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Tag: L K Advani ‘s Blog

अडवाणी घर बैठे ही इतिहास की खोदाई में लगे हैं और रोज अस्थि पंजर निकाल कांग्रेसियों को जवाब देने को मजबूर कर रहे हैं

झल्ले दी झल्लियां गल्लां

उत्साहित भाजपाई

ओये झल्लेया एवेंए लोगी हसाडे लाल कृषण अडवाणी जी को बुड्डा कह रहे हैं देख तो आजकल उन्होंने कांग्रेसियों की साँसे फुला दी हैं|बेशक नरेंदर भाई मोदी भाजपा की रैलियों में अपनी ताकत दिखा रहे हैं लेकिन हसाडे डड्डा आडवाणी तो घर बैठे बैठे ही अपने ब्लॉग से अपने सरदार वल्ल्भ भाई पटेल और कांग्रेसियों के जवाहर लाल नेहरू में विवाद की बात उठा कर तहलका मचा रहे हैं| हैदराबाद और अब जे & के में नेहरू की असफल पालिसी को उजागर करके रख दिया है|पहले ब्लॉग में उन्होंने नौकरशाह एम् के के नायर की किताब का हवाला दिया तो सूचना एवं प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी ने नाक भोएं सिकोड़ी इस पर अब डड्डा ने नेट पर उपलब्ध रीडिफ़ के हवाले से फील्ड मार्शल सैम शा के इंटरव्यू में से जे & के कांग्रेसी नीतियों को भी खोल कर रख दिया है

झल्ला

वाकई कांग्रेसी साधू+स्वामी+संत+महात्मा [जो भी कहों] के आदेश से उन्नाव के किले की खोदाई से खजाना तो निकला नहीं हां आपजी के अडवाणी की इतिहास की खोदाई में जरुर ऐतिहासिक अस्थि पंजर मिल रहे हैं और ये अस्थि पंजर ऐसे हैं कि जिन पर कांग्रेसी मनीष तिवारी तक को भी जवाब देना पड़ रहा है |इसीलिए कहा जाता है कि घर की बारात में एक बुजुर्ग का होना लाजमी है वक्त -बेवक्त बड़े काम आता है

शिरोमणि अकाली दल को समाप्त करने के लिए भारत सरकार ने ही पंजाब में जरनैल सिंह भिंडर वाले को प्रोमोट किया था

शिरोमणि अकाली दल को समाप्त करने के लिए भारत सरकार ने ही पंजाब में जरनैल सिंह भिंडर वाले को प्रोमोट किया था भाजपा के वयोवृद्ध नेता और पत्रकार लाल कृषण आडवाणी ने अपने ब्लॉग में कांग्रेस की डिवाइड एंड रूल की नीतियों को उजागर करते हुए जरनैल सिंह भिंडरवाले का उदहारण दिए| अपने नए ब्लॉग के पश्च्य लेख में बी बी सी के मार्क तुली +सतीश जैकब की किताब अमृतसर मिसेस गाँधी लास्ट बैटल [ AMRITSAR Mrs. Gandhi’s Last Battle. ]और शेखर कपूर के डोकुमेंट्री सीरियल प्रधान मंत्री के हवाले से बताया है के पंजाब में शिरोमणि अकाली दल को समाप्त करने के लिए जरनैल सिंह भिंडर वाले और उनके पंथ को भारत सरकार ने ही प्रोमोट किया था|उन्होंने बताया के भिंडर वाले का रुतबा इतना बड गया के पोलिस स्टेशन में ठाणे दार भी भिंडर वाले के आदेश का पालन करने से इंकार करने की हिम्मत नही करते थे|

Swatantryaveer Savarkar was not arrested on the charge of Gandhi;s Assassination But detained under the British Black Preventive Detention Act

N D A’s P M In Waiting and senior Journalist L K Advani said that Swatantryaveer Savarkar was not arrested on the charge of Gandhi;s Assassination But Savarkar was detained under the British Black Preventive Detention Act. In The TAILPIECE of His new blog L K Advani has disclosed this fact. Blogger Advani Said “Before reading this book [The Men Who Killed Gandhi] I did not know that when Savarkar was arrested by the police shortly after Gandhiji’s assassination on January 30, 1948, it was an arrest made under the Preventive Detention Act, “one of the most malignant pieces of legislation with which the British had armed themselves when they ruled India.”
The Bombay police first raided Savarkar’s “residence near Shivaji Park, seized all his private papers, consisting of 143 files and as many as 10,000 letters.
Author Of The Book Malgonkar comments : “There was no evidence at all. What was known (from those papers) was the affiliation of the conspirators to the Hindu Mahasabha and their personal veneration for Savarkar.
The author concludes:
He was sixty-four years old, and had been ailing for a year or more. He was detained on 6 February 1948, and remained in prison for the whole of the year which the investigation and the trial took. He was adjudged ‘not guilty’ on 10 February 1949. The man who had undergone twenty-six years of imprisonment or detention under the British for his part in India’s struggle for freedom was thus slung back into jail for another year the moment that freedom came.”

अडवाणी ने थल सेना अध्यक्ष का अभिनन्दन किया और एल ओ सी पर गलत बयानी के लिए मंत्रियों की आलोचना भी की : सीधे एल के अडवाणी के ब्लाग से

भारतीय जनता पार्टी[भाजपा]के पी एम् इन वेटिंग और वरिष्ठ पत्रकार लाल कृषण अडवाणी ने, सेना के नियंत्रण रेखा (एल.ओ.सी.) पर दिए प्रेस बयान की पुष्टि और रक्षामंत्री के वक्तव्य में विशेष रूप से इसे शामिल करवाने के लिए, थल सेना अध्यक्ष बी के सिंह को बधाई दी है लेकिन इसके साथ ही रक्षा मंत्री ऐ के अंटोनी द्वारा संसद में बयानों की गड़ बड़ी के लिए क्षमा याचना की आशा भी व्यक्त की है| प्रस्तुत है सीधे एल के अडवाणी के ब्लाग से :
गत् सप्ताह 6 अगस्त को विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद ने संसद में हमारे चार नेताओं -राजनाथ सिंह, सुषमा स्वराज, अरूण जेटली और मुझे सूचित किया कि प्रधानमंत्री हमसे उस विषय पर विचार-विमर्श करना चाहते हैं जिसका उन्होंने अपनी बंगलादेश यात्रा पर जाने से पूर्व संक्षिप्त रूप से संदर्भ दिया था। यानी दोनों देशों के बीच सीमा समझौता। इस मुद्दे के संदर्भ में, बाद में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन ने जसवंत सिंह और यशवंत सिन्हा सहित पश्चिम बंगाल और असम से अन्य अनेक नेताओं के एक बड़े भाजपा समूह के सामने सम्बन्धित तथ्यों को रखा था।
प्रधानमंत्री के साथ हमारी बैठक के निर्धारित समय सायं साढ़े पांच बजे से कुछ मिनट पूर्व मैं रेसकोर्स रोड पहुंच गया, लगभग उसी समय ए.के. एंटोनी भी पहुंचे। मैंने उन्हें बताया कि प्रधानमंत्री ने भाजपा नेताओं को बंगलादेश से सटे एनक्लेव्स के मुद्दे पर विचार-विमर्श हेतु बुलाया है। मैंने पूछा कि क्या वह भी इसी मुद्दे पर होने वाली बैठक में आए हैं। उन्होंने साफ कहा कि उन्हें ‘बुलाया‘ गया है परन्तु उन्हें विषय के मामले में पता नहीं है।
यह उस दिन की बात है जिस दिन पाक सैनिकों और पाक प्रशिक्षित आतंकवादियों ने नियंत्रण रेखा (एल.ओ.सी.) पर हमारे पांच जवानों की हत्या की थी। यह उस दिन सुबह सेना के जारी प्रेस वक्तव्य में कहा गया था। हालांकि उस दिन दोपहर बाद सदन में वक्तव्य देते हुए रक्षा मंत्री ने उस घटना के बारे में सेना द्वारा दिए गए ब्यौरे को इस तरह से बदला कि इन हत्याओं का आरोप सिर्फ आतंकवादियों पर लगा। इस वक्तव्य ने न केवल संसद को क्रोधित किया अपितु शहीद जवानों के परिवारों को भी इस हद तक नाराज किया कि एक जवान की विधवा ने सरकार द्वारा प्रस्तावित 10 लाख रूपये के मुआवजे को भी लेने से मना कर दिया। एक समाचारपत्र की रिपोर्ट के मुताबिक विजय राय की पत्नी पुष्पा राय ने अपनी मनोव्यथा व्यक्त करते हुए कहा, ”क्या 10 लाख रूपये का मुआवजा मेरे पति को वापस ला सकता है? हमें मुआवजा नहीं चाहिए बल्कि पाकिस्तान के खिलाफ सख्त सैन्य कार्रवाई चाहिए।”
प्रधानमंत्री के साथ हमारी बैठक में न केवल सलमान खुर्शीद अपितु ए.के. एंटोनी भी मौजूद थे। बंगलादेश एनक्लेव्स और नियंत्रण रेखा पर पाकिस्तानी हमले -दोनों मुद्दों पर विचार-विमर्श हुआ। हमने दोनों मुद्दों पर दृढ़ता से अपना पक्ष रखा।
बंगलादेश सम्बन्धी मुद्दे पर हमने प्रधानमंत्री को बताया कि इस प्रस्ताव पर हमारी राज्य इकाइयों का मुखर विरोध है, इसलिए हम इस पर राजी नहीं हैं।
पाकिस्तान द्वारा हमारे जवानों के कत्लेआम पर भी हमारी इसी प्रकार की दृढ़ प्रतिक्रिया थी। प्रधानमंत्री के साथ इसी बैठक में उस दिन के रक्षा मंत्री के वक्तव्य के बारे में मैंने एक कठोर शब्द ‘गड़बड़ करना‘ उपयोग किया। मेरे मन में सदैव ए.के. एंटोनी के लिए गर्मजोशी और सम्मान रहा है। इसलिए उस दिन के उनके वक्तव्य पर मैं सचमुच काफी हैरान था। बाद में मुझे ज्ञात हुआ कि प्रधानमंत्री कार्यालय ने सलमान खुर्शीद को रक्षामंत्री से सेना के बयान को बदलने को राजी किया।
रेसकोर्स रोड की इस बैठक में यह सहमति बनी कि सेनाध्यक्ष से पूरे घटनाक्रम की जानकारी लेने के बाद अगले दिन रक्षा मंत्री एक संशोधित बयान देंगे। सेनाध्यक्ष जम्मू गए ताकि वे घटना की जानकारी स्वयं ले सकें। हमने कहा कि हम संशोधित वक्तव्य की प्रतीक्षा करेंगे।
मैं सेनाध्यक्ष को बधाई देना चाहूंगा कि उन्होंने सेना के प्रेस बयान की न केवल पुष्टि की अपितु रक्षामंत्री के वक्तव्य में विशेष रूप से यह शामिल करने में सफलता पाई कि ”इस हमने में पाकिस्तानी सेना से विशेष प्रशिक्षण प्राप्त जवान शामिल थे।” संसद में हम सबको इस पर प्रसन्नता महसूस हुई कि एंटोनी अपने संशोधित वक्तव्य में न केवल नियंत्रण रेखा तक सीमित रहे अपितु उन्होंने आगे बढ़कर यह दोहराया कि पाकिस्तान से तब तक सामान्य सम्बन्ध नहीं हो सकते जब तक कि वह इन तीन निम्न बातों को पूरा नहीं करता:
(1) आतंकवादी बुनियादी ढांचे को समाप्त किया जाए।
( 2) ऐसे प्रयास करने चाहिए जिनसे नवम्बर, 2008 में मुंबई आतंकवादी हमले के
जिम्मेदार लोगों के खिलाफ जल्द कार्रवाई हो।
( 3) इस सप्ताह मारे गए हमारे जवानों के लिए पाकिस्तान में मौजूद जिम्मेदार और कुछ
समय पूर्व हमारे जवानों के धड़ काट कर ले जाने वालों को दण्डित नहीं किया जाता।
सामान्यतया, सेनाध्यक्ष को उपरोक्त दी गई बधाई के साथ मैं रक्षामंत्री को भी बधाई देता हूं। लेकिन तभी यदि वह 6 अगस्त के अपने वक्तव्य को औपचारिक रूप से वापस लेने का साहस दिखाते तथा सेना से माफी मांगते कि उन्होंने उनके ब्यौरे जो एकदम सही था, में भद्दे ढंग से बदलाव कर प्रस्तुत किया। कोई भी मंत्री सदन में ऐसी बात नहीं कह सकता जो झूठ हो। यदि गलत सूचना के चलते वह कुछ असत्य कहता है तो उसे कम से कम खेद तो प्रकट करना चाहिए।
मंत्री और सेना द्वारा अपनाए गये इस तरह के सख्त रवैये के बाद देश आशा करता है कि प्रधानमंत्री, पाकिस्तानी प्रधानमंत्री से शांति वार्ता करने की अपनी उत्सुकता त्याग देगें। इन दिनों समूचा विश्व देख रहा है कि कैसे स्नोडेन को शरण देने के बाद ओबामा ने पुतिन से निर्धारित अपनी मुलाकात ही रद्द कर दी!

लाल कृषण अडवाणी ने भी रक्षा मंत्री ऐ के अंटोनी का उपहास उड़ाया

भाजपा के पी एम् इन वेटिंग और वरिष्ठ पत्रकार लाल कृषण अडवाणी ने भी अपने ब्लॉग में एक अन्य लेख के माध्यम से रक्षा मंत्री ऐ के अंटोनी का उपहास उड़ाया है |
ब्लॉग के टेलपीस (पश्च्यलेख) में अडवाणी ने बताया है कि इण्डियन एक्सप्रेस के मुख्य सम्पादक शेखर गुप्ता के सम्पादकीय पृष्ठ पर ‘स्केर्ड विट्लस‘ (SCARED WITLESS) शीर्षक से लेख प्रकाशित हुआ है जिसमे ए.के. एंटोनी की तुलना शेक्सपीयर के नाटक ”जूलियस सीजर” के मार्क एंटोनी से की गई है इस लेख के साथ समाचारपत्र के कार्टूनिस्ट इ.पी. उन्नी द्वारा चोगे में रक्षामंत्री ए.के. एंटोनी के रेखाचित्र भी रेखांकित किया गया है जिसमें ऐ के अंटोनी को ‘मार्क-II एंटोनी स्पीच!‘ के रूप में वर्णित किया है |अडवाणी ने ”इतनी निर्दयता और शानदार ढंग” की इस प्रस्तुति की प्रशंसा की है।
लेख कहता है: ”आपके पास अन्य मंत्रीगण हैं और नानाविध मुद्दों पर उनके वक्तव्य हो सकते हैं। लेकिन नियंत्रण रेखा पर हुई घटना के बारे में रक्षामंत्री ऐसा करें? वह अब कहते हैं कि पहले वह ‘उपलब्ध‘ सूचनाओं के आधार पर बोले और अब वे ज्यादा अच्छा जानते हैं कि आतंकवादी सेना के वेश में न केवल पाकिस्तानी रेगुलर्स (नियमित सैनिक) बन गए अपितु उनकी विशेष फोर्स से भी हैं।

ओसामा बिन लादेन सम्बन्धी न्यायिक आयोग ने गैर कानूनी संबंधों को उजागर किया :सीधे एल के अडवाणी के ब्लाग से

भाजपा के पी एम् इन वेटिंग और वरिष्ठ पत्रकार लाल कृष्ण अडवाणी ने अपने ब्लॉग में ओसामा बिन लादेन सम्बन्धी पाकिस्तान के न्यायिक आयोग की मीडिया में लीक हुई गोपनीय रिपोर्ट के आधार पर सीमा अधिकारियों की अकुशलता +शासन +प्रशासन की मिली भगत,+अमेरिकी और आई एस आई के सहयोग + सबंधों को उजागर किया है| प्रस्तुत है सीधे एल के अडवाणी के ब्लाग से :
वह मई, 2011 की शुरुआत थी जब सील टीम सिक्स (SEAL TEAM SIX) के रेड स्क्वाड्रन के चुनींदा 24 जवानों ने पाकिस्तान के एबटावाद स्थित ठिकाने पर धावा बोला था जहां अनेक वर्षों से ओसामा बिन लादेन छुपा हुआ था।
उपरोक्त घटना को, पाकिस्तान में सन् 1971, जब न केवल पाकिस्तान को प्रमुख युध्द में औपचारिक रुप से पराजय झेलनी पड़ी अपितु पाकिस्तान के विघटन से एक नए स्वतंत्र देश-बंगलादेश का भी जन्म हुआ था-के बाद सर्वाधिक बुरे राष्ट्रीय अपमान के रुप में वर्णित किया गया।
अमेरिकी सैनिकों द्वारा ओबामा को मारे जाने के बाद पाकिस्तान सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठतम जज न्यायमूर्ति जावेद इकबाल की अध्यक्षता में एक चार सदस्यीय जांच आयोग गठित किया। अन्य तीन सदस्यों में अशरफ जहांगीर काजी भी शामिल थे जो कुछ वर्ष पूर्व नई दिल्ली में पाकिस्तानी उच्चायुक्त थे।
आयोग ने 336 पृष्ठों वाली अपनी रिपोर्ट पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को 4 जनवरी, 2013 को सौंपी। उन्होंने तुरंत रिपोर्ट को ‘गुप्त‘ करार दे दिया। लेकिन 8 जुलाई को अंग्रेजी टेलीविजन अल जजीरा ने किसी प्रकार इस रिपोर्ट की एक प्रति हासिल कर प्रकाशित कर दिया। स्पष्टतया, अल जजीरा की रिपोर्ट के आधार पर दि न्यूयार्क टाइम्स, दि गार्डियन, और कुछ दूसरे पश्चिमी समाचार पत्रों ने भी रिपोर्ट का एक सारांश प्रकाशित किया। अपने ब्लॉग के नियमित पाठकों के लिए मैं दि न्यूयार्क टाइम्स की रिपोर्ट यहां प्रस्तुत कर रहा हूं। दि सन्डे गार्डियन की रेजिडेंट सम्पादक सीमा मुस्तफा द्वारा, स्टेटस्मैन (भारत) में इस रिपोर्ट को दो किश्तों में जुलाई 20 और 21 में प्रकाशित किया।
न्यूयार्क टाइम्स के लंदन स्थित डेक्लान वाल्स की यह रिपोर्ट निम्न है:
लंदन – सोमवार (8 जुलाई) को मीडिया को ‘लीक‘ की गई एक हानिकारक पाकिस्तानी सरकार की रिपोर्ट के मुताबिक ”सामूहिक अक्षमता और उपेक्षा” के चलते लगभग एक दशक तक ओसामा बिन लादेन निर्बाध रुप से पाकिस्तान में रहा।
सर्वोच्च न्यायालय के एक जज की अध्यक्षता वाले चार सदस्यीय एबटाबाद कमीशन ने देश के शीर्ष गुप्तचर अधिकारियों सहित 201 लोगों से बातचीत की और 2 मई, 2011 को अमेरिकी धावे से जुड़ी घटनाओं को जोड़ने की कोशिश की है, जिसमें अलकायदा का सरगना बिन लादेन मारा गया और पाकिस्तानी सरकार को शर्मिंदगी उठानी पड़ी।
हालांकि कमीशन की रिपोर्ट 6 मास पूर्व पूरी हो गई थी परन्तु पाकिस्तानी सरकार ने इसे दबा दिया था और पहली ‘लीक‘ प्रति सोमवार को अल जजीरा ने सार्वजनिक की।
इस प्रसारण संस्था ने 336 पृष्ठों की रिपोर्ट को अपनी वेबसाइट पर प्रकाशित किया, इसमें यह भी स्वीकारा गया कि पाकिस्तानी गुप्तचर एजेंसी के मुखिया की गवाही वाला एक पृष्ठ इसमें नहीं है जिसमें प्रतीत होता है कि अमेरिका के साथ पाकिस्तान के सुरक्षा सहयोग के तत्वों को समाहित किया गया है।
कुछ घंटे बाद ही पाकिस्तान के टेलीकॉम रेग्यूलेटर ने पाकिस्तान के भीतर अल जजीरा की बेवसाइट को देखने से बचाने हेतु ठप्प कर दिया।
कुछ मामलों में कमीशन अपेक्षाओं के अनुरुप दिखा। अपनी रिपोर्ट में इसने अफगानिस्तान के टोरा बोरा में अमेरिकी हमले के बाद 2002 के मध्य में पाकिस्तान न आए बिन लादेन को पकड़ने में पाकिस्तान की असफलता के लिए षडयंत्र के बजाय अक्षमता का सहारा लिया है।
लेकिन अन्य संदर्भों में रिपोर्ट आश्चर्यजनक रही। इसमें प्रमुख सरकारी अधिकारियों के भावात्मक संशयवाद सम्बन्धी झलक है, जो कुछ सुरक्षा अधिकारियों द्वारा चोरी-छिपे मदद करने की संभावनाओं की बात कहती है।
यह कहती है कि ”कुछ स्तरों पर मिली भगत, सहयोग और संबंध को पूरी तरह से नकारा नहीं जा सकता है”।
रिपोर्ट, बिन लादेन जिसने अमेरिकी सैनिकों के हाथों में पड़ने से पूर्व सन् 2002-2011 के बीच 6 ठिकाने बदले थे, के दौर के उसके जीवन की ललचाने वाले नये खुलासे करती है। बताया जाता है कि अनेक बार अलकायदा के मुखिया ने अपनी दाढ़ी साफ करा रखी थी और पाकिस्तान या अमेरिकी सेना के हाथों में आने से बचने के लिए ‘काऊ ब्याय हैट‘ भी पहनना जारी किया था।
एक बार उस वाहन को तेजी से चलाने के जुर्म में रोका गया था जिसमें वह बैठा था मगर पुलिस अधिकारी उसे पहचानने में असमर्थ रहे और उसे जाने दिया।
रिपोर्ट ने पाकिस्तानी अधिकारियों की खिंचाई की है कि उन्होंने देश में सेंट्रल इंटेलीजेंस एजेंसी के ऑपरेशन्स करना बंद कर दिए हैं और नाना प्रकार से अमेरिकी कार्रवाई को गैर कानूनी या अनैतिक ठहराया है। इसके अनुसार सी.आई.ए. ने प्रमुख सहायक एजेंसियों की कायदा के मुखिया की जासूसी के लिए उपयोग किया, ‘किराए के ठगों‘ को साधा और पाकिस्तानी सरकार में अपने सहयोगियों को पूरी तरह से धोखा दिया।
रिपोर्ट कहती है: ”अमेरिका ने एक अपराधिक ठग की तरह काम किया है।”
अपनी अनियंत्रित भाषा और संस्थागत दवाबों के चलते रिपोर्ट पाकिस्तान में बिन लादेन के इधर-उधर छुपने की अवधि का सर्वाधिक सम्पूर्ण अधिकारिक वर्णन और अमेरिकी नेवी सील के हमले जिसने उसकी जान ली, को प्रस्तुत करती है।
चार सदस्यीय कमीशन में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति जावेद इकबाल, एक सेवानिवृत पुलिस अधिकारी, एक सेवानिवृत कूटनीतिक और एक सेवानिवृत सैन्य जनरल हैं। इसकी पहली बैठक अमेरिकी हमले के दो महीने बाद जुलाई, 2011 में हुई और इसकी 52 सुनवाई हुई तथा सात बार यह इलाके में गए।
अमेरिकी अधिकारियों ने कमीशन के साथ कोई सहयोग नहीं किया और सोमवार को विदेश विभाग के प्रवक्ता जेन पास्की ने इस रिपोर्ट पर टिप्पणी करने से इंकार कर दिया। पाकिस्तान के घटनाक्रम पर नजर रखने वाले एक वरिष्ठ अमेरिकी अधिकारी ने कहा कि यद्यपि कमीशन की भारी भरकम रिपोर्ट पढ़ने को नहीं मिली है परन्तु उन्होंने कहा कि प्रकाशित सारांशों से प्रतीत होता है कि दस्तावेज बताते हैं कि ”पाकिस्तानी कुछ तो जानते हैं कि कैसे बिन लादेन का वहां अंत हुआ।”
कई स्थानों पर पाकिस्तानी रिपोर्ट अमेरिकीयों द्वारा लादेन को पकड़े जाने से पहले पाकिस्तानी अधिकारियों की असफलता पर कुपित होती और हताशा प्रकट करती है।
इसमें उन सीमा अधिकारियों की अकुशलता को रेखांकित किया गया है जिन्होंने उसकी एक पत्नी को ईरान जाने दिया, म्युनिसिपल अधिकारी जो उसके घर पर हो रहे असामान्य निर्माण पहचानने में असफल रहे, वे गुप्तचर अधिकारी जिन्होंने सूचनाओं को अपने पास ही रखा और उन वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों की अकुशलता का उल्लेख किया है जो ‘कर्तव्य पालन करने से वंचित रहने के गंभीर दोषी‘ पाए गए।
कमीशन ने उन सैन्य अधिकरियों से बातचीत की है जो पाकिस्तानी वायुसीमा में अमेरिकी विमानों के घुसने से बेखबर रहे और पाया कि 2 मई की रात को अमेरिकीयों द्वारा बिन लादेन के शव को विमान में ले जाने के 24 मिनट के भीतर पहले पाकिस्तानी लड़ाकू जेट फौरन रवाना हुआ।
रिपोर्ट कहती है यदि इसे विनम्रता से कहा जाए तो यह यदि अविश्वसनीय नहीं अपितु अकुशलता की स्थिति ज्यादा है तो विस्मयकारक है।
रिपोर्ट में उल्लेख है कि सेना की शक्तिशाली इंटर-सर्विस इंटेलीजेंस निदेशालय ”ओबीएल को पकड़ने में पूर्णतया असफल” रहा है और इसमें तत्कालीन खुफिया एजेंसी के मुखिया लेफ्टिनेंट जनरल अहमद शुजा पाशा की विस्तृत गवाही भी है।
osama-compoundकमीशन रेखांकित करता है कि कैसे आई.एस.आई. अधिकांशतया नागरिक नियंत्रण से बाहर ही ऑपरेट करती है। बदले में जनरल पाशा उत्तर देते हैं कि सी.आई.ए. ने सन् 2001 के बाद बिन लादेन के बारे में सिर्फ असंबध्द गुप्तचर सूचनाएं ही सांझा की। रिपोर्ट में लिखा है कि एबटाबाद पर धावा करने से पूर्व अमेरिकीयों ने बिन लादेन के चार शहरों-सरगोधा, लाहौर, सियालकोट और गिलगिट में होने की गलत सूचना दी।
जनरल पाशा को उदृत किया गया है कि ”अमेरिकी अहंकार की कोई सीमा नहीं है”। साथ ही साथ यह कि ”पाकिस्तान एक असफल राष्ट्र था, यहां तक कि हम अभी भी एक असफल राष्ट्र नहीं हैं”। अल जजीरा द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट में गायब गवाही सम्बन्धी पृष्ठ जनरल पाशा की गवाही से सम्बन्धित हैं। अपनी बेवसाइट पर अल जजीरा लिखता है कि संदर्भ की जांच से यह लगता है कि गायब सामग्री देश के सैन्य नेता जनरल परवेज मुशर्रफ द्वारा ”सितम्बर 2001 के आतंकवादी हमलों के बाद अमेरिका से की गई सात मांगों की सूची है।
पाकिस्तानी सरकारी अधिकारियों ने अल जजीरा की रिपोर्ट की सत्यता पर कोई टिप्पणी नहीं की है।
सोमवार को भी, दि एसोसिएटिड प्रेस ने प्रकाशित किया है कि अमेरिका के स्टेट्स स्पेशल ऑपरेशन के शीर्ष कमांडर ने आदेश दिए कि बिन लादेन पर हमले सम्बन्धी सैन्य फाईलें रक्षा विभाग के कम्प्यूटरों से साफ कर दी जाएं और सी.आई.ए. को भेज दीं जहां उन्हें ज्यादा आसानी से जनता की नजरों से बचाया जा सकता है।
वाशिंगटन से इरिक सम्मिट ने इस हेतु सहयोग किया

पूर्वाग्रह से ग्रसित कांग्रेस की नई पीढ़ी ने अपने पूवजों की परम्परा त्याग कर डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी की श्रधांजली सभा का बहिष्कार किया

डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी की जयंती पर संसद के सेंट्रल हॉल में आयोजित पारंपरिक श्रधांजली सभा का सत्ता रुड कांग्रेस द्वारा बहिष्कार किये जाने पर भाजपा के पी एम् इन वेटिंग और वरिष्ठ पत्रकार लाल कृषण आडवाणी ने अपने नवीनतम ब्लॉग में नाराजगी प्रकट की है और इस बहिष्कार को कांग्रेस की स्वाभाविक पूर्वाग्रह ग्रसित सोच बताया |प्रस्तुत है सीधे एक के अडवाणी के ब्लॉग से :
6 जुलाई, हमारी पार्टी जो अब भारतीय जनता पार्टी के रुप में सक्रिय है, के संस्थापक डा. श्यामा प्रसाद मुकर्जी की जयंती है। यह ब्लॉग कल जारी होना है।
मैंने स्मरण दिलाया था कि कैसे 1953 की 23 जून को कानपुर में सम्पन्न भारतीय जनसंघ के पहले राष्ट्रीय सम्मेलन में डा. मुकर्जी ने, देश के सभी भागों से आए जनसंघ के प्रतिनिधियों को जम्मू एवं कश्मीर के भारत में पूर्ण एकीकरण के बारे में अपने आव्हान से प्रेरित किया था। आखिर क्यों इस प्रदेश की स्थिति उन अन्य 563 देसी रियासतों से अलग होनी चाहिए जिन्होंने स्वतंत्र भारत में पूरी तरह से एकीकरण करना स्वीकार किया।
जनसंघ के सम्मेलन ने जम्मू एवं कश्मीर सरकार द्वारा लागू किए गए परमिट सिस्टम के विरुध्द एक आन्दोलन छेड़ने का फैसला किया। डा. मुकर्जी ने घोषणा की कि वे इस सिस्टम की अवज्ञा करने वाले पहले नागरिक होंगे और बगैर परमिट के प्रदेश में प्रवेश करेंगे। उनको बंदी बनाया जाना और तत्पश्चात् उनका बलिदान अब इतिहास का अंग है।
जैसाकि मैंने एक अन्य ब्लॉग में उल्लेखित किया था कि कांग्रेस संसदीय दल ने भी गोपालास्वामी आयंगर को यही बात कही थी, जिन्हें पण्डित नेहरु ने अपनी अनुपस्थिति में अनुच्छेद 370 को संविधान सभा में प्रस्तुत करने की जिम्मेदारी सौंपी थी।
सन् 1947 से संसद में यह सुदृढ़ परम्परा रही है कि जिन नेताओं के चित्र सेंट्रल हॉल में लगाए गए हैं, उनके जयंती पर उन्हें फूलों से श्रध्दांजलि देने हेतु सभी सांसदों को निमंत्रित किया जाता है।
आज सुबह भी दोनों सदनों में नेता प्रतिपक्ष – श्रीमती सुषमा स्वराज और श्री अरुण जेटली सहित बड़ी संख्या में सांसद सेंट्रल हॉल में उपस्थित थे। परन्तु सबसे ज्यादा मुझे यह अखरा कि न तो कोई कांग्रेसी सांसद और नही कोई मंत्री वहां उपस्थित था। मैं जानता हूं कि कुछ वर्ष पूर्व वीर सावरकर, के चित्र अनावरण कार्यक्रम, जिसमें तत्कालीन राष्ट्रपति डा. अब्दुल कलाम द्वारा किया गया था, का कांग्रेस पार्टी ने बहिष्कार का औपचारिक निर्णय किया और उसके पश्चात् से वह उनके जन्म दिवस के कार्यक्रम से दूर ही रहते हैं। आज कांग्रेसजनों की अनुपस्थिति जानबूझकर लिया गया निर्णय नहीं लगता। चाहे यह अनजाने में हुआ हो, मगर यह स्वाभाविक पूर्वाग्रह ग्रसित सोच को प्रकट करता है।
यहां पर मैं यह उल्लेख करना चाहूंगा कि श्री ज्योति बसु के नेतृत्व वाली माक्र्सवादी सरकार ने कोलकाता के मैदान में डा. श्यामा प्रसाद की शानदार प्रतिमा लगाने का निर्णय किया था। मैंने तत्कालीन उपराष्ट्रपति श्री आर. वेंकटरमणन से इसके अनावरण का अनुरोध किया। वह सहर्ष तैयार हुए और समारोह की गरिमा बढ़ाई।
आज यह सब मैंने वर्तमान कांग्रेस नेतृत्व को स्मरण कराने के लिए उल्लेख किया है कि देश संभवतया यह निष्कर्ष निकालने को बाध्य होगा कि जहां तक कांग्रेस पार्टी का सम्बन्ध है, उसकी नई पीढ़ी अपने ही पूवजों की परम्परा से दूर हो रही!

अडवाणी ने धारा ३७० के लिए कांग्रेस और उमर अब्दुल्लाह के दादा की गलतियों का इतिहास पढाया ;सीधे एल के अडवाणी के ब्लाग से

भाजपा के पी एम् इन वेटिंग और वरिष्ठ पत्रकार लाल कृषण अडवाणी ने कभी अपने सहयोगी रहे जम्मू एवं कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को धारा ३७० पर सलाह देते हुए कहा कि उन्हें ‘धोखाधड़ी‘ और ‘विश्वासघात‘ जैसे शब्दों से भरी आक्रामक भाषा का उपयोग कभी नहीं करना चाहिए। अपने ब्लाग के माध्यम से अडवाणी ने कहा कि उन्हें[उमर] पता होना चाहिए कि संविधान सभा में धारा-370 जो जम्मू एवं कश्मीर राज्य को विशेष दर्जा प्रदान करती, को जब स्वीकृति दी गई तब तक जनसंघ का जन्म भी नहीं हुआ था। हालांकि संविधान के प्रारूप में यदि कोई ऐसा प्रावधान था जिसका विरोध लगभग समूची कांग्रेस पार्टी कर रही थी तो वह यही प्रावधान था। इस मुद्दे पर नवम्बर, 1946 में संविधान सभा द्वारा संविधान को औपचारिक रूप से अंगीकृत करने से दो महीने पूर्व ही विचार किया गया।
इस विषय को लेकर इतिहास के पन्नो को पलटते हुए अडवाणी ने कहा कि सरदार पटेल के तत्कालीन निजी सचिव वी. शंकर द्वारा लिखित दो खंडों में प्रकाशित पुस्तक ‘माई रेमिनीसेंसेज ऑफ सरदार पटेल” के अनुसार विदेश जाने से पहले नेहरू ने जम्मू व कश्मीर राज्य से संबंधित प्रावधानों को शेख अब्दुल्ला के साथ बैठकर अंतिम रूप दिया और संविधान सभा के माध्यम से उन प्रावधानों को आगे बढ़ाने का काम अपने रक्षामंत्री गोपालस्वामी अयंगार को सौंप दिया। प्रस्तुतु है सीधे एल के अडवाणी के ब्लाग से :
अयंगार ने अपने प्रस्तावों को कांग्रेस संसदीय दल की बैठक में प्रस्तुत किया। शंकर के अनुसार इससे चारों ओर से रोषपूर्ण विरोध के स्वर उठने लगे और अयंगार स्वयं को बिल्कुल अकेला महसूस कर रहे थे, एक अप्रभावी समर्थक के रूप में मौलाना आजाद को छोड़कर।
शंकर के अनुसार, ‘पार्टी में एक बड़ा वर्ग था, जो जम्मू व कश्मीर और भारत अन्य तिरस्कृत राज्यों के बीच भेदभाव के किसी भी सुझाव को भावी दृष्टि से देख रहा था और जम्मू व कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा दिए जाने के संबंध में एक निश्चित सीमा से आगे बढ़ने के लिए तैयार नहीं था।
सरदार पटेल स्वयं इसी मत के पक्ष में थे; लेकिन नेहरू और गोपालस्वामी अयंगार के निर्णयों में दखलंदाजी न करने की अपनी स्वाभाविक नीति के चलते उन्होंने अपने विचार प्रस्तुत नहीं किए और इस प्रकार, नेहरू और अयंगार ने अपने अनुसार ही सारा मामला निपटाया था। सच तो यह है कि प्रस्ताव का प्रारूप तैयार करने में सरदार पटेल ने भाग नहीं लिया था। इनके बारे में उन्हें तभी पता चला, जब गोपालस्वामी अयंगार ने कांग्रेस संसदीय दल के सामने उसे पढ़कर सुनाया।‘
कांग्रेस संसदीय दल की बैठक में अपने साथ हुए कठोर बरताव से निराश होकर अयंगार अंतत: सरदार पटेल के पास पहुंचे और उन्हें इस स्थिति से बचाने का अनुरोध किया। सरदार पटेल ने कांग्रेस संसदीय ल की एक और बैठक बुलाई।
शंकर लिखते हैं कि: ”मैंने कभी भी ऐसी तूफानी और कोलाहलपूर्ण बैठक नहीं देखी। मौलाना आजाद को भी शोर मचाकर चुप करा दिया गया। अंत में चर्चा को सामान्य व व्यावहारिक स्थिति में लाने और बैठक में उपस्थित लोगों को यह समझाने-कि अंतरराष्ट्रीय जटिलताओं के कारण एक कामचलाऊ व्यवस्था ही की जा सकती है-का काम सरदार पटेल पर छोड़ा गया।‘
”ऐसा प्रतीत होता है कि कांग्रेस पार्टी अनिच्छापूर्वक ही सरदार पटेल की इच्छाओं के सामने झुकी। वस्तुत: इसी से स्पष्ट हो जाता है कि संविधान सभा में इस प्रावधान पर हुई चर्चा इतनी सतही और नीरस क्यों थी। अयंगार के अलावा और किसी ने कुछ नहीं कहा-न विरोध में, और न ही समर्थन में।”
यह ज्ञात हुआ, यहां तक कि सरदार पटेल और अयंगार को भी उन प्रारूप प्रावधानों को कांग्रेस पार्टी को सहमत कराना मुश्किल रहा जो विदेश जाने से पूर्व अयंगार और शेख अब्दुल्ला ने पण्डित नेहरू के साथ बैठकर तैयार किए थे; शेख अब्दुल्ला इन स्वीकृत प्रारूप् पर भी पुनर्विचार के संकेत देने लगे थे।
14 अक्तूबर, 1949 को गृह मंत्रालय में कश्मीर मामलों के सचिव विष्णु सहाय ने वी. शंकर को लिखा कि शेख अब्दुल्ला ने प्रारूप पर अपना रूख इस दलील पर बदला है कि नेशनल कांफ्रेंस की वर्किंग कमेटी ने इसे स्वीकृति नहीं दी है।
सहाय लिखते हैं कि अब्दुल्ला ने एक वैकल्िपिक प्रारूप भेजा है जिसमें प्रावधान है कि भारतीय संविधान जम्मू एवं कश्मीर में केवल माने गए विषयों पर ही लागू होगा। शेख ने इस तथ्य पर भी आपत्ति की कि प्रस्तावित अनुच्छेद को अस्थायी वर्णित किया गया है और राज्य की संविधान सभा इसे समाप्त करने हेतु सशक्त है।
15 अक्तूबर, 1949 को शेख अब्दुल्ला और उनके दो साथी अयंगार से मिले तथा उन पर प्रारूप बदलने को दवाब डाला। उसी दिन अयंगार ने सरदार पटेल कोइसकी जानकारी दी। 15 अक्तूबर को सरदार पटेल को लिखे अपने पत्र में अयंगार ने लिखा कि ”उनके (अब्दुल्ला और उनके दो साथियों) द्वारा की गई आपत्तियों में कोई ठोस मुद्दा नहीं था।” उन्होंने आगे जोड़ा ”अंत में मैंने उन्हें कहा कि मुझे उम्मीद नहीं थी कि आपके घर (पटेल) और पार्टी बैठक में हमारे प्रारूप के प्रावधानों पर सहमत होने के बाद, वे मुझे और पण्डितजी को इस तरह से शर्मिंदा करेंगे जिसका वे प्रयास कर रहे थे। उत्तर में, शेख अब्दुल्ला ने कहा कि ऐसा सोचने पर वह भी काफी दु:ख महसूस कर रहे हैं। लेकिन अपने लोगों के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वाह करते हुए मुझे इस रूप में प्रारूप स्वीकार करना असम्भव है…….. उसके पश्चात् मैंने उन्हें कहा कि आप वापस जाइए और इस सब पर विचार कीजिए जो मैंने आपको कहा है और आशा है कि वह सही दिमागी दशा में आज या कल मेरे पास वापस आएंगे। तत्पश्चात् मैंने मामले पर आगे विचार किया तथा एक प्रारूप लिखा जिसमें मुख्य दृष्टिकोण को बदले बिना जोकि हमने हमारे प्रारूप में उल्लिखित किया है, में मामूली सा बदलाव किया है जिसे मैं उम्मीद करता हूं कि शेख अब्दुल्ला राजी हो जाएंगे।”
16 अक्तूबर, 1949 को सरदार पटेल का अयंगार को जवाब संक्षिप्त और कठोर था। वह अयंगार से इस पर सहमत नहीं थे कि बदलाव मामूली हैं। पटेल लिखते हैं: ”मैंने पाया कि मूल प्रारूप में ठोस बदलाव किए गए हैं, विशेष रूप से राज्य नीति के मूलभूत अधिकारों और नीति निदेशक सिध्दान्तों की प्रयोजनीयता को लेकर। आप स्वयं इस विसंगति को महसूस कर सकते हैं कि राज्य भारत का हिस्सा बन रहा है और उसी समय इन प्रावधानों में से किसी को भी स्वीकार नहीं कर रहा।”
पटेल ने आगे लिखा: ”शेख साहब की उपस्थिति में हमारी पार्टी द्वारा समूचे प्रस्ताओं को स्वीकृत करने के पश्चात् इसमें किसी भी बदलाव को मैं पसंद नहीं करता। जब चाहे शेख साहब लोगों के प्रति अपने कर्तव्य की दलील पर सदैव हमसे टकराव करते रहते हैं। मान लिया कि उनकी भारत या भारतीय सरकार या आपके और प्रधानमंत्री के जिन्होंने उनकी बात मानने में कोई कोताही नहीं बरती, के प्रति भी निजी आधार पर कोई कर्तव्य नहीं बनता।
अपनी कसी हुई टिप्पणियों में उन्होंने कहा: ”इन परिस्थितियों में मेरी स्वीकृति का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। यदि आपको यह करना सही लगता है तो आप आगे बढ़ सकते हैं।”
इस बीच शेख अब्दुल्ला ने अयंगार का संशोधित प्रारूप भी रद्द कर दिया और 17 अक्तूबर को अयंगार को लिखे एक पत्र में संविधान सभा से त्यागपत्र देने की धमकी भी दे दी।
17 अक्तूबर, 1949 को संविधान सभा ने बगैर ज्यादा बहस के अयंगार के मूल प्रारूप को स्वीकर कर लिया। शेख अब्दुल्ला से आशा थी कि वह बोलेंगे, लेकिन वह खिन्न और मौन रहे।
नेहरूजी के विदेश से लौटने के बाद सरदार पटेल ने उन्हें उनकी अनुपस्थिति में हुए घटनाक्रम को निम्न शब्दों में लिखा (3 नवम्बर, 1949):
”प्रिय जवाहरलाल,
कश्मीर सम्बन्धी प्रावधान के बारे में कुछ कठिनाईयां थी। शेख साहब उस समझौते से मुकर गए जो कश्मीर सम्बन्धी प्रावधान के सम्बन्ध में वह आपके साथ सहमत हुए थे। वह मूलभूत चरित्र में कुछ निश्चित बदलावों पर जोर दे रहे थे जो नागरिकता और मौलिक अधिकारों सम्बन्धी प्रावधानों को कश्मीर में लागू नहीं होने देने और इन सब मामलों सहित अन्य में भी वे हैं जो राज्य सरकार द्वारा एकीकरण के तीन विषयों जोकि इस रूप में वर्णित हैं कि महाराजा 8 मार्च, 1948 की उद्धोषणा के तहत नियुक्त मंत्रिपरिषद की सलाह पर काम कर रहे हैं। काफी विचार विमर्श के बाद मैं पार्टी को इन सब बदलावों पर सहमत कर सका सिवाय अंतिम को छोड़कर, जोकि संशोधित किया गया जिससे न केवल पहला मंत्रिमण्डल कॅवर हो सके अपितु इस उद्धोषणा के तहत तत्पश्चात् भी मंत्रिमण्डल नियुक्त हो सकें।
शेख साहब अपने आपको इन बदलावों से नहीं जोड़ सके, लेकिन हम इस मामले में उनके विचारों को नहीं मान सके और प्रावधान सदन ने जैसाकि हमने बदले थे, को पारित कर दिया। इसके पश्चात् उन्होंने गोपालास्वामी अयंगार को पत्र लिखकर संविधान सभा की सदस्यता से त्यागपत्र देने की धमकी दी है। गोपालस्वामी ने उनको जवाब दिया है कि वह आपके आने तक अपना निर्णय स्थगित रखें।
आपका
वल्लभभाई पटेल
जैसाकि इस ब्लॉग के शुरू में ही मैंने लिखा कि जम्मू एवं कश्मीर के संदर्भ में भाजपा के रूख पर ‘धोखाधड़ी‘ जैसे अपमानजनक शब्दों का उपयोग करना किसी के लिए भी शोभनीय नहीं है। यह एक ऐसा मुद्दा है जिस पर 1951 में जनसंघ के जन्म से लेकर आज तक हम न केवल सुस्पष्ट, स्पष्टवादी और सतत् दृष्टिकोण बनाए हुए हैं, अपितु यही एक ऐसा मुद्दा है जिसे लेकर हमारे संस्थापक-अध्यक्ष ने अपना जीवन बलिदान कर दिया और जिसके लिए लाखों पार्टी कार्यकर्ताओं ने अपनी गिरफ्तारियां दी तथा अनेक तरह के कष्ट सहे। कानपुर में हमारे पहले अखिल भारतीय सम्मेलन के समय से लेकर हम जम्मू एवं कश्मीर के भारत में पूर्ण एकीकरण के लिए कटिबध्द हैं।

कश्मीर में धारा ३७० के लिए पटेल नही वरन नेहरू जिम्मेदार हैं :एल के आडवाणी

भाजपा के पी एम् इन वेटिंग और वरिष्ठ पत्रकार एल के अडवाणी ने अपने नए ब्लॉग के पश्च्य लेख (टेलपीस)में कश्मीर में धारा ३७० के लिए पहले प्रधान मंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू को जिम्मेदार ठहराते हुए लोह पुरुष +इंडियन बिस्मार्क पटेल का बचाव किया है| श्री आडवाणी ने स्वतंत्र भारत के इतिहास के प्रारम्भिक पन्नो को खोलते हुए कहा है कि पहले गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने तत्कालीन प्रधान मंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के दबाब में आ कर कश्मीर नीति में अपने स्वयम के निर्णय को त्याग कर सरेंडर कर दिया था|आडवाणी ने बताया कि सरदार पटेल की मृत्यु दिसम्बर, 1950 में हो गई थी।
24 जुलाई 1952 को पण्डित नेहरू ने जम्मू एवं कश्मीर से जुड़े मुद्दों पर लोकसभा में एक विस्तृत वक्तव्य दिया। इसमें उन्होंने मजबूती से अनुच्छेद 370 का बचाव किया। उन्होंने यह भी कहा कि सरदार पटेल ही जम्मू एवं कश्मीर के मामले को देख रहे थे। वी. शंकर जो 1952 में आयंगार के मंत्रालय में संयुक्त सचिव थे, अपने मंत्री के पास गए और जो हुआ था उस पर परस्पर जानकारी साझा की। गोपालस्वामी आयंगार की टिप्पणी थी: ”यह सरदार पटेल की उस उदारता का गलत और दुर्भावनापूर्ण प्रतिफल है, जो उन्होंने अपने उत्कृष्ट निर्णय को छोड़कर पण्डित नेहरू के दृष्टिकोण को स्वीकार करने में दिखाई।”