्रयास किया हो लेकिन इस संसदीय घटना के एक साल बीत जाने पर भी अवैध ढंग से विदेशों में जमाबिना किसी रंग के धन में से एक पैसा भी वापस देश में नही लाया जा सका है |इस निराशाजनक स्थिति पर लाल पीले होते हुए लाल कृषण आडवाणी ने अपने ब्लाग में राष्ट्रपति से हस्तक्षेप की मांग करते हुए एक बार फिर केंद्र सरकार के भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाने का प्रयास किया है|
प्रस्तुत है एन डी ऐ के पी एम् इन वेटिंग + वरिष्ठ पत्रकार एल के अडवाणी के ब्लॉग से
मई, 2012 में तत्कालीन वित्त मंत्री श्री प्रणव मुखर्जी ने काले धन पर एक श्वेत पत्र (White Paper) संसद में प्रस्तुत किया। इस श्वेत पत्र में यूपीए सरकार ने वायदा किया कि देश में काले धन के प्रचलन को नियंत्रित किया जाएगा, विदेशों के टैक्स हेवन्स में इसके अवैध हस्तांतरण को रोकने के साथ-साथ हमारी इस अवैध धनराशि को भारत वापस लाने के प्रभावी उपाय सुनिश्चित किए जाएंगे।
मई, 2013 इस महत्वपूर्ण दस्तावेज के प्रस्तुत करने की पहली वर्षगांठ है। अत: सर्वप्रथम यह जानना समीचीन होगा कि इस श्वेत पत्र को सरकार को क्यों लाना पड़ा और आज तक इस पर कार्रवाई के रूप में क्या कदम उठाए गए हैं।
पांच वर्ष पहले से, भाजपा लगातार काले धन के मुद्दे को मुखरित करती आ रही है। जब सन् 2008 में पहली बार इसे उठाया गया तब कांग्रेस पार्टी के प्रवक्ताओं ने इसकी खिल्ली उड़ाई थी। हालांकि 6 अप्रैल, 2008 को मैंने प्रधानमंत्री डॉ0 मनमोहन सिंह को सम्बोधित अपने पत्र मे मैंनें लिखा था:
हाल ही में, जर्मन सरकार ने अपने देश में टैक्स चोरी करने वालों के विरुध्द एक व्यापक जांच अभियान शुरु किया है, और इस प्रक्रिया में जर्मन गुप्तचर एजेंसियों को बताते हैं कि लीशेंस्टाइन के एलटीजी बैंक से उसके 1400 से अधिक ग्राहकों की गोपनीय जानकारी मिली है। इनमें से 600 जर्मनी के हैं और शेष अन्य देशों से सम्बंधित हैं।
इन रहस्योद्धाटनों से पहले ही डायचे पोस्ट-पूर्व जर्मनी मेल सर्विस-दुनिया में एक बड़ी लॉजिस्टिक कम्पनी-के प्रमुख का त्यागपत्र हो चुका है।
जर्मन वित मंत्रालय ने बताते हैं कि सार्वजनिक रुप से घोषणा की है कि वह किसी भी सरकार को यदि वे चाहती हैं तो बगैर किसी शुल्क के जानकारी उसे देने को तैयार हैं।
फिनलैण्ड, नार्वे और स्वीडन जैसे कुछ यूरोपीय देशों ने यह जानकारी पाने में पहले ही अपनी रुचि दिखाई है।
इन घटनाक्रमों के साथ-साथ, ऐसी भी रिपोर्ट आ रहीं हैं कि स्विटज़रलैण्ड पर यह दबाव भी बन रहा है कि वह टैक्स से चुरा कर उनके बैंको में जमा कालेधन को एक अपराध माना जाए और वह ऐसे धन का पता लगाने के लिए अन्य देशों से सहयोग करने हेतु अपने आंतरिक नियमों को बदले।
मैं मानता हूं कि भारत सरकार अपनी उपयुक्त एजेंसियों के माध्यम से जर्मन सरकार से अनुरोध करे वह एलटीजी के ग्राहकों का डाटा हमें बताए। हमारी सरकार को यूरोपीय सरकारों द्वारा स्विट्ज़रलैण्ड तथा अन्य टैक्स हेवन्स विशेषकर अन्य देशों से सम्बंधित जमा राशि की बैंकिग पध्दति में और ज्यादा पारदर्शिता लाने के संभावित आगामी कदमों को समर्थन देना चाहिए।
यदि हम जर्मनी से एलटीजी ग्रुप के ग्राहकों का सम्बंधित डाटा मांगते हैं तो यह हमारी उस स्थिति को पुन: मजबूत करेगा कि हम उन राष्ट्रों के समुदाय के जिम्मेदार सदस्य हैं जो वित्तीय प्रामाणिकता और पारदर्शी नियमों के पक्षधर हैं। यह भविष्य में, इन टैक्स हेवन्स की कार्यप्रणाली से कुछ अवांछनीय पहलुओं को समाप्त कर वैश्विक वित्तिय प्रणाली को स्वच्छ बनाने में हमारी सहभागिता का मार्ग प्रशस्त करेगा।
सम्भवत: प्रधानमंत्री के निर्देश पर वित्त मंत्री श्री चिदम्बरम ने मई, 2008 में इसके उत्तर में लिखा कि उनकी सरकार इस मुद्दे पर जर्मनी के टैक्स ऑफिस से सम्पर्क कर प्रयास कर रही है।
मार्च, 2010 में मैंने इस विषय पर लिखे अपने ब्लॉग में लीशेंस्टाइन के एलटीजी बैंक प्रकरण की याद दिलाते हुए सरकार से आग्रह किया था कि वह औपचारिक रुप से काले धन पर एक विस्तृत श्वेत पत्र प्रकाशित करे।
इस बीच भाजपा ने इस विषय के अध्ययन हेतु एक चार सदस्यीय टास्क फोर्स (कार्यदल) का गठन किया। विभिन्न स्रोतों से प्राप्त सामग्री का अध्ययन करने के पश्चात् यह टास्क फोर्स इस निष्कर्ष पर पहुंची कि विदेशों में अवैध ढंग से जमा भारतीयों का धन अनुमानतया 25 लाख करोड़ से 70 लाख करोड़ रूपये के बीच होगा।
जब तक पश्चिमी प्रभुत्व वाली विश्व अर्थव्यवस्था अमेरिका और अन्य यूरोपीय देशों के लिए ठीक ठाक चल रही थी जब तक समूचे विश्व को लगता था कि इन टैक्स हेवन्स के बैंकिग गोपनीयता सम्बन्धी प्रावधानों से कोई दिक्कत नहीं है। उस समय ऐसा महसूस किया जाता था कि इन देशों के कानूनों के बारे में कुछ नहीं किया जा सकता। लेकिन विश्व अर्थव्यवस्था के संकट से न केवल राष्ट्रपति ओबामा अपितु ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी जैसे अनेक यूरोपीय देशों के रुख में बदलाव आया और उन्होंने एकजुट होकर इन देशों के बैंकिग गोपनीय कानूनों में बदलाव के लिए दृढ़ प्रयास किए।
सन् 2009 में वाशिंगटन ने यूबीएस जैसे स्विट्जरलैंड के बड़े बैंक को उन 4450 अमेरिकी ग्राहकों के नाम उद्धाटित करने पर बाध्य किया, जिन पर स्विट्ज़रलैंड में सम्पत्ति छिपाने का संदेह था।
सन् 2009 के लोकसभाई चुनावों में भाजपा ने काले धन को चुनावी मुद्दा बनाया। स्वामी रामदेव जैसे संन्यासियों ने अपने प्रवचनों में लगातार इसे प्रचारित किया। फाइनेंसियल टाइम्स में ”इंडियंस कर्स ऑफ ब्लैकमनी” शीर्षक से प्रकाशित लेख के लेखक रेमण्ड बेकर (निदेशक, ग्लोबल फाइनेंशियल इंटेग्रिटी) ने लिखा है कि: ”भारत ने दिखा दिया है कि यह मुद्दा मतदाताओं को छूता है। अन्य विकासशील लोकतंत्र के राजनीतिज्ञों को इसे ध्यान में रखना समझदारी होगी।”
अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों में आर्थिक संकट ने इन देशों को इस तथ्य के प्रति सचेत किया कि भ्रष्टाचार, काला धन इत्यादि न केवल राष्ट्र विशेष की समस्या है अपितु यह दुनिया के लोकतंत्र, कानून के शासन और सुशासन के लिए भी चुनौती है। इसलिए सन् 2004 में संयुक्त राष्ट्र के ड्रग्स और क्राइम कार्यालय (United Nations Office on Drugs and Crime) द्वारा भ्रष्टाचार के विरुध्द एक विस्तृत कन्वेंशन औपचारिक रुप से अंगीकृत किया गया था। 56 पृष्ठीय दस्तावेज में संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्कालीन महासचिव श्री कोफी अन्नान की सशक्त प्रस्तावना थी, जो कहती है:
भ्रष्टाचार एक घातक प्लेग है जिसके समाज पर बहुव्यापी क्षयकारी प्रभाव पड़ते हैं:
इससे लोकतंत्र और कानून का शासन खोखला होता है।
मानवाधिकारों का हनन होता है।
बाजार का विकृतिकरण।
जीवन की गुणवत्ता का क्षय होता है, और
संगठित अपराध, आतंकवाद और मानव सुरक्षा के प्रति खतरे बढ़ते हैं।
भ्रष्टाचार के विरुध्द इस कन्वेंशन के अनुच्छेद 67 के मुताबिक संयुक्त राष्ट्र के सभी सदस्य देश दिसम्बर, 2005 तक इसे स्वीकृति देंगे, तत्पश्चात् शीघ्र ही सम्बंधित देश इसे पुष्ट करेंगे और स्वीकृति पत्र संयुक्त राष्ट्र के महासचिव के पास जमा कराएंगे।
सन् 2010 में यूपीए सरकार ने इस मुद्दे को औपचारिक रुप से ध्यान में लेते हुए उस वर्ष के संसद के बजट सत्र में होने वाले राष्ट्रपति के पारम्परिक अभिभाषण में इसका उल्लेख करते हुए कहा ”भारत कर सम्बंधी सूचना के आदान-प्रदान को सुगम बनाने तथा कर चोरी की सुविधा देने वाले क्षेत्रों के खिलाफ कार्रवाई करने सम्बन्धी वैश्विक प्रयासों में सक्रिय भागीदारी निभा रहा है।”
सन् 2011 के अंतिम महीनों में भाजपा द्वारा आयोजित जन चेतना यात्रा ने तीन मुद्दों पर जोर दिया: महंगाई, भ्रष्टाचार और काला धन। सन् 2008 के कामॅनवेल्थ खेलों, भ्रष्टाचार और मंहगाई मीडिया के साथ-साथ संसद में सभी राजनीतिक चर्चाओं में प्रमुख स्थान पर रहे, परन्तु मैंने पाया कि यात्रा के दौरान जब भी मैं सभाओं को सम्बोधित करता था तो काले धन के मुद्दे पर जनता की प्रतिक्रिया बहुत ज्यादा अनुकूल रहता था।
सन् 2011 की जनचेतना यात्रा मेरी अब तक की यात्राओं की कड़ी में ताजा यात्रा थी। चालीस दिनों तक यह चली। देश के प्रत्येक प्रदेश और सभी संघ शासित प्रदेशों में मुझे जाने का अवसर मिला। आम धारणा है कि 1990 की मेरी पहली यात्रा-सोमनाथ से अयोध्या तक की, जो समस्तीपुर में रुक गई थी-को सर्वाधिक समर्थन मिला। अक्सर यह भी कहा जाता है कि इतना उत्साह इसलिए उमड़ा कि उसका मुद्दा मुख्य रुप से धार्मिक यानी राम मंदिर था। लेकिन मैं यहां उल्लेख करना चाहूंगा कि मेरी दो यात्राएं-1997 की स्वर्ण जयंती रथ यात्रा और 2011 की जन चेतना यात्रा को अभी तक सर्वाधिक समर्थन मिला है। ये दोनों सुशासन और लोगों की आर्थिक भलाई से जुड़ी थीं!
16 मई, 2012 को संसद में कालेधन पर प्रस्तुत श्वेत पत्र के आमुख में वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने स्वीकार किया कि 2011 में ”भ्रष्टाचार और कालेधन के मुद्दों पर जनता की आवाज सामने आई।”
अपनी प्रस्तावना में श्री प्रणव मुखर्जी ने यह भी कहा:
”मुझे अत्यन्त प्रसन्नता होती यदि मैं उन तीनों प्रमुख संस्थानों जिन्हें काले धन की मात्रा और आकार पता लगाने के लिए कहा गया है, की रिपोर्टों के निष्कर्षों को भी इस में शामिल कर पाता। ये रिपोटर् इस वर्ष के अंत तक मिलने की उम्मीद है। फिर भी मैंने इस दस्तावेज को इसलिए रखा है कि संसद में इस हेतु आश्वासन दिया गया था।”
प्रणव दा ने इस श्वेत पत्र को इसलिए प्रस्तुत किया कि भाजपा ने इसकी मांग की थी, उन्होंने स्वीकारा:
”इसमें कोई संदेह नहीं कि हमारे जीवन के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्र में काले धन के प्रस्फुटीकरण का असर शासन के संस्थानों और देश में जननीति के संचालन पर पड़ता है। प्रणाली में शासन का अभाव और भ्रष्टाचार गरीबों को ज्यादा प्रभावित करता है। समावेशी विकास रणनीति की सफलता मुख्य रुप से हमारे समाज से भ्रष्टचार की बुराई के खात्मे और काले धन को जड़ से उखाड़ फेंकने की क्षमता पर निर्भर करती है।”
मुझे दु:ख है कि श्वेत पत्र पर कार्रवाई निराश करने वाली है।
उन तीन प्रमुख संस्थानों ने जिन्हें कालेधन की मात्रा पर रिपोर्ट देनी थी, ने अभी तक अपनी रिपोटर् नहीं सौपी हैं। न केवल अमेरिका, जर्मनी जैसे अधिक शक्तिशाली राष्ट्रों अपितु नाइजीरिया, पेरु और फिलीपीन्स जैसे छोटे देश भी टैक्स हेवन्स से अपनी अवैध लुटी सम्पत्ति को वापस पाने में सफल रहे हैं। दूसरी तरफ, भारत में हमें कुछ रिपोटर् देखने को मिली हैं जिनमें वे नाम हैं जिन पर स्विस बैंकों या ऐसे अन्य टैक्स हेवन्स में खाते रखने का संदेह है। लेकिन यह सुनने को नहीं मिला है कि अवैध ढंग से विदेशों में ले जाए धन में से एक पैसा भी वापस देश में लाया जा सका है।
श्री प्रणव मुखर्जी जो श्वेत पत्र प्रस्तुत करने के समय की तुलना में आज, ज्यादा निर्णायक भूमिका में हैं, से मैं अनुरोध करता हूं कि वे श्वेतपत्र में जनता से किए गए वायदे को सरकार द्वारा अक्षरश: पूरा करवाएं।

एल के अडवाणी के ब्लाग से:ईश्वर के संयोग

एन डी ऐ के पी एम् इन वेटिंग और वरिष्ठ पत्रकार लाल कृषण आडवाणी ने अपने एक ब्लाग के पाश्च्य लेख[टेल पीस] में दो अमेरिकन राष्ट्रपतियों के जीवन में अनेकों रोचक संयोग के माध्यम से ईश्वर के कार्य करने की प्रणाली का उल्लेख किया है|प्रस्तुत है एल के आडवाणी के ब्लाग से:
अब्राहम लिंकन जॉन ऍफ़ कैनेडी
कांग्रेस में चयन १८४६ १८४६ १९४६
राष्ट्रपति के पद पर चयन १८६० १९६०
सिविल राईट्स से सम्बन्ध हाँ हाँ
पत्नी ने व्हाईट हाउस में बच्चा खोया हाँ हाँ
मृत्यु शुक्रवार शुक्रवार
गोली मारी गई सर में सर में
सचिव का नामांकरण कैनेडी लिंकन
किसने मारा दक्षिण वासी दक्षिण वासी
उत्तराधिकारी दक्षिण वासी एंड्रयू जॉनसन दक्षिण वासी ल्यंदों जॉनसन

[१]उपरोक्त के अतिरिक्त दोनों कातिल तीन नामों से जाने जाते हैं और दोनों के नामो में १५ अक्षर हैं|
[२] लिंकन को फोर्ड नामक थियेटर में गोली मारी गई जबकि कैनेडी को फोर्ड नामक कम्पनी की लिंकन कार में मारा गया| .
[३]लिंकन का हत्यारा थियेटर से भाग कर गौदाम में जा छुपा और कैनेडी के हत्यारे ने गौदाम से गोली चला कर थियेटर में शरण ली
उपरोक्त संयोगों के माध्यम से ब्लॉगर आडवाणी ने अल्बर्ट आइंस्टीन के हवाले से कहा है कि संयोगों के चमत्कार को उत्पन्न करके स्वयम को गुमनाम रखने की ईश्वर की यह अपनी ही कार्यप्रणाली है
Albert Einstein once remarked Coincidence is God’s वे of remaining anonymous.

एल के अडवाणी के ब्लाग से :अगले ईस्टर पर भाजपा का पुनः जन्म Reincarnation of B J P On Easter

एन डी ऐ के पी एम् इन वेटिंग और वरिष्ठ पत्रकार एल के आडवाणी ने ईसाईयों के प्रभु यीशु के पुर्नजन्म से जुड़े पवित्र त्यौहार ईस्टर संडे से अपनी पार्टी भाजपा को जोड़ते हुए आगामी चुनावों में अपनी पार्टी के पंर जन्म के संकेत दिए हैं|उन्होंने अपने ब्लॉग में भाजपा के इतिहास का उल्लेख करते हुए बताया है कि प्रभु यीशु को गुड फ्राइडे को सलीब पर चडा कर मानवता का अपमान किया गयाथा उसके ठीक दो दिन बाद के सन्डे [ईस्टर]को प्रभु का पुनः जन्म हुआ और पीड़ित जनता की खुशियाँ लौटी| जैसे पवित्र ईस्टर का त्यौहार एक निश्चित तिथि पर नहीं मनाया जाता ठीक उसी प्रकार देश में एलेक्शन भी अलग अलग तिथियों में कराये जाते हैं| इमरजेंसी के काले युग को समाप्त करने के लिए ६ अप्रैल १९८० को भाजपा का पुनर जन्म हुआ और अब आगामी वर्ष में भी Easter के आस पास ही चुनाव होने के संभावना जताई जा रही है|[Reincarnation of B J P ]
प्रस्तुत है एल के अडवाणी के ब्लॉग से :
गत् रविवार 31 मार्च, 2013 ईस्टर सण्डे (रविवार) था- एक अत्यन्त महत्वपूर्ण ईसाई त्योहार। जार्जियन कैलेण्डर के मुताबिक जबकि अन्य सभी ईसाई त्योहार प्रत्येक वर्ष एक निश्चित दिन पर पड़ते हैं परन्तु ईस्टर एक ऐसा त्योहार है जो प्रत्येक वर्ष विभिन्न तिथियों पर पड़ता है।
उदाहरण के लिए अगले वर्ष ईस्टर 20 अप्रैल, 2014 को मनाया जाएगा।
सन् 1980 में गठित भारतीय जनता पार्टी में हम लोगों के लिए ईस्टर सण्डे का विशेष महत्व है। 1980 में ईस्टर 6 अप्रैल के रविवार को पड़ा था जिस दिन नई दिल्ली में श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इसकी नींव रखी थी।
जून 1975 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने समाजवादी पार्टी नेता श्री राजनारायण की याचिका पर निर्णय देते हुए श्रीमती गांधी के लोकसभाई निर्वाचन को रद्द कर दिया था। प्रधानमंत्री श्रीमती गांधी चुनावी कदाचार की दोषी पाई गई थीं और उन्हें अगले 6 वर्षों तक कोई भी चुनाव लड़ने के अयोग्य कर दिया गया था।
इस गंभीर घटनाक्रम के बाद कांग्रेस सरकार ने आंतरिक गड़बड़ियों की आड़ में देश पर आपातकाल थोप दिया था। संविधान प्रदत्त सभी मूलभूत अधिकारों को निलम्बित कर दिया गया, विपक्षी दलों के एक लाख से ज्यादा कार्यकर्ता जेलों में डाल दिए गए और मीडिया का ऐसा दमन किया गया जो ब्रिटिश शासन में भी नहीं हुआ था। आपातकाल लगभग 20 महीने तक रहा।
मार्च, 1977 में जब अगले लोकसभाई चुनाव हुए तो भारतीय मतदाताओं ने स्वतंत्रता के पश्चात् पहली बार कांग्रेस पार्टी को नई दिल्ली की सत्ता से उखाड़ फेंका। उस समय के कांग्रेस (ओ) के अध्यक्ष श्री मोरारजी भाई देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी।
यद्यपि सन् 1952 के बाद से हुए सभी संसदीय चुनावों में एक प्रचारक या फिर एक प्रत्याशी के रूप में मैंने भाग लिया है परन्तु निस्संकोच मैं कह सकता हूं कि 1977 के चुनाव देश के राजनीतिक इतिहास में सर्वाधिक महत्वपूर्ण रहे हैं। किसी अन्य अवसर पर चुनावों के नतीजों पर भारतीय लोकतंत्र इतना दांव पर नहीं लगा था जितना इन चुनावों में था। यदि कांग्रेस पार्टी यह चुनाव जीत जाती तो भारत के बहुदलीय लोकतंत्र को समाप्त करने के घृण्श्निात षड़यंत्र-आपातकाल- को जनता की वैधता मिल जाती! इसी प्रकार, किसी और अन्य चुनाव में भी भारतीय मतदाताओं के लोकतांत्रिक विवेक की यह बानगी नहीं मिलती। मतदाताओं ने कांग्रेस पार्टी को बुरी तरह से दण्डित किया। पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली, उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे अनेक प्रदेशों में कांग्रेस को एक सीट भी नहीं मिली।
मोरारजी भाई सरकार ज्यादा नहीं चल पाई। अंदरूनी उठापठक के चलते 1979 में यह गिर गई। अगले लोकसभाई चुनाव 1980 में सम्पन्न हुए। जनता पार्टी के हम लोगों को साफ लगता था कि हम बुरी तरह हारेंगे। परन्तु इस उठापठक ने वास्तव में जनता पार्टी की शोचनीय हालत कर दी। सन् 1977 में 298 सीटें जीतने वाली जनता पार्टी 1980 में मात्र 31 सीटों पर सिमट कर रह गई। इन 31 सांसदों में से जनसंघ की संख्या सन् 1977 में 93 की तुलना में 16 रह गई।
1980 के चुनावों के शीघ्र पश्चात् जनता पार्टी की कार्यकारिणी की बैठक बुलाई गई जिसमें यह तय हुआ कि पार्टी की संगठनात्मक वृध्दि पर ज्यादा ध्यान दिया जाए। पार्टी कार्यकारिणी ने जनता पार्टी का सदस्यता अभियान चलाने का भी फैसला किया ताकि निर्धारित कार्यक्रम के मुताबिक पार्टी के चुनाव कराए जा सकें। मैं मानता हूं कि इसी निर्णय ने पार्टी के कुछ वर्गों को आशंकित कर दिया जिसे बाद में दोहरी सदस्यता विरोधी अभियान के रूप में जाना गया। यह अभियान जनसंघ के पूर्व सदस्यों के विरूध्द था जिनके बारे में आरोप लगाया गया कि वे केवल जनता पार्टी के सदस्य नहीं हैं अपितु राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के भी सदस्य हैं। यह सभी को विदित था कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक राजनीतिक दल नहीं है। यह ऐसा था कि किसी कांग्रेसी जो आर्यसमाजी भी है, पर दोहरी सदस्यता का आरोप लगाया जाए! शीघ्र ही यह कानाफूसी अभियान शुरू हो गया कि यदि पूर्व जनसंघियों को राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ से सम्बन्ध रखने दिया गया तो मुस्लिम मतदाता पार्टी से विलग हो जाएंगे।
दोहरी सदस्यता के मुद्दे पर हुए तीखे विवाद पर एक सही परामर्श प्रख्यात गांधीवादी और स्वतंत्रता-सेनानी अच्युत पटवर्धन ने दिया। उन्होंने 9 जून, 1979 को ‘इंडियन एक्सप्रेस‘ में ‘जनता, आर.एस.एस. ऐंड द नेशन‘ शीर्षक वाले लेख में लिखा-‘आपाताकल के विरूध्द जन-संघर्ष में महान् योगदान की क्षमता के कारण भारतीय जनसंघ को जनता पार्टी के प्रमुख घटक के रूप में शामिल किया गया था। आपातकाल की समाप्ति के बाद से अब तक जनसंघ और या संघ ने ऐसा क्या क्या किया, जिसने श्री मधु लिमये और श्री राजनारायण तथा उनके समर्थकों को इन्हें बदनाम करने का एक उग्र अभियान छेड़ने के लिए प्रेरित किया?
श्री वाजपेयी, श्री नानाजी देशमुख और मैंने इस दोहरी सदस्याता के अभियान का प्रखर विरोध किया। पार्टी की बैठकों में, मैंने कहा कि हमारे साथ पार्टी में ऐसा व्यवहार किया जा रहा है, जैसे मानों हम अस्पृश्य हों। मेंने आगे कहा:
‘जनता पार्टी के पांच घटक थे- कांग्रेस (ओ), भारतीय लोकदल, सोशलिस्ट पार्टी, सी.एफ.डी. और जनसंघ। राजनीतिक दृष्टि से कहें तो इनमें से पहले चार द्विज थे, जबकि जनसंघ की स्थिति हरिजन जैसी थी, जिसे परिवार में शामिल किया गया हो।
वर्ष 1977 में इसे पार्टी में स्वीकार करते समय काफी हर्षोल्लास था। पर समय बीतने के साथ परिवार में एक ‘हरिजन‘ की उपस्थिति ने समस्याएं शुरू कर दीं। ऐसा सोचने वाला मैं अकेला नहीं था बल्कि देश भर में पूर्ववर्ती जनसंघ के लाखों कार्यकर्ताओं और समर्थकों की गूंज इसमें शामिल थी। फरवरी-मार्च 1980 में जनसंघ के एक वरिष्ठ पदाधिकारी सुंदर सिंह भंडारी और मैंने देश भर का दौरा कर जमीनी स्तर पर जनता पार्टी के बारे में लोगों के विचार जानने के प्रयास किए। जहां भी हम गए, हमने पाया कि पूर्ववर्ती जनसंघ के कार्यकर्ताओं में इस बात को लेकर घोर आपत्ति थी कि पार्टी के भीतर उनके साथ दोयम दर्जे का व्यवहार क्यों किया जा रहा है।
जनता पार्टी के नेतृत्व ने दोहरी सदस्यता के मुद्दे पर अंतिम निर्णय करने के उद्देश्य से पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की 4 अप्रैल को बैठक बुलाई। इस बैठक से निकलने वाले नतीजों को भांप पर श्री वाजपेयी और नानाजी सहित हमने जनसंघ के पूर्व सदस्यों का एक सम्मेलन 5 और 6 अप्रैल, 1980 को बुलाया।
जैसाकि अपेक्षित था कि 4 अप्रैल को जनता पार्टी की कार्यकारिणी ने पूर्व जनसंघ के सभी सदस्यों को निष्कासित करने का फैसला लिया। अपनी आत्मकथा में मैंने उल्लेख किया है:
”जनसंघ के हम सभी सदस्यों को जनता पार्टी से निष्कासन का फैसला बड़ी राहत लेकर आया। 5 और 6 अप्रैल, 1980 के दो दिवसीय सम्मेलन ने स्फूर्तिदायक भावना और दृढ़ विश्वास जोड़ा।
दिल्ली के फिरोजशाह कोटला मैदान में 3,500 से अधिक प्रतिनिधि एकत्र हुए और 6 अप्रैल को एक नए राजनीतिक दल ‘भारतीय जनता पार्टी‘ (भाजपा) के गठन की घोषणा की गई। अटल बिहारी वाजपेयी को इसका पहला अध्यक्ष चुना गया। सिकंदर बख्त और सूरजभान के साथ मुझे महासचिव की जिम्मेदारी सौंपी गई।”
इस ब्लॉग की शुरूआत में मैंने ‘ईस्टर सण्डे‘ का संदर्भ दिया जिसे ईसाई दो दिन बाद पड़ने वाले गुडफ्राइडे को त्यौहार के रूप में मनाते हैं, माना जाता है कि इसी दिन यीशु पुनर्जीवित हुए थे। ईस्टर सण्डे को ईसा मसीह के पुनर्जीवित होने का दिन जाना जाता है।
हमारी पार्टी के सम्बन्ध में भी 1980 में गुड फ्राइडे के दिन जनता पार्टी के प्रस्ताव से हमें सूली पर चढ़ाया गया और ईस्टर सण्डे के दिन हम पुनर्जीवित हुए।

एल के आडवाणी के ब्लॉग से टेलपीस (पश्च्यलेख):प्रचार अभियान में फंसते वोटर्स

 एल के आडवाणी के ब्लॉग से टेलपीस (पश्च्यलेख):प्रचार अभियान में फंसते वोटर्स

एल के आडवाणी के ब्लॉग से टेलपीस (पश्च्यलेख):प्रचार अभियान में फंसते वोटर्स

एन डी ऐ के पी एम् इन वेटिंग एल के आडवाणी ने अपने ब्लॉग में एक बेहद पुराने चुटकले के माध्यम से वर्तमान राजनीतिक पार्टियों के चरित्र पर कटाक्ष किया है|प्रस्तुत है ब्लाग से उद्धत टेलपीस (पश्च्यलेख
एक व्यक्ति स्वर्ग पहुंचा और पर्ली गेट्स पर सेंट पीटर से मिला। सेंट पीटर ने कहा आज अलग बात है, तुम्हारे सम्मुख स्वर्ग या नरक का विकल्प खुला है; हम तुम्हें दोनों में एक-एक दिन देंगे और तुम अपनी पसंद बताओगे। अत: व्यक्ति ने कहा ठीक है और उसे नरक भेज दिया।
वह नरक पहुंचा और जहां तक उसकी नजरें जा सकती थीं वहां तक हरियाली थी। उसने बीयर का एक बड़ा पीपा, एक गोल्फ कोर्स और अपने पुराने जिगरी दोस्त देखे। उसने गोल्फ का एक राऊण्ड खेला, पीना-पिलाना हुआ और अपने जिगरी दोस्तों के साथ मौज मस्ती की। उसे लगा यह ठीक है।
बाद में वह स्वर्ग गया। उसने पाया कि वहां शांति है, आप बादलों से दूसरे बादलों पर कूद सकते हो और बीन बजा सकते हो।
दिन बीतते ही सेंट पीटर उसके पास पहुंचे और उससे उसकी पसंद के बारे में पूछा: बगैर रूके उसने कहा: ”मैं नरक जाना पसंद करूंगा।”
वह तुरंत नरक गया लेकिन वहां उसे गंदगी और लावा के सिवाय कुछ नहीं मिला। बीयर का पीपा नदारद था, और उसके जिगरी दोस्त भी कहीं नहीं थे।
वह शैतान पर चिल्लाया कि क्या हुआ? कल यह स्थान अद्भुत था। शैतान ने जवाब दिया, ”कल हम प्रचार अभियान चला रहे थे, आज आप ने वोट डाल दिया है।”

एल के अडवाणी के ब्लाग से :न्यायिक नियुक्तियों सम्बन्धी कॉलिजियम पध्दति इमरजेंसी से भी ज्यादा घातक

एन डी ऐ के पी एम् इन वेटिंग और वरिष्ठ पत्रकार लाल कृषण अडवाणी ने अपने ब्लॉग में वर्तमान न्यायिक नियुक्तियों सम्बन्धी कॉलिजियम पध्दति पर चिंता व्यक्त करते हुए इसे लोक तंत्र के लिए इमरजेंसी कल से भी ज्यादा घातक बताया है उन्होंने इस कॉलिजियम पध्दति की पुनरीक्षा की जरूरत पर बल दिया है|इस ब्लाग में श्री अडवाणी ने टेलपीस नही दिया है
प्रस्तुत है एल के अडवाणी के ब्लाग से एक वरिष्ठ पत्रकार की चिंता
भारत को स्वतंत्र हुए 65 से ज्यादा वर्ष हो गए हैं। यदि कोई मुझसे पूछे कि साढ़े छ: दशकों की इस अवधि में देश की सर्वाधिक बड़ी उपलब्धि क्या रही है, तो निस्संकोच मेरा जवाब होगा : लोकतंत्र।

एल के अडवाणी के ब्लाग से :न्यायिक नियुक्तियों सम्बन्धी कॉलिजियम पध्दति इमरजेंसी से भी ज्यादा घातक

एल के अडवाणी के ब्लाग से :न्यायिक नियुक्तियों सम्बन्धी कॉलिजियम पध्दति इमरजेंसी से भी ज्यादा घातक

हम गरीबी, निरक्षरता और कुपोषण पर विजय नहीं पा सके हैं। लेकिन पश्चिमी विद्वानों के प्रचंड निराशावाद के विपरीत 1947 के बाद से औपनिवेशिक दासता से मुक्त होने वाले देशों में विशेष रूप से भारत जीवंत और बहुदलीय लोकतंत्र बना हुआ है।
यह भी सत्य है कि 1975-77 के आपातकाल की अवधि के दो वर्ष का कालखण्ड एक काले धब्बे की तरह है, जब कानून का शासन, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और लोकतंत्र की अन्य जरूरी विशेषताओं पर ग्रहण लग गया था।
मेरा मानना है कि 1975 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय जिसने न केवल प्रधानमंत्री श्रीमती गांधी के चुनाव को अवैध करार दिया था अपितु उनके 6 वर्षों तक कोई भी चुनाव लड़ने पर रोक लगाई थी, की आड़ में सत्ता में बैठे लोगों ने हमारे संविधान निर्माताओं द्वारा प्रदत्त लोकतंत्र को ही समाप्त करने का गंभीर प्रयास किया।
पं. नेहरू द्वारा शुरू किये गये नई दिल्ली से प्रकाशित दैनिक समाचार-पत्र नेशनल हेराल्ड ने तंजानिया जैसे अफ्रीकी देशों में लागू एकदलीय प्रणाली की प्रशंसा करते हुए एक सम्पादकीय लिखा:
जरूरी नहीं कि वेस्टमिनिस्टर मॉडल सबसे उत्तम मॉडल हो और कई अफ्रीकी देशों ने इस बात का प्रदर्शन कर दिया है कि लोकतंत्र का बाहरी स्वरूप कुछ भी हो, जनता की आवाज का महत्व बना रहेगा। एक मजबूत केन्द्र की आवश्यकता पर जोर देकर प्रधानमंत्री ने भारतीय लोकतंत्र की शक्ति की ओर संकेत किया है। एक कमजोर केंद्र होने से देश की एकता, अखंडता और स्वतंत्रता की रक्षा को खतरा पहुंच सकता है। उन्होंने एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्रश्न उठाया है : यदि देश की स्वतंत्रता कायम नहीं रह सकती तो लोकतंत्र कैसे कायम रह सकता है?
दो सदियों के ब्रिटिश राज में भी अभिव्यक्ति के अधिकार को इतनी निर्ममता से नहीं कुचला गया जितना कि 1975-77 के आपातकाल के दौरान। 1,10,806 लोगों को जेलों में ठूंस दिया गया, जिनमें 253 पत्रकार थे।
इस सबके बावजूद यदि लोकतंत्र जीवित है तो इसका श्रेय मुख्य रूप से मैं दो कारणों को दूंगा: पहला, न्यायपालिका; और दूसरा मतदाताओं को जिन्होंने 1977 में कांग्रेस पार्टी को इतनी कठोरता से दण्डित किया कि कोई भी सरकार आपातकाल के प्रावधान का दुरूपयोग करने की हिम्मत नहीं कर पाएगी जैसा कि 1975 में किया गया।
सभी प्रमुख राजनीतिक नेताओं, सांसदों इत्यादि को आपातकाल में मीसा-आंतरिक सुरक्षा बनाए रखने वाले कानून-के तहत बंदी बना लिया गया था। इनमें जयप्रकाश नारायण के अलावा पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई, चन्द्रशेखरजी और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेता भी थे। कुल मिलाकर मीसाबंदियों की संख्या 34,988 थी। कानून के तहत मीसाबंदियों को कोई राहत नहीं मिल सकती थी।
सभी मीसाबंदियों ने अपने-अपने राज्यों के उच्च न्यायालयों में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर की हुई थी। सभी स्थानों पर सरकार ने एक सी आपत्ति उठाई: आपातकाल में सभी मौलिक अधिकार निलम्बित हैं और इसलिए किसी बंदी को बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर करने का अधिकार नहीं है। लगभग सभी उच्च न्यायालयों ने सरकारी आपत्ति को रद्द करते हुए याचिकाकर्ताओं के पक्ष में निर्णय दिए। सरकार ने इसके विरोध में न केवल सर्वोच्च न्यायालय में अपील की अपितु उसने इन याचिकाओं की अनुमति देने वाले न्यायाधीशों को दण्डित भी किया। अपने बंदीकाल के दौरान मैं जो डायरी लिखता था उसमें मैंने 19 न्यायाधीशों के नाम दर्ज किए हैं जिनको एक उच्च न्यायालय से दूसरे उच्च न्यायालय में इसलिए स्थानांतरित किया गया कि उन्होंने सरकार के खिलाफ निर्णय दिया था!
16 दिसम्बर, 1975 की मेरी डायरी के अनुसार:
सर्वोच्च न्यायालय मीसाबन्दियों के पक्ष में दिये गये उच्च न्यायालय के फैसलों के विरूध्द भारत सरकार की अपील सुनवाई कर रहा है। इसमें हमारा केस (चार सांसद जो एक संसदीय समिति की बैठक हेतु बंगलौर गए थे लेकिन उन्हें वहां बंदी बना लिया गया) भी है। न्यायमूर्ति खन्ना ने निरेन डे से पूछा कि : संविधान की धारा 21 में केवल व्यक्तिगत स्वतंत्रता नहीं बल्कि जिंदा रहने के अधिकार का भी उल्लेख है। क्या महान्यायवादी का यह भी अभिमत है कि चूंकि इस धारा को निलंबित कर दिया गया है और यह न्यायसंगत नहीं है, इसलिए यदि कोई व्यक्ति मार डाला जाता है तो भी इसका कोई संवैधानिक इलाज नहीं है? निरेन डे ने उत्तर दिया कि : ”मेरा विवेक झकझोरता है, पर कानूनी स्थिति यही है।”
यहां यह विशेष उल्लेखनीय है कि सर्वोच्च न्यायालय के अधिकांश न्यायाधीशों ने बाद में स्वीकारा कि उक्त कुख्यात केस में फैसला गलत था। इनमें से कई ने सार्वजनिक रूप् से अपने विचारों को प्रकट किया।
सन् 2011 में, सर्वोच्च न्यायालय ने औपचारिक रुप से घोषित किया कि सन् 1976 में इस अदालत की संवैधानिक पीठ द्वारा अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला केस में दिया गया निर्णय ”त्रुटिपूर्ण‘ था, चूंकि बहुमत निर्णय ”इस देश में बहुसंख्यक लोगों के मूलभूत अधिकारों का उल्लंघन करता है,” और यह कि न्यायमूर्ति खन्ना का असहमति वाला निर्णय देश का कानून बन गया है।
इन दिनों देश में सर्वाधिक चर्चा का विषय भ्रष्टाचार है। एक समय था जब भ्रष्टाचार की बात कार्यपालिका-राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों के संदर्भ में की जाती थी। कोई भी न्यायपालिका में भ्रष्टाचार की बात नहीं करता था, विशेषकर उच्च न्यायपालिका के बारे में तो नही ही।
परन्तु हाल ही के वर्षों में इसमें बदलाव आया है। सर्वोच्च न्यायालय की एक पूर्व न्यायाधीश रूमा पाल ने नवम्बर, 2011 में तारकुण्डे स्मृति व्याख्यानमाला में बोलते हुए ”न्यायाधीशों के सात घातक पापों” को गिनाया। इनमें भ्रष्टाचार भी एक था।
अपने भाषण में उन्होंने कहा कि यह मानना कि आजकल न्यायपालिका में भ्रष्टाचार है, भी ”न्यायपालिका की स्वतंत्रता की विश्वसनीयता के लिए उतना ही हानिकारक है जितना कि भ्रष्टाचार।”
मैं अक्सर इस पर आश्चर्य व्यक्त करता हूं कि यदि जून 1975 जैसी स्थिति आज देखने को मिले तो न्यायपालिका की प्रतिक्रिया कैसी होगी। क्या उच्च न्यायालयों के कम से कम 19 न्यायाधीश मीसाबंदियों के पक्ष में निर्णय कर कार्यपालिका की नाराजगी मोल लेने का साहस जुटा पाएंगे? सचमुच में मुझे संदेह है।
कालान्तर में, चयनित न्यायाधीशों के स्तर के सम्बन्ध में काफी बदलाव आया है जब रूमा पाल ने न्यायाधीशों के सात पापों के बारे में बोला तो, स्वयं एक सम्मानित न्यायविद् होने के नाते उन्होंने अपने भाषण में जानबूझकर यह चेतावनी जोड़ी कि वह ”सेवानिवृत्ति के बाद सुरक्षित” होकर बोल रही हैं।
वर्तमान में, न्यायिक नियुक्तियों और न्यायाधीशों के तबादले – भारत के मुख्य न्यायाधीश और सर्वोच्च न्यायालय के चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों की एक समिति जिसे ‘कॉलिजियम‘ कहा जाता है, द्वारा किए जाते हैं। इस कॉलिजियम प्रणाली की जड़ें तीन न्यायिक फैसलों (1993, 1994 और 1998) में निहित हैं। इनमें से पहला और दूसरा निर्णय भारत के मुख्य न्यायाधीश रहे न्यायमूर्ति जे.एस. वर्मा ने दिया। फ्रंटलाइन पत्रिका (10 अक्तूबर, 2008) को दिए गए एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा ”सन् 1993 का मेरा निर्णय जिसका हवाला दिया जाता है को बहुत ज्यादा गलत समझा गया, दुरूपयोग किया गया। यह उस संदर्भ में कहा गया कि कुछ समय से निर्णयों की कार्यपध्दति के बारे में जो गंभीर प्रश्न उठ रहे हैं उन्हें गलत नहीं कहा जा सकता। इसलिए पुनर्विचार जैसा कुछ होना चाहिए।”
सन् 2008 में, विधि आयोग ने अपनी 214वीं रिपोर्ट में विभिन्न देशों की स्थितियों का विश्लेषण करते हुए कहा: ”अन्य सभी संविधानों में न्यायाधीशों की नियुक्ति में या तो कार्यपालिका एकमात्र प्राधिकरण्ा है या कार्यपालिका मुख्य न्यायाधीशों की सलाह से न्यायधीशों की नियुक्ति करती है। भारतीय संविधान दूसरी प्रणाली का अवलम्बन करता है। हालांकि, दूसरा निर्णय कार्यपालिका को पूर्णतया विलोपित अथवा बाहर करता है।”
‘फ्रंटलाइन‘ में प्रकाशित न्यायमूर्ति वर्मा के साक्षात्कार को उदृत करते हुए विधि आयोग लिखता है: ”भारतीय संविधान अनुच्छेद 124 (2) और 217(1) के तहत नियंत्रण और संतुलन की सुंदर पध्दति का प्रावधान करता है कि सर्वोच्च न्यायालयों और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति में कार्यपालिका और न्यायपालिका की संतुलित भूमिका का उल्लेख है। यही समय है कि अधिकारों के संतुलन का वास्तविक स्वरुप पुर्नस्थापित किया जाए।”
हम, विश्व का सर्वाधिक बड़ा लोकतंत्र हैं जिसमें स्वाभाविक रुप से आशा की जाती है कि कम से कम उच्च न्यायिक पदों से जुड़ी नियुक्तियां पारदर्शी, निष्पक्ष और योग्यता आधारित पध्दति से हों। तारकुण्डे स्मृति व्याख्यानमाला में न्यायमूर्ति रुमा पाल ने टिप्पणी की कि ”सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया देश में सर्वाधिक रुप में गुप्त रखे जाने वाला विषय है।”
उन्होंने कहा कि ”इस प्रक्रिया की ‘रहस्यात्मकता‘ जिस छोटे से समूह से यह चयन किया जाता है और बरती जाने वाली ‘गुप्तता और गोपनीयता‘ सुनिश्चित करती है कि ‘अवसरों पर प्रक्रिया में गलत नियुक्तियां हो जाती हैं और इससे ज्यादा अपने आप को भाईभतीजावाद में फंसा देती हैं।”
वे कहती हैं कि एक अविवेकपूर्ण टिप्पणी या अनायास अफवाह ही पद के लिए किसी व्यक्ति की दृष्टव्य सुयोग्यता को बाहर कर सकती है। उनके अनुसार मित्रता और एहसान कभी-कभी अनुशंसाओं को सार्थक बना देते हैं।