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Tag: ल क अडवाणी

ब्लॉगर लाल कृषण अडवाणी ने सोम नाथ मंदिर के उद्घाटन को लेकर कांग्रेस के छद्म धर्म निरपेक्षता को उजागर किया

भाजपा के वयोवृद्ध नेता और पत्रकार लाल कृषण अडवाणी ने अपने ब्लॉग में सोम नाथ मंदिर के उद्घाटन को लेकर कांग्रेस के छद्म धर्म निरपेक्षता को उजागर किया|
अपने नवीनतम ब्लॉग के टेलपीस [पश्च्य लेख] में अडवाणी ने लिखा है कि सोमनाथ मंदिर जब बन कर तैयार हुआ तब तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ राजेंदर प्रसाद को मंदिर का उद्घाटन करने के लिए ज्योतिर्लिन्ग्हम [Jyotirlingam. ] स्थापित करने का आमत्रण दिया गया |इस कार्य के लिए तत्कालीन प्रधान मंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु आपत्ति उठा चुके थे लेकिन प्रधान मंत्री की आपत्ति को दरकिनार करते हुए राजेंद्र बाबू ने यह कहते आमंत्रण स्वीकार किया कि मस्जिद या चर्च में अगर ऐसा आयोजन होता तो भी में सहर्ष स्वीकार करता| अडवाणी ने कहा किहमारा राष्ट्र धर्म विरुद्ध या अधार्मिक नहीं है बल्कि डॉ राजेन्द्र प्रसाद के भाव देश के सच्चे सेकुलरिज्म को दर्शाते हैं | राष्ट्रपति ने अपने प्रधान मंत्री के विरोध के बावजूद धार्मिक अनुष्ठान में मुख्य अथिति की भूमिका निभा कर यह प्रमाणित भी किया .

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राज नाथ सिंह को भाजपा की प्रधानी मिली :माला माल पर भी पहनने वाले का नाम लिखा होता है


झल्ले दी झल्लियाँ गल्ला

एक भाजपाई चीयर लीडर

ओये झाल्लेया मुबारकां देखा हसाडे लोह पुरुष लाल कृषण आडवानी ने पार्टी की छवि सुधारते हुए राजनाथ सिंह को भाजपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनवा कर कांग्रेस की बोलती बंद कर दी | हसाड़े अध्यक्ष नितिन गडकरी को चोर कहते फिरते थे|कांग्रेस की दबंगई तो देखो अब गडकरी के पीछे एन चुनाव के समय आयकर विभाग को लगा दिया |लेकिन हमने भी कच्ची गोलियां नहीं खेली|अगर कांग्रेस वाले डाल डाल हैं तो हम भी पात पात हैं|अब राज नाथ सिंह के बारे कोई कुछ बोल के तो दिखाए| अब बीजेपी में किसी अनैतिक कार्य से किसी तरह का समझौता नहीं होनेपायेगा| सुशासन के लिए समर्पित अनैतिक आचरण से समझौता नहीं किया जायेगा |.ओये हसाड़े अडवानी जी ने कहा है ” राजनाथ सिंह 2014 की लड़ाई जितवाएंगे”.भाई राज नाथ जी यूं पी के मुख्य मंत्री रहे हैं और वहां लोक सभा की ८० सीटें हैंऔरकेंद्र में सरकार बनवाने में यूं पी की हमेशा मुख्य भूमिका रही है| एन डी ऐ के घटक दलों ने भी राजनाथ सिंह की ताज पोशी पर हामी भर दी है| अब एन डी ऐ भी मजबूत होकर उभरेगा| ठाकुर साहेब नेहिन्दुओं के खिलाफ बोलने वाले गृह मंत्री शिंदे पर शिकंजा कसते हुए कह दिया है “शिंदे पूरे देश की हवा में जहर घोलना चाहते हैं और इस बयान के विरोध में पार्टी ने कल से सारे देश में आंदोलन चलाने का फैसला किया है”

राज नाथ सिंह को भाजपा की प्रधानी मिली

झल्ला

खैर मुबारक जी राज नाथ जी की इस अप्रत्याशित +अघोषित+ दोबारा[ निर्विरोध] ताज पोशी ने यह एक बार फिर साबित कर दिया है “दाने दाने पर खाने वाले का नाम तोलिखा होता ही है मगर माला माला पर पहनने वाले गले का और फ्लावर बुके लेने के लिए हाथों का नाम भी लिखा होता है| गडकरी को रोक कर अपने गुट के किसी को अध्यक्ष नहीं बनवा पाने और और राज नाथ सिंह की नजदीकी आपके आर एस एस के साथ होने से यह भी साबित हो गया “भाजपा में होइय्ये वोहे जो संघ रची राखा ”

एल के अडवाणी के नज़रिए से तवलीन सिंह की १० जनपथी “दरबार”

पत्रकार तवलीन सिंह द्वारा गांधी परिवार पर लिखित पुस्तक ‘दरबार‘ पर एल के अडवाणी ने अपने ब्लॉग में प्रतिक्रिया देते हुए पुस्तक को अत्यन्त ही रोचक पठनीय बताया है|इस पुस्तक में पूर्व प्रधान मंत्री स्वर्गे राजिव गाँधी के उत्थान और फिर पतनके माध्यम से 10 जनपथ[कांग्रेस अध्यक्ष] की रहस्यात्मकता या गुप्तता” को उजागर करने का प्रयास किया गया है|

एल के अडवाणी के नज़रिए से तवलीन सिंह की १० जनपथी “दरबार”

प्रस्तुत है अडवानी के ब्लाग से उद्दत दरबार पर उनकी यह प्रतिक्रया ।
तहलका जैसी पत्रिकाओं ने प्रकाशित किया है कि यह पुस्तक गांधी परिवार के विरूध्द ”पुराने हिसाब किताब चुकाने” के उद्देश्य से लिखी गई एक गपशप है। जबकि दूसरी और दि एशियन एज ने पुस्तक की समीक्षा ‘दिल्ली दरबार के रहस्यपूर्ण वातावरण से पर्दा उठना‘ (Unraveling the mystique of Delhi’s Durbar) शीर्षक से प्रकाशित की है। हालांकि कोई भी इससे इंकार नहीं कर सकता कि तवलीन की नवीनतम पुस्तक अत्यन्त ही रोचक पठनीय है।
‘एशियन एज‘ में समीक्षक अशोक मलिक की यह टिप्पणी बिल्कुल सही है कि अपनी सारी पहुंच के बावजूद राजधानी में राजनीतिक पत्रकार अक्सर लुटियन्स दिल्ली के लिए अंतत: बाहरी ही रहते हैं। कम से कम 10 जनपथ के संदर्भ में यह शत-प्रतिशत सत्य है।
अनगिनत समस्याओं वाला भारत एक विशाल देश है। संविधान और कानून सरकार को देश का शासन प्रभावी ढंग से चलाने की सभी जिम्मेदारी प्रदान करते हैं। जैसाकि सभी लोकतंत्रों में लोकतांत्रिक तंत्र का मुखिया प्रधानमंत्री होता है। लेकिन देश में सभी जानते हैं कि आज के भारत में मुखिया प्रधानमंत्री नहीं अपितु कांग्रेस अध्यक्ष हैं। यही वह स्थिति है जो इन दिनों देश की अनेक समस्याओं की मूल जड़ है।
यह पुस्तक अपने पाठकों को बताती है कि एक समय था जब इसकी लेखक का न केवल राजीव गांधी के साथ अपितु श्रीमती सोनिया गांधी के साथ भी घनिष्ठ सम्बन्ध था। तब अचानक यह निकटता समाप्त हो गई। अशोक मलिक लिखते हैं : तवलीन की पुस्तक हमें ”10 जनपथ की रहस्यात्मकता या गुप्तता” को समझने में सहायता करती है।
मलिक द्वारा ”इंदिरा गांधी हत्याकाण्ड में राजीव के और सोनिया के सामाजिक मित्रों को फंसाने के विचित्र दुष्टताभरे अभियान” की ओर इंगित करने ने ‘मुझे पुस्तक के अध्याय 14 के उन सभी आठ पृष्ठों को पढ़ने को बाध्य किया‘ जिनपर मलिक की टिप्पणी आधारित है। तवलीन से भी इस सम्बन्ध में इंटेलीजेंस ब्यूरो (आई0बी0) ने पूछताछ की थी। इस प्रकरण के सम्बन्ध में तवलीन का अंतिम पैराग्राफ हमारी गुप्तचर एजेंसियों की काफी निंदा करता है:

”जांच के अंत में, हमारी गुप्तचर एजेंसियों के स्तर के बारे में मुझे गंभीर चिंता हुई। इसलिए मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ जब कुछ महीने बाद यह जांच कि भारत के प्रधानमंत्री की हत्या में कोई बड़ा षडयंत्र था, को चुपचाप समाप्त होने दिया गया।”
312 पृष्ठों वाले इस संस्मरण की शुरूआत में लेखक का चार पृष्ठीय ‘नोट‘ है। इस पुस्तक में तवलीन सिंह की टिप्पणियों से आप असहमत हो सकते हैं और उनके कुछ निष्कर्षों को चुनौती दे सकते हैं। लेकिन मुझे उनके इस शुरूआती ‘नोट‘ में दम लगता है जिसे इस अंतिम पैराग्राफ में सारगर्भित ढंग से समाहित किया गया है:
”दरबार लिखना मुश्किल था। राजीव गांधी की मृत्यु के तुरंत बाद मैंने इसे लिखना शुरू किया। मैं उन्हें तब से जानती थी जब वह एक राजनीतिज्ञ नहीं थे और अपने को मैंने इस अनोखी स्थिति में पाया कि उन्हें यह बता सकूं कि कैसे भारतीय इतिहास में सर्वाधिक प्रचण्ड बहुमत वाला प्रधानमंत्री अंत में कैसे निराशाजनक स्थिति में पहुंचा। केवल इसलिए नहीं कि मैं भी उस छोटे से सामाजिक ग्रुप का हिस्सा थी जिसमें वह भी थे, लेकिन इसलिए कि एक पत्रकार के रूप में मेरा कैरियर इस तरह से बदला कि मैंने उस भारत को देखा जो राजीव के एक राजनीतिज्ञ के रूप में लगभग समानांतर चलता रहा था। तब मुझे लगा कि उन्होंने भारत की अपेक्षाओं को पूरा नहीं किया लेकिन जब मैं इस पुस्तक को लिखने बैठी तो मुझे अहसास हुआ कि वही अकेले नहीं थे जिन्होंने भारत को शर्मिंदा किया। एक समूचे सत्तारूढ़ वर्ग ने ऐसा किया। वह सत्तारूढ़ वर्ग जिससे मैं भी सम्बन्धित हूं।

जैसे कहानी आगे बढ़ती है यह मानों मेरे अपने जीवन का दर्पण है, राजनीतिज्ञ के रूप में राजीव के संक्षिप्त जीवन और कैसे वंशानुगत लोकतंत्र के बीज बोए गए-का ही यह एक संस्मरण नहीं है बल्कि एक पत्रकार के रूप में मेरा भी है। मैंने पाया कि पत्रकारिता की स्पष्ट दृष्टि ने उस देश को समझने के मेरे नजरिए को बदला जिसमें मैं अपने सारे जीवन भर रही हूं। और इसने मूलभूत रूप से उस नजरिए को बदला जिसमें मैं उन लोगों को देख सकी जिनके साथ मैं पली-बढ़ी। मैंने देखा कि कैसे वे भारत से अलिप्त हैं, उसकी संस्कृति और इतिहास उनके लिए कैसे विदेशी हैं, और इसी के चलते वे पुनर्जागरण और परिवर्तन लाने में असफल रहे। मैंने देखा कि एक पत्रकार के रूप में मेरे जीवन ने उन द्वारों को खोला जिनसे मुझे लगातार शर्म महसूस हुई कि कैसे मेरे जैसे लोगों ने भारत के साथ विश्वासघात किया है। मैं मानती हूं कि इसी के चलते भारत को उसके सत्तारूढ़ वर्ग ने शर्मिंदा किया है और वह वैसा देश नहीं बन पाया जैसा उसे बनना चाहिए था। यदि हम कम विदेशी होते और भारत की भाषाओं और साहित्य की महान संपदा, राजनीति और शासन सम्बन्धी उसके प्राचीन मूलग्रंथों और उसके ग्रंथों के बारे में और ज्यादा सचेत होते तो हम अनेक चीजों में परिवर्तन कर पाते लेकिन हम असफल रहे और अपने बच्चों कीे उनके ही देश में अपनी तरह, विदेशियों की तरह पाला। सभी विदेशी चीजों पर मंत्रमुग्ध और सभी भारतीय चीजों का तिरस्कार।
एक नया सत्तारूढ़ वर्ग धीरे से पुराने का स्थान ले रहा है। एक नयी, अभद्र राजनीतिज्ञों का वर्ग सत्ता पर नियंत्रण हेतु सामने आ रहा है। किसानों और चपरासियों के बच्चे और उन जातियों जो कभी अस्पृश्य माने जाते थे, की संतानें भारत के कुछ बड़े प्रदेशों पर शासन कर चुके हैं। लेकिन पुराने सत्तारूढ़ की बराबरी की चेष्टा में वे अपने बच्चों को अंग्रेजी पढ़ाते हैं और उन्हें पश्चिम के विश्वविद्यालयों में भेजते हैं। इसमें भी कोई हर्जा नहीं है बशर्ते कि वे उन्हें अपनी भाषाओं और संस्कृति से विमुख नहीं करते हों।
एक भारतीय पुनर्जागरण की संभावना, जैसाकि पहली पीढ़ी के उन भारतीयों जो उपनिवेश के बाद के भारत में पली-बढ़ी है, हमारी हो सकती थी और सिमटती और दूर होती जा रही है। सत्तारूढ़ वर्ग के हाथों में एक राजनीतिक हथियार-वंशवाद, देश जिसकी आत्मा पहले से ही शताब्दियों से गहरे ढंग से दागदार है के नए उपनिवेश का मुख्य स्त्रोत बनता जा रहा है। यह वह मुख्य कारण है जिसके चलते तेजी से विस्तारित और फैलते शिक्षित मध्यम वर्ग का लोकतंत्र और लोकतांत्रिक संस्थाओं से मोहभंग होता जा रहा है।
तवलीन की इन पंक्तियों ने मुझे लार्ड मैकाले द्वारा फरवरी 1835 में ब्रिटिश संसद में की गई टिप्पणियों का स्मरण करा दिया:

”मैंने पूरे भारत की यात्रा की और ऐसा व्यक्ति नहीं देखा जो कि भिखारी हो या चोर हो। इस तरह की संपत्ति मैंने इस देश में देखी है, इतने ऊंचे नैतिक मूल्य, लोगों की इतनी क्षमता, मुझे नहीं लगता कि कभी हम इस देश को जीत सकते हैं, जब तक कि हम इस देश की रीढ़ को नहीं तोड़ देते, जो कि उसकी सांस्कृतिक और आध्यात्मिक विरासत में है। इसलिए मैं प्रस्ताव करता हूं कि हमें इसकी पुरानी और प्राचीन शिक्षा-व्यवस्था, इसकी संस्कृति को बदलना होगा। इसके लिए यदि हम भारतीयों को यह सोचना सिखा दें कि जो भी विदेशी है और अंग्रेज है, वह उसके लिए अच्छा और बेहतर है, तो इस तरह से वे अपना आत्मसम्मान खो देंगे, अपनी संस्कृति खो देंगे और वे वही बन जाएंगे जैसा हम चाहते हैं-एक बिल्कुल गुलाम देश।”
मैकाले द्वारा अपनाई गई उपनिवेशवादी नीति अंग्रेजों द्वारा भारत लागू शिक्षा व्यवस्था में विद्यमान थी। इसका प्रभाव स्वतंत्रता के बाद भी बना हुआ है। वे लोग जो केवल हिंदी या कोई भारतीय भाषा बोलते हैं और अच्छी अंग्रेजी नही बोल पाते, उन्हें हमारे देश में निकृष्ट समझा जाता है। मैंने अक्सर इस तथ्य को समझने के लिए अपना उदाहरण दिया है। मैं अपने जीवन के आरंभिक बीस वर्षों में-जो मैंने सिंध में बिताए-बहुत कम हिंदी जानता था। राजस्थान आने के बाद मैंने परिश्रमपूर्वक इसका अध्ययन किया। लेकिन मुझे वर्ष 1957 में दिल्ली आने पर यह अनुभव हुआ कि अंग्रेजी भारत में उंचा स्थान कैसे रखती है
उदाहरण के लिए, जब भी टेलीफोन की घंटी बजती थी और मैं इसे उठाता था, मेरा पहला वाक्य होता था आज भी है-‘हां, जी’ जिसके जवाब में अक्सर उधर से पूछा जाता था, ‘साहब घर में हैं?’ यह मान लिया जाता था कि घर से कोई नौकर बोल रहा है। और मैं उनसे कहता था, ‘आपको आडवाणी से बात करनी है तो मैं बोल रहा हूं।‘

पूर्व प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपई का ८८वां जन्म दिन देश भर में मनाया गया:Bharat Ratn For A B Vajpai Demanded

पूर्व प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपई का ८८ वा जन्म दिन देश भर में मनाया जा रहा है| इस अवसर पर उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किये जाने की मांग की गई है| सेन्ट्रल दिल्ली स्थित उनके निवास पर प्रधान मंत्री डाक्टर मन मोहन सिंह,भाजपा नेता एल के अडवानी,सुषमा स्वराज,नितिन गडकरी,और राजनाथ ने अटल बिहारी वाजपई को जन्म दिन की बधाई दी|
भाजपा शासित मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी को भारत रत्न से सम्मानित किये जाने की मांग की है।श्री चौहान ने वाजपेयी के व्यक्तित्व पर आधारित जनसंपर्क विभाग की प्रदर्शनी का उद्घाटन करने के बाद संवाददाताओं से चर्चा करते हुए कहा कि वाजपेयी ऐसे नेता हैं जिनसे सभी प्यार और आदर करते हैं।बताते चलें कि वाजपेयी का जन्म 25 दिसम्बर, 1924 को पूर्व रियासत, ग्वालियर में हुआ था, जो अब मध्य प्रदेश का हिस्सा है।
वाजपेयी, भाजपा के पूर्व संगठन भारतीय जन संघ के संस्थापक नेताओं में से एक हैं। वह जनता पार्टी की सरकार में वर्ष 1977 में देश के विदेश मंत्री रहे।
वर्ष 1996 में वह सिर्फ 13 दिन के लिए प्रधानमंत्री बने। इसके बाद मार्च 1998 में 13 माह के लिए और फिर अक्टूबर 1999 से मई 2004 के बीच तीसरी बार देश के प्रधानमंत्री रहे। उन्होंने वर्ष 2009 का चुनाव नहीं लड़ा था।आज कल सक्रिय राजनीती से हट कर घर पर ही स्वास्थ्य लाभ ले रहे हैं|
तालकटोरा स्टेडियम में वाजपई जी का जन्म दिन रक्त दान करके मनाया गया
इस मौके पर बरनाला में कार्यकर्ताओं ने सदर बाजार को जोड़ती दो गलियों टूटे वाटे वाली गली व बांसा वाली गली का नाम बदल कर ‘श्री अटल बिहारी वाजपेयी मार्ग’ रख दिया।
इसकी घोषणा भाजपा जिला अध्यक्ष गुरमीत सिंह हंडियाया ने मंगलवार को बरनाला में हुए समारोह को संबोधित करते हुए कही।।
श्री वाजपेयी के 88 वें जन्मदिवस के अवसर पर बलात्कार पीड़ित लड़की को समर्पित रैली के समक्ष अपने संबोधन में पार्टी के वरिष्ठ नेता एम वेंकैया नायडु ने कहा, ‘‘ देश की राजधानी में जो कुछ हो रहा है, वह कानून व्यवस्था के खिलाफ जनता के संचित गुस्से के कारण है। यह केवल इस बलात्कार की घटना के कारण नहीं है।
मेरठ में बी जे पी कार्यकर्ताओं ने हवं करके अपने नेता की लम्बी आयु की कामना की

एल के अडवाणी के ब्लाग से: पटेल के सहयोगी मेनन को भी भुलाया

एन डी ऐ के सर्वोच्च नेता एल के अडवाणी ने अपने ब्लॉग में जर्मन लेखिका आलेक्स फॉन टूनसेलमान की पुस्तक इण्डियन समर के हवाले से भारत के एकीकरण के इतिहास को खंगाला है
पुरस्कार विजेता इतिहासकार विलियम डलरिम्पल ने इस पुस्तक को ‘एक श्रेष्ठ कृति‘ और ”स्वतंत्रता तथा भारत व पाकिस्तान विभाजन पर अडवाणी ने उत्तम पुस्तक” के रुप में वर्णित किया है।में भी इतिहास का छात्र रहा हूँ संभवत इसीलिए यह ब्लाग ख़ास रूचिकर लगा| मुझे इस पुस्तक की एक विशेषता यह लगी कि आज़ादी के बाद विभाजित देश को संयुक्त भारत राष्ट्र बनाने के लिए अभी तक सरदार वल्लभ भाई पटेल और जवाहर लाल नेहरू का ही जिक्र किया जाता रहा है| इतिहास रचने में उल्लेखनीय भूमिका निभाने वाले अनेको देश भक्तों को अँधेरे में धकेला जा चुका है कांग्रेस पार्टी के ही गुलजारी लाल नंदा+सरदार पटेल+ लाल बहादुर शास्त्री + महात्मा गांधी के अपने परिवार आदि आदि को वोह सम्मान नहीं मिला जिसके वोह हक़दार थे| मगर इस इस ब्लॉग में पटेल कि मृत्यु के उपरान्त गुमनामी में धकेले गए वापल पनगुन्नी मेनन[ वी पी मेनन] के योगदान का भी अच्छा ख़ासा उल्लेख है| कहा जाता है कि इतिहास से सबक लेना चाहिए उससे छेड़ छाड़ नहीं की जानी चाहिए इसीलिए बिना छेड़ छाड़ के प्रस्तुत है एल के अडवानी के ब्लाग से

एल के अडवाणी के ब्लाग से:


जब भारत पर अंग्रेजी राज था तब देश एक राजनीतिक इकाई नहीं था। इसके दो मुख्य घटक थे: पहला, ब्रिटिश भारत; दूसरा, रियासतों वाला भारत। रियासतों वाले भारत में 564 रियासतें थी।
वी.पी. मेनन की पुस्तक: दि स्टोरी ऑफ इंटग्रेशन ऑफ दि इण्डियन स्टेट्स में प्रसिध्द पत्रकार एम.वी. कामथ ने लेखक के बारे में यह टिप्पणी की है:
”जबकि सभी रियासतों-जैसाकि उन्हें पुकारा जाता था-को भारत संघ में विलय कराने का श्रेय सरदार को जाता है, लेकिन वह भी ऐसा इसलिए कर पाए कि उन्हें एक ऐसे व्यक्ति का उदार समर्थन मिला जो राजाओं की मानसिकता और मनोविज्ञान से भलीभांति परिचित थे, और यह व्यक्ति कौन था? यह थे वापल पनगुन्नी मेनन-वी.पी. मेनन के नाम से उन्हें जल्दी ही पहचाना जाने लगा।”
”वीपी के प्रारम्भिक जीवन के बारे में कम जानकारी उपलब्ध है। एक ऐसा व्यक्ति जो सभी व्यवहारिक रुप से पहले, अंतिम वायसराय लार्ड लुईस माउंटबेटन और बाद में,, भारत के लौह पुरुष महान सरदार वल्लभ भाई पटेल के खासमखास बने, ने स्वयं गुमनामी में जाने से पहले अपने बारे में बहुत कम जानकारी छोड़ी। यदि वह सत्ता के माध्यम से कुछ भी पाना चाहते तो जो मांगते मिल जाता।”
यह पुस्तक वी.पी. मेनन द्वारा भारतीय इतिहास के इस चरण पर लिखे गए दो विशाल खण्डों में से पहली (1955) है। दूसरी पुस्तक (1957) का शीर्षक है: दि ट्रांसफर ऑफ पॉवर इन इण्डियाA
जिस पुस्तक ने मुझे आज का ब्लॉग लिखने हेतु बाध्य किया, उसमें रियासती राज्यों के मुद्दे पर ‘ए फुल बास्केट ऑफ ऐप्पल्स‘ शीर्षक वाला अध्याय है। इस अध्याय की शुरुआत इस प्रकार है:
”18 जुलाई को राजा ने लंदन में इण्डिया इंटिपेंडेंस एक्ट पर हस्ताक्षर किए और माउंटबेटन दम्पति ने अपने विवाह की रजत जयंती दिल्ली में मनाई, पच्चीस वर्ष बाद उसी शहर में जहां दोनों की सगाई हुई थी।”
यह पुस्तक कहती है कि रियासती राज्यों के बारे में ब्रिटिश सरकार के इरादे ”अटली द्वारा जानबूझकर अस्पष्ट छोड़ दिए गए थे।” माउंटबेटन से यह अपेक्षा थी कि वह रियासतों की ब्रिटिश भारत से उनके भविष्य के रिश्ते रखने में सही दृष्टिकोण अपनाने हेतु सहायता करेंगे। नए वायसराय को भी यह बता दिया गया था कि ‘जिन राज्यों में राजनीतिक प्रक्रिया धीमी थी, के शासकों को वे अधिक लोकतांत्रिक सरकार के किसी भी रुप हेतु तैयार करें।”
माउन्टबेंटन ने इसका अर्थ यह लगाया कि वह प्रत्येक राजवाड़े पर दबाव बना सकें कि वह भारत या पाकिस्तान के साथ जाने हेतु अपनी जनता के बहुमत के अनुरुप निर्णय करें। उन्होंने पटेल को सहायता करना स्वीकार किया और 15 अगस्त से पहले ‘ए फुल बास्केट ऑफ ऐपल्स‘ देने का वायदा किया।
9 जुलाई को स्टेट्स के प्रतिनिधि अपनी प्रारम्भिक स्थिति के बारे में मिले। टुनसेलमान के मुताबिक अधिकांश राज्य भारत के साथ मिलना चाहते थे। ”लेकिन सर्वाधिक महत्वपूर्ण राज्यों में से चार-हैदराबाद, कश्मीर, भोपाल और त्रावनकोर-स्वतंत्र राष्ट्र बनना चाहते थे। इनमें से प्रत्येक राज्य की अपनी अनोखी समस्याएं थीं। हैदराबाद का निजाम दुनिया में सर्वाधिक अमीर आदमी था: वह मुस्लिम था, और उसकी प्रजा अधिकांश हिन्दू। उसकी रियासत बड़ी थी और ऐसी अफवाहें थीं कि फ्रांस व अमेरिका दोनों ही उसको मान्यता देने को तैयार थे। कश्मीर के महाराजा हिन्दू थे और उनकी प्रजा अधिकांशतया मुस्लिम थी। उनकी रियासत हैदराबाद से भी बड़ी थी परन्तु व्यापार मार्गों और औद्योगिक संभावनाओं के अभाव के चलते काफी सीमित थी। भोपाल के नवाब एक योग्य और महत्वाकांक्षी रजवाड़े थे और जिन्ना के सलाहकारों में से एक थे: उनके दुर्भाग्य से उनकी रियासत हिन्दूबहुल थी और वह भारत के एकदम बीचोंबीच थी, पाकिस्तान के साथ संभावित सीमा से 500 मील से ज्यादा दूर। हाल ही में त्रावनकोर में यूरेनियम भण्डार पाए गए, जिससे स्थिति ने अत्यधिक अंतर्राष्ट्रीय दिलचस्पी बड़ा दी।”
इस समूचे प्रकरण में मुस्लिम लीग की रणनीति इस पर केंद्रित थी कि अधिक से अधिक रजवाड़े भारत में मिलने से इंकार कर दें। जिन्ना यह देखने के काफी इच्छुक थे कि नेहरु और पटेल को ”घुन लगा हुआ भारत मिले जो उनके घुन लगे पाकिस्तान” के साथ चल सके। लेकिन सरदार पटेल, लार्ड माउंटबेंटन और वी.पी. मेनन ने एक ताल में काम करते हुए ऐसे सभी षडयंत्रों को विफल किया।
इस महत्वपूर्ण अध्याय की अंतिम पंक्तियां इस जोड़ी की उपलब्धि के प्रति एक महान आदरांजलि है। ऑलेक्स फॉन टुनेसलेमान लिखती हैं:
”माउंटबेटन की तरकीबों या पटेल के तरीकों के बारे में चाहे जो कहा जाए, उनकी उपलब्धि उल्लेखनीय रहेगी। और एक वर्ष के भीतर ही, इन दोनों के बारे में तर्क दिया जा सकता है कि इन दोनों ने 90 वर्ष के ब्रिटिश राज, मुगलशासन के 180 वर्षों या अशोक अथवा मौर्या शासकों के 130 वर्षों की तुलना में एक विशाल भारत, ज्यादा संगठित भारत हासिल किया।”
जो जर्मन महिला ने जो अर्थपूर्ण ढंग से लिखा है उसकी पुष्टि वी.पी. मेनन द्वारा दि स्टोरी ऑफ इंटीगिरेशन ऑफ दि इण्डियन स्टेट्स‘ के 612 पृष्ठों में तथ्यों और आंकड़ों से इस प्रकार की है।
”564 भारतीय राज्य पांचवा हिस्सा या लगभग आधा देश बनाते हैं: कुछ बड़े स्टेट्स थे, कुछ केवल जागीरें। जब भारत का विभाजन हुआ और पाकिस्तान एक पृथक देश बना तब भारत का 364, 737 वर्ग मील और 81.5 मिलियन जनसंख्या से हाथ धोना पड़ा लेकिन स्टेट्स का भारत में एकीकरण होने से भारत को लगभग 500,000 वर्ग मील और 86.5 मिलियन जनसंख्या जुड़ी जिससे, भारत की पर्याप्त क्षतिपूर्ति हुई।”
स्टेट्स के एकीकरण सम्बंधी अपनी पुस्तक की प्रस्तावना में वी.पी. मेनन लिखते हैं: यह पुस्तक स्वर्गीय सरदार वल्लभभाई पटेल को किए गए वायदे की आंशिक पूर्ति है। यह उनकी तीव्र इच्छा थी कि मैं दो पुस्तकें लिखूं, जिसमें से एक में उन घटनाओं का वर्णन हो जिनके चलते सत्ता का हस्तांतरण हुआ और दूसरी भारतीय स्टेट्स के एकीकरण से सम्बन्धित हो।

एल के आडवाणी को ८५वे जन्म दिन की वधाईयां :राजनीतिक लालिमा और स्याही का गाढापन बरकरार है

एन डी ऐ के सर्वोच्च नेता+ वरिष्ठ अधिवक्ता और अभी तक युवा पत्रकार लाल चंद किशन चंद आडवाणी को उनके ८५ वें जन्म दिन पर ढेरों वधाईयां | इस ८५वे जन्म दिन पर भी आडवाणी पर पीलापन नहीं छाया है कलम की स्याही के गाड़े पण को हल्का नहीं होने दिया है| उन्होंने अपने न्रेत्त्व की लाली को प्रगट करते हुए अपने पार्टी के अध्यक्ष नितिन गडकरी के गलत कारनामों का पूरजोर विरोध किया और सरदार वल्लभ भाई पटेल की जीवनी के एक अंश का अपने ब्लॉग में उल्लेख करके कांग्रेस की नीतिओं की धज्जियां उधेड़ी हैं|
गौरतलब है कि भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी के ऊपर भ्रष्टाचार और गलत ब्यान बाजी के आरोप लग रहे है ऐसे में भजपा के जेठमलानी परिवार और एल के अडवानी द्वारा अध्यक्ष का पूर जोर विरोध मीडिया की सुर्खियाँ बना हुआ है| आज सुबह जन्म दिन की बधाई देने गडकरी अडवानी के निवास पर पहुंचे और अपनी स्थिति स्पष्ट की इसे एल के आडवानी के नजरिये की जीत माना जा रहा है | भाजपा का एक धडा नितिन के इस्तीफे का विरोध करते हुए इसमें पार्टी की छवि के धूमिल होने की आशंका से ग्रसित है जबकि दूसरों का मानना है कि अध्यक्ष के इस्तीफे से न केवल पार्टी की छवि सुधरेगी बल्कि भ्रष्टाचार के आरोपण से घिरी कांग्रेस की अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गांधी पर भी हमलावर होने का अवसर मिलगा| एल के आडवाणी को ८५वे जन्म दिन की वधाईयां :राजनीतिक लालिमा और स्याही का गाढापन बरकरार है [/caption
एल के आडवाणी वरिष्ठ पत्रकार है मगर उन्होंने पत्रकारिकता की नई विधा ब्लॉग को लिखने की शुरुआत सात जनवरी २००९ से की हैजिसके माध्यम से विसंगतियों पर आक्रमण के साथ अपना राजनितिक[विपक्ष] धर्म भी निभा रहे हैं| अपने नवीनतम ब्लाग में प्रथम प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू की पहले गृह मंत्री सरदार पटेल के प्रति इर्ष्या डाह का चित्रण किया है और नेहरू की नीतिओं की आलोचना की है|
आडवाणी ने अपने ब्लॉग में ३० अक्टूबर , २०१२ को ,पायनीयर में छपी एक नई स्टोरी का उल्लेख किया है| सरदार पटेल कि जन्म शती[१३७] पर छापी गई इस स्टोरी में हैदराबाद के भारत में विलय को लेकर नेहरू की तुष्टिकरण की नीति को उजागर किया गया है|इसमें लिखा गया है कि नेहरू जान बूझ कर हैदराबाद को भारत में शामिल करने के पटेल के प्रयासों को विफल कर देना चाहते थे |इस न्यूज स्टोरी में बताया है कि हैदराबाद के विलय को लेकर सरदार पटेल हैदराबाद की निजी सेना के निरंकुश अत्याचारी २ ,०० ,००० रजाकारों से मुकाबिला करके हैदराबाद को अन्यायी निजाम से मुक्त करना चाहते थे जबकि नेहरू इस मामले को संयुक्त राष्ट्र में ले जाना चाहते थे|इसी लिए आयोजित एक भरी केबिनेट मीटिंग में नेहरू ने तत्कालीन उप प्रधान मंत्री पटेल का अपमान करते हुए उन्हें कम्म्युनालिस्ट बताया |इस अपमान का पटेल के दिल पर गहरा असर हुआ और उसके बाद उन्होंने कभी केबिनेट की मीटिंग अटेंड नहीं की|
इस पर भी नेहरू के व्यवहार में कोई बदलाव नहीं आया| दिसम्बर १५ , १९५० को सरदार पटेल के निधन पर नेहरू ने दो नोट तैयार करके भेजे एक नोट में सरदार पटेल द्वारा इस्तेमाल की जा रही ऑफिसियल किडिलैक कार [ Cadillac ] को वापिस मंगवाने का आदेश दिया गया था और दूसरे नोट में , सरका र के सचिवों को यह हिदायत दी गई थी कि अगर वोह पटेल की अंतिम संस्कार में जाना चाहते हैं तो अपने खर्चे से जायेंगे | उस समय वी पी मेनन ने सारा खर्चा ]स्वयम अपनी जेब से उठाया

    एल के अडवाणी ने पी एम् की रेस से फाईनली नाम वापिस लिया

एल के अडवाणी ने आज अपने ८५ वें जन्म दिन पर प्रधान मंत्री पद की रेस से अपना नाम फायनली हटा लिया |उन्होंने कहा है कि पी एम् के पद से पार्टी ज्यादा अहम है|सम्भवत इस त्याग से उन्होंने आरोपों से घिरे नितिन गडकरी और उन्हें बचाने वाले आर एस एस को भी एक सन्देश दे दिया है|उन्होंने एनडीए का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार होने की सारी अटकलों को खारिज कर दिया। आडवाणी ने कहा, ‘पार्टी और देश ने मुझे बहुत कुछ दिया है। यह प्रधानमंत्री बनने से कहीं ज्यादा है।’
प्रधानमंत्री बनने की आडवाणी की इच्छा पर खूब चींटा कसी होती रहती है कि प्रधानमंत्री बनने की उनकी इच्छा अधूरी ही रह गई।
एनडीए की तरफ से प्रधानमंत्री पद का कोई उम्मीदवार फिलहाल तय नहीं हुआ है, लेकिन नरेंद्र मोदी का नाम अक्सर उछाला जाता है। और जब जब ऐसा होता है, तो मोदी के विरोधी माने जाने वाले लोग आडवाणी का नाम उछाल कर मोदी की अहमियत कम करने की कोशिश करते हैं। कुछ वक्त पहले जब इस बात की काफी चर्चा थी कि मोदी एनडीए के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हो सकते हैं, तब बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने लाल कृष्ण आडवाणी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बता दिया था। इससे पहले अपने ब्लॉग में भी अडवानी ने अगला प्रधान मंत्री गैर भाजपाई और गैर कांग्रेसी बन्ने की भविष्य वाणी की है|