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एल के अडवाणी के ब्लाग से :अगले ईस्टर पर भाजपा का पुनः जन्म Reincarnation of B J P On Easter

एन डी ऐ के पी एम् इन वेटिंग और वरिष्ठ पत्रकार एल के आडवाणी ने ईसाईयों के प्रभु यीशु के पुर्नजन्म से जुड़े पवित्र त्यौहार ईस्टर संडे से अपनी पार्टी भाजपा को जोड़ते हुए आगामी चुनावों में अपनी पार्टी के पंर जन्म के संकेत दिए हैं|उन्होंने अपने ब्लॉग में भाजपा के इतिहास का उल्लेख करते हुए बताया है कि प्रभु यीशु को गुड फ्राइडे को सलीब पर चडा कर मानवता का अपमान किया गयाथा उसके ठीक दो दिन बाद के सन्डे [ईस्टर]को प्रभु का पुनः जन्म हुआ और पीड़ित जनता की खुशियाँ लौटी| जैसे पवित्र ईस्टर का त्यौहार एक निश्चित तिथि पर नहीं मनाया जाता ठीक उसी प्रकार देश में एलेक्शन भी अलग अलग तिथियों में कराये जाते हैं| इमरजेंसी के काले युग को समाप्त करने के लिए ६ अप्रैल १९८० को भाजपा का पुनर जन्म हुआ और अब आगामी वर्ष में भी Easter के आस पास ही चुनाव होने के संभावना जताई जा रही है|[Reincarnation of B J P ]
प्रस्तुत है एल के अडवाणी के ब्लॉग से :
गत् रविवार 31 मार्च, 2013 ईस्टर सण्डे (रविवार) था- एक अत्यन्त महत्वपूर्ण ईसाई त्योहार। जार्जियन कैलेण्डर के मुताबिक जबकि अन्य सभी ईसाई त्योहार प्रत्येक वर्ष एक निश्चित दिन पर पड़ते हैं परन्तु ईस्टर एक ऐसा त्योहार है जो प्रत्येक वर्ष विभिन्न तिथियों पर पड़ता है।
उदाहरण के लिए अगले वर्ष ईस्टर 20 अप्रैल, 2014 को मनाया जाएगा।
सन् 1980 में गठित भारतीय जनता पार्टी में हम लोगों के लिए ईस्टर सण्डे का विशेष महत्व है। 1980 में ईस्टर 6 अप्रैल के रविवार को पड़ा था जिस दिन नई दिल्ली में श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इसकी नींव रखी थी।
जून 1975 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने समाजवादी पार्टी नेता श्री राजनारायण की याचिका पर निर्णय देते हुए श्रीमती गांधी के लोकसभाई निर्वाचन को रद्द कर दिया था। प्रधानमंत्री श्रीमती गांधी चुनावी कदाचार की दोषी पाई गई थीं और उन्हें अगले 6 वर्षों तक कोई भी चुनाव लड़ने के अयोग्य कर दिया गया था।
इस गंभीर घटनाक्रम के बाद कांग्रेस सरकार ने आंतरिक गड़बड़ियों की आड़ में देश पर आपातकाल थोप दिया था। संविधान प्रदत्त सभी मूलभूत अधिकारों को निलम्बित कर दिया गया, विपक्षी दलों के एक लाख से ज्यादा कार्यकर्ता जेलों में डाल दिए गए और मीडिया का ऐसा दमन किया गया जो ब्रिटिश शासन में भी नहीं हुआ था। आपातकाल लगभग 20 महीने तक रहा।
मार्च, 1977 में जब अगले लोकसभाई चुनाव हुए तो भारतीय मतदाताओं ने स्वतंत्रता के पश्चात् पहली बार कांग्रेस पार्टी को नई दिल्ली की सत्ता से उखाड़ फेंका। उस समय के कांग्रेस (ओ) के अध्यक्ष श्री मोरारजी भाई देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी।
यद्यपि सन् 1952 के बाद से हुए सभी संसदीय चुनावों में एक प्रचारक या फिर एक प्रत्याशी के रूप में मैंने भाग लिया है परन्तु निस्संकोच मैं कह सकता हूं कि 1977 के चुनाव देश के राजनीतिक इतिहास में सर्वाधिक महत्वपूर्ण रहे हैं। किसी अन्य अवसर पर चुनावों के नतीजों पर भारतीय लोकतंत्र इतना दांव पर नहीं लगा था जितना इन चुनावों में था। यदि कांग्रेस पार्टी यह चुनाव जीत जाती तो भारत के बहुदलीय लोकतंत्र को समाप्त करने के घृण्श्निात षड़यंत्र-आपातकाल- को जनता की वैधता मिल जाती! इसी प्रकार, किसी और अन्य चुनाव में भी भारतीय मतदाताओं के लोकतांत्रिक विवेक की यह बानगी नहीं मिलती। मतदाताओं ने कांग्रेस पार्टी को बुरी तरह से दण्डित किया। पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली, उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे अनेक प्रदेशों में कांग्रेस को एक सीट भी नहीं मिली।
मोरारजी भाई सरकार ज्यादा नहीं चल पाई। अंदरूनी उठापठक के चलते 1979 में यह गिर गई। अगले लोकसभाई चुनाव 1980 में सम्पन्न हुए। जनता पार्टी के हम लोगों को साफ लगता था कि हम बुरी तरह हारेंगे। परन्तु इस उठापठक ने वास्तव में जनता पार्टी की शोचनीय हालत कर दी। सन् 1977 में 298 सीटें जीतने वाली जनता पार्टी 1980 में मात्र 31 सीटों पर सिमट कर रह गई। इन 31 सांसदों में से जनसंघ की संख्या सन् 1977 में 93 की तुलना में 16 रह गई।
1980 के चुनावों के शीघ्र पश्चात् जनता पार्टी की कार्यकारिणी की बैठक बुलाई गई जिसमें यह तय हुआ कि पार्टी की संगठनात्मक वृध्दि पर ज्यादा ध्यान दिया जाए। पार्टी कार्यकारिणी ने जनता पार्टी का सदस्यता अभियान चलाने का भी फैसला किया ताकि निर्धारित कार्यक्रम के मुताबिक पार्टी के चुनाव कराए जा सकें। मैं मानता हूं कि इसी निर्णय ने पार्टी के कुछ वर्गों को आशंकित कर दिया जिसे बाद में दोहरी सदस्यता विरोधी अभियान के रूप में जाना गया। यह अभियान जनसंघ के पूर्व सदस्यों के विरूध्द था जिनके बारे में आरोप लगाया गया कि वे केवल जनता पार्टी के सदस्य नहीं हैं अपितु राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के भी सदस्य हैं। यह सभी को विदित था कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक राजनीतिक दल नहीं है। यह ऐसा था कि किसी कांग्रेसी जो आर्यसमाजी भी है, पर दोहरी सदस्यता का आरोप लगाया जाए! शीघ्र ही यह कानाफूसी अभियान शुरू हो गया कि यदि पूर्व जनसंघियों को राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ से सम्बन्ध रखने दिया गया तो मुस्लिम मतदाता पार्टी से विलग हो जाएंगे।
दोहरी सदस्यता के मुद्दे पर हुए तीखे विवाद पर एक सही परामर्श प्रख्यात गांधीवादी और स्वतंत्रता-सेनानी अच्युत पटवर्धन ने दिया। उन्होंने 9 जून, 1979 को ‘इंडियन एक्सप्रेस‘ में ‘जनता, आर.एस.एस. ऐंड द नेशन‘ शीर्षक वाले लेख में लिखा-‘आपाताकल के विरूध्द जन-संघर्ष में महान् योगदान की क्षमता के कारण भारतीय जनसंघ को जनता पार्टी के प्रमुख घटक के रूप में शामिल किया गया था। आपातकाल की समाप्ति के बाद से अब तक जनसंघ और या संघ ने ऐसा क्या क्या किया, जिसने श्री मधु लिमये और श्री राजनारायण तथा उनके समर्थकों को इन्हें बदनाम करने का एक उग्र अभियान छेड़ने के लिए प्रेरित किया?
श्री वाजपेयी, श्री नानाजी देशमुख और मैंने इस दोहरी सदस्याता के अभियान का प्रखर विरोध किया। पार्टी की बैठकों में, मैंने कहा कि हमारे साथ पार्टी में ऐसा व्यवहार किया जा रहा है, जैसे मानों हम अस्पृश्य हों। मेंने आगे कहा:
‘जनता पार्टी के पांच घटक थे- कांग्रेस (ओ), भारतीय लोकदल, सोशलिस्ट पार्टी, सी.एफ.डी. और जनसंघ। राजनीतिक दृष्टि से कहें तो इनमें से पहले चार द्विज थे, जबकि जनसंघ की स्थिति हरिजन जैसी थी, जिसे परिवार में शामिल किया गया हो।
वर्ष 1977 में इसे पार्टी में स्वीकार करते समय काफी हर्षोल्लास था। पर समय बीतने के साथ परिवार में एक ‘हरिजन‘ की उपस्थिति ने समस्याएं शुरू कर दीं। ऐसा सोचने वाला मैं अकेला नहीं था बल्कि देश भर में पूर्ववर्ती जनसंघ के लाखों कार्यकर्ताओं और समर्थकों की गूंज इसमें शामिल थी। फरवरी-मार्च 1980 में जनसंघ के एक वरिष्ठ पदाधिकारी सुंदर सिंह भंडारी और मैंने देश भर का दौरा कर जमीनी स्तर पर जनता पार्टी के बारे में लोगों के विचार जानने के प्रयास किए। जहां भी हम गए, हमने पाया कि पूर्ववर्ती जनसंघ के कार्यकर्ताओं में इस बात को लेकर घोर आपत्ति थी कि पार्टी के भीतर उनके साथ दोयम दर्जे का व्यवहार क्यों किया जा रहा है।
जनता पार्टी के नेतृत्व ने दोहरी सदस्यता के मुद्दे पर अंतिम निर्णय करने के उद्देश्य से पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की 4 अप्रैल को बैठक बुलाई। इस बैठक से निकलने वाले नतीजों को भांप पर श्री वाजपेयी और नानाजी सहित हमने जनसंघ के पूर्व सदस्यों का एक सम्मेलन 5 और 6 अप्रैल, 1980 को बुलाया।
जैसाकि अपेक्षित था कि 4 अप्रैल को जनता पार्टी की कार्यकारिणी ने पूर्व जनसंघ के सभी सदस्यों को निष्कासित करने का फैसला लिया। अपनी आत्मकथा में मैंने उल्लेख किया है:
”जनसंघ के हम सभी सदस्यों को जनता पार्टी से निष्कासन का फैसला बड़ी राहत लेकर आया। 5 और 6 अप्रैल, 1980 के दो दिवसीय सम्मेलन ने स्फूर्तिदायक भावना और दृढ़ विश्वास जोड़ा।
दिल्ली के फिरोजशाह कोटला मैदान में 3,500 से अधिक प्रतिनिधि एकत्र हुए और 6 अप्रैल को एक नए राजनीतिक दल ‘भारतीय जनता पार्टी‘ (भाजपा) के गठन की घोषणा की गई। अटल बिहारी वाजपेयी को इसका पहला अध्यक्ष चुना गया। सिकंदर बख्त और सूरजभान के साथ मुझे महासचिव की जिम्मेदारी सौंपी गई।”
इस ब्लॉग की शुरूआत में मैंने ‘ईस्टर सण्डे‘ का संदर्भ दिया जिसे ईसाई दो दिन बाद पड़ने वाले गुडफ्राइडे को त्यौहार के रूप में मनाते हैं, माना जाता है कि इसी दिन यीशु पुनर्जीवित हुए थे। ईस्टर सण्डे को ईसा मसीह के पुनर्जीवित होने का दिन जाना जाता है।
हमारी पार्टी के सम्बन्ध में भी 1980 में गुड फ्राइडे के दिन जनता पार्टी के प्रस्ताव से हमें सूली पर चढ़ाया गया और ईस्टर सण्डे के दिन हम पुनर्जीवित हुए।