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नो प्रॉफिट नो लास के आधार पर कालोनियों में पैंठ लगवा कर आम आदमी को राहत दी जासकती है

[मेरठ]फोटो कोलाज में दिखाया गया स्थल एतिहासिक मेला नौचंदी स्थल नहीं है क्योंकि मेला नौचंदी लगभग तीन सप्ताह बाद सजेगी |कोलाज में दिखाया गया स्थल पॉश गंगानगर में लगाने वाली साप्ताहिक पैठ का है|यहाँ रौजाना की जरुरत का हर सामान[विशेषकर रसोई] उपलब्ध है|बाज़ार से सस्ता और ताज़ा है|सप्ताह के प्रत्येक सोमवार को यह पैंठ सजाई जाती है|इसके माध्यम से सैंकड़ों छोटे कारोबारी अपना रोज़गार पाते हैं और हज़ारों छेत्र वासी शापिंग का लाभ प्राप्त करते हैं|
इस कोलाज में तीन तथ्यों को कैद किया गया है[१] दिन में भी सरकारी लाईट जल रही है[२]शाम के समय पैंठ में छोटी छोटी लगभग सौ लाईटें जल रही है[३]दिन में कारोबारी बेटरी की लाईट का इन्तेजाम कर रहा है|

नो प्रॉफिट नो लास के आधार पर कालोनियों में पैंठ लगवा कर आम आदमी को राहत दी जासकती है

नो प्रॉफिट नो लास के आधार पर कालोनियों में पैंठ लगवा कर आम आदमी को राहत दी जासकती है

भारत में पैंठ का चलन पौराणिक काल से चला आ रहा है सो मेरठ में पैंठ लगाना कोई अजूबा नहीं है यह आम जन की सुविधा है +जरुरत है |दुर्भाग्य से वर्तमान कर्णधार इस तरफ से आँखें मूंदे हैं और बड़े बड़े माळ+शोरूम बनाने में ही व्यस्त हैं|इस मानसिकता के चलते आम जन प्रति दिन पिसने के लिए अभिशिप्त है|इस बात के समर्थन में इस पैंठ में एक उद्हारण देना जरुरी है|यहाँ दिन से ज्यादा शाम को खरीदरी ज्यादा होती है ग्राहक कहीं अन्धेरा देख कर वापिस न लौट जाये ठेले और फड़ वाले छोटे छोटे कारोबारी भी किराए की लाईट लेने को मजबूर हो जाते हैं|इस छोटी सी एक लाईट को मात्र दो तीन घंटे के लिए किराए पर लेने के लिए २५ से ३० रुपये देने पड़ते हैं|अब मीलों दूर पैदल चल कर यहाँ रोज़गार करने वाले महज १०० या १२५ रुपये ही कम पाते हैं ऐसे में अपनी कमी का एक चौथाई उन्हें लाईट का किराया देना पड़ जाता है|
दूसरी तरफ स्ट्रीट लाईट्स दिन में भी जलती रहती है| अर्थार्त गवर्नेंस का भाव है|अब यह कहना तो अनुचित नहीं होगा के कमोबेश सारी राजनीतिक पार्टियां +सरकारें +निगम और परिषद् आम आदमी के हित की बात करती रहती हैं लेकिन आम आदमी से कितनी दूर रहती हैं यह इस चित्र में साफ दीखता है|अगर हर नई कालोनी में एक पैंठ के लिए जगह एलोट कर दी जाये वहां स्ट्रीट लईतें लगवा दी जाये तो आम आदमी को कुछ राहत मिल सकेगी|यहाँ यह अभिप्राय कतई नही है के इन्हें फ्री में लाईट या जगह दी जाये | आवश्यक नो प्रॉफिट नो लास के आधार पर व्यवस्था की जा सकती है |
आज कल माळ कल्चर के चलते बेशक एअरपोर्ट के निर्माण के लिए प्रदेश और केंद्र सरकारें आमने सामने आगई हैऔर विकास के झंडे गाड़ने को तत्पर दिख रही हैं इसीलिए बेशक शहरों में विकास के नाम पर शोरूम बनाओ बड़े बड़ेमाल बनाओ लेकिन उसके साथ ही आम आदमी के लिए पैंठ कल्चर को भी आगे बढाओ इससे अतिक्रमण +अपराध और यातायात आदि अनेकों शहरी समस्याएं स्वत दूर हो जायेंगी |

माळ या शोरूम की व्यवस्था के साथ ही आम आदमी के लिए पैंठ की जगह चिन्हित की जानी चाहिए

केंद्र और राज्य सरकारे आज कल आम आदमी की सेवा करने को समर्पित होने के ड्रम पीटने में लगी है लेकिन वास्तविक रूप से जमीनी हकीकत क्या है इसे जानने के लिए यहाँ एक छोटा सा उधाहरण प्रस्तुत है|

 माळ या शोरूम की व्यवस्था के साथ ही आम आदमी के लिए पैंठ की जगह चिन्हित की जानी चाहिए

माळ या शोरूम की व्यवस्था के साथ ही आम आदमी के लिए पैंठ की जगह चिन्हित की जानी चाहिए

मेरठ में जगह जगह छोटे दुकानदार ठेलों पर या फड़ लगा कर अपने परिवार के लिए दो वक्त की रोटी का इंतज़ाम करते मिल जायेंगे |दुर्भाग्य से इनके लिए कोई सरकारी जमीन का एलोटमेंट नहीं है इसीलिए किसी के भी खाली पड़े प्लाट पर या सडकों के किनारे का प्रयोग धड़ल्ले से किया जाता है| ऐसा ही एक प्रयास गंगा नगर में भी किया जाता है|यहाँ सैकड़ों की संख्या में छोटे व्यापारी एक पैंठ लगाते हैं |इसमें दूर दूर से ठेलों में भर कर सब्जियां और दूसरे सामन लाये जाते हैं|चित्र में छावनी का बिल्ला लगाये एक ठेले वाला यहाँ २० किलो मीटर पैदल चल कर मात्र १००-१२५ की ध्याड़ी करने आया है| यह पैंठ रात को ९ बजे तक भी चलती है |छेत्र वासियों के लिए भी यह एक वरदान है क्योंकि यहाँ बाज़ार से कम कीमत पर सामान मिल जाता है|रिटायर्ड से लेकर बच्चे तक यहाँ अपनी जरुरत की चीजें तलाशते दिख जायेंगे| बताते चलें कि यहाँ धर्म या जाति के आधार पर देखने की जरुरत नहें है क्योंकि यहाँ सभी धर्म और जाति के व्यापारी और खरीददार आते हैं|पहले ये लोग सड़क के किनारे ही पैंठ लगाते थे मगर आज कल इन्हें यहाँ से भगा दिया गया है अब ये लोग किसी के खाली पड़े प्लाट में जमे हुए हैं|
दिन में तो व्यवस्था ठीक रहती है मगर शाम होते ही इन्हें लाईट की जरुरत पड़ती है |यहाँ प्रकाश या लाईट की कोई व्यवस्था नहीं है बिजली के खम्बे तो खड़े हैं मगर उनपर लाईट नहीं है|ऐसे में ये लोग बैटरी के लाइटें किराए पर लेकर काम चलाते हैं |चित्र में दिखाई गई लाइटें २० से २५ रुपये प्रति शाम की दर से इन्हें उपलब्ध कराने वाले भी यहाँ मिल जाते हैं| यहाँ से कुछ कदम पर ही स्ट्रीट लाईट्स दिन में भी जलती रहती है |
कहने का अभिप्राय यह है कि शहरों में भी गरीबी है और पैंठ कल्चर यहाँ भी है और यह आम आदमी की जरुरत है इसीलिए नई [विशेषकर]कालोनियों में बड़े बड़े माळ या शोरूम के लिए व्यवस्था करने के साथ वहां किसी कौने में आम आदमी के लिए पैंठ की जगह चिन्हित कर दी जानी चाहिए | वर्ना मात्र सो रुपये कमाने वाला आम आदमी अपनी गाड़े की कमाई को व्यवस्थापकों को अर्पित करने के लिए अभिशिप्त होता रहेगा |