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जनसंघ के पूर्व अध्यक्ष+वयोवृद्ध प्रो.बलराज मधोक[९३] नहीं रहे

[नयी दिल्ली]जनसंघ के पूर्व अध्यक्ष+वयोवृद्ध प्रो.बलराज मधोक नहीं रहे |वे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् [एबीवीपी]के संस्थापक सचिव भी थे।
भारतीय जनसंघ के पूर्व अध्यक्ष और आरएसएस के दिग्गज नेता बलराज मधोक[९६] का आज एम्स में निधन हो गया।
मधोक कुछ समय से बीमार चल रहे थे और एक महीने से एम्स में भर्ती थे जहां आज सुबह नौ बजे उनका निधन हो गया। आज शाम में उनका अंतिम संस्कार किया जाएगा।
दो बार सांसद रहे श्री मधोक ने 1961 और 1967 में क्रमश: दिल्ली एनसीटी और दक्षिण दिल्ली का दूसरे और चौथे लोकसभा में प्रतिनिधित्व किया था।
वर्ष 1966 में उन्हें भारतीय जनसंघ का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया।
वह नयी दिल्ली के पीजीडीएवी कॉलेज में इतिहास विभाग में शिक्षक थे और 1947..48 में उन्होंने ‘‘आर्गेनाइजर’’ तथा 1948 में उन्होंने ‘‘वीर अजरुन’’ हिंदी साप्ताहिक का संपादन किया। वह जम्मू,कश्मीर प्रजा परिषद् के संस्थापक सचिव भी थे।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मधोक के निधन पर दुख जताया है और कहा कि उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता मजबूत थी, विचारों में सुस्पष्टता थी और उन्होंने नि:स्वार्थ भाव से खुद को राष्ट्र और समाज को समर्पित कर दिया था।
मोदी ने ट्वीट किया, ‘‘जनसंघ के दिग्गज नेता श्री बलराज मधोक के दुखद निधन पर शोक जताता हूं। बलराज मधोक जी की वैचारिक प्रतिबद्धता मजबूत थी और विचार काफी स्पष्ट थे। वह नि:स्वार्थ भाव से देश और समाज की सेवा में समर्पित थे।’’
उन्होंने ट्वीट किया, ‘‘कई मौके पर बलराज मधोक जी से वार्तालाप करने का अवसर मिला। उनका निधन दुखद है। उनके परिवार के प्रति संवेदना। भगवान उनकी आत्मा को शांति दे।
वे गणमान्य शिक्षाविद, विचारक, इतिहासवेत्ता, लेखक एवं राजनीतिक विश्लेषक भी हैं।
उनका जन्म २५ फ़रवरी १९२० को जम्मू एवं काश्मीर राज्य के अस्कार्डू में हुआ था। उनकी उच्च शिक्षा लाहौर विश्वविद्यालय में हुई।
१८ वर्ष की आयु में ही वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सम्पर्क में आये। सन १९४२ में भारतीय सेना में सेवा (कमीशन) का प्रस्ताव ठुकराते हुए उन्होने आर एस एस के प्रचारक के रूप में देश की सेवा करने का व्रत लिया।उन्होंने ३० से अधिक किताबें लिखी हैं
फरवरी, 1973 में कानपुर में जनसंघ की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सामने एक नोट पेश किया। उस नोट में मधोक ने आर्थिक नीति, बैंकों के राष्ट्रीयकरण पर अपनी अलग बातें कही थीं।मधोक ने संगठन मंत्रियों को हटाकर जनसंघ की कार्यप्रणाली को ज्यादा लोकतांत्रिक बनाने की मांग भी उठाई थी। लालकृष्ण आडवाणी उस समय जनसंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे। वे मधोक की इन बातों से इतने नाराज हो गए कि आडवाणी ने मधोक को पार्टी का अनुशासन तोड़ने और पार्टी विरोधी गतिविधियों में शामिल होने की वजह से उन्हें तीन साल के लिये पार्टी से बाहर कर दिया गया। इस घटना से बलराज मधोक इतने आहत हुए थे कि फिर कभी नहीं लौटे।
मधोक जनसंघ के जनता पार्टी में विलय के खिलाफ थे। 1979 में उन्होंने ‘भारतीय जनसंघ’ को जनता पार्टी से अलग कर लिया। उन्होंने अपनी पार्टी को बढ़ाने की हर संभव कोशिश की, लेकिन सफलता हासिल नहीं हुई।

हेमलेट की भूमिका निभाने वाले पहले पी एम् हमेशा स्वयम को जूलियस सीज़र ही बताते रहे: सीधे एल के अडवाणी के ब्लाग से

भाजपा के पी एम् इन वेटिंग और वरिष्ठ पत्रकार लाल कृष्ण अडवाणी ने अपने ब्लॉग में पुस्तकों के माध्यम से अपने पुराने [अब दिवंगत हो चुके] साथियों के यौगदान को याद किया और कांग्रेस की नीतियों की आलोचना की है| प्रस्तुत है सीधे एल के अडवाणी के ब्लाग से:
6 जुलाई को पूरे देश में डा. श्यामा प्रसाद मुकर्जी की जयंती मनाई गई।उस शाम मैंने राष्ट्रीय संग्रहालय सभागार में एक पुस्तक: ”जम्मू-कश्मीर की अनकही कहानी” का लोकार्पण किया।
मेरे जैसे लाखों पार्टी कार्यकर्ता सही ही गर्व करते हैं कि हम एक ऐसी पार्टी से जुड़े हैं जिसका पहला राष्ट्रीय आंदोलन राष्ट्रीय एकता के मुद्दे पर हुआ और राष्ट्रीय एकात्मता के लिए ही हमारी पार्टी के संस्थापक अध्यक्ष ने अपना जीवन न्यौछावर कर दिया। लेकिन हममें से अनेक को यह शायद जानकारी न हो कि हमने जो देशव्यापी संघर्ष शुरु किया था, वह जम्मू-कश्मीर में जनसंघ के 1951 में जन्म से पूर्व ही एक

क्षेत्रीय पार्टी-प्रजा परिषद

ने शुरु किया था जिसका नेतृत्व पण्डित प्रेमनाथ डोगरा के हाथों में था। प्रजा परिषद के संघर्ष और त्याग की अनकही कहानी को देश के सामने लाने के लेखक के निर्णय की मैं प्रशंसा करता हूं।
यह उल्लेखनीय है कि डा. मुकर्जी के बलिदान के बाद, प्रजा परिषद ने जनसंघ में विलय का फैसला किया। कुछ समय बाद, पण्डित डोगरा जनसंघ के अध्यक्ष निर्वाचित हुए।
सात जुलाई को दिल्ली के केशवपुरम में दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री डा. साहिब सिंह वर्मा की छठी पुण्यतिथि के अवसर पर आयोजित भव्य कार्यक्रम में मैंने दिवगंत नेता की प्रतिमा का अनावरण किया और उनकी पुत्री रचना सिंधु द्वारा उनके जीवन तथा उपलब्धियों पर लिखी गई पुस्तक का लोकार्पण किया। देश में दिल्ली पहला स्थान है जहां जनसंघ ने अपनी प्रारम्भिक जड़ें जमाई। लेकिन इससे पार्टी की एक असंतुलित छवि भी बनी कि यह प्रमुख रुप से एक शहरी पार्टी है। इस छवि को सुधारने का श्रेय साहिब सिंहजी को जाता है, साथ ही ग्रामीण दिल्ली के विकास और कल्याण हेतु सुविचारित योगदान का श्रेय भी उनके मुख्यमंत्रित्व काल को जाता है। उनके पुत्र प्रवेश वर्मा द्वारा आयोजित कार्यक्रम में अच्छी संख्या में लोग आए थे। इसमें साहिब सिंह की खूब प्रशंसा हुई, अनेक वक्ताओं ने उन्हें ‘न केवल व्यक्ति अपितु एक संस्थान‘ के रुप में निरुपित किया।
दो दिन पूर्व 12 जुलाई को एक

प्रमुख पत्रकार पी.पी. बालाचन्द्रन की पुस्तक ”ए व्यू फ्राम दि रायसीना हिल”

का मैंने लोकार्पण किया। इस मास के पहले पखवाड़े में यह तीसरी पुस्तक भी जिसे मैंने लोकर्पित किया।
पुस्तक विमोचन के कार्यक्रमों में, मैं अक्सर 1975-77 के आपातकाल में बंगलौर सेंट्रल जेल में अपने बंदी होने का स्मरण कराता हूं। उन बंदी दिनों में एक शब्द ऐसा था जो हम सब साथियों को राहत और आनन्द देता था, और वह शब्द था ‘रिलीज‘। तब से, जब भी कोई मेरे पास पुस्तक को ‘रिलीज‘ करने का अनुरोध लेकर आता है तो मैं शायद ही उसे मना कर पाता हूं।
लेखक का नाम ‘बाला‘ लोकप्रिय है जो स्वयं के परिचय में अपने को ‘एक अनिच्छुक लेखक‘ वर्णित करते हैं, ने मुझे हाल ही में अमेरिकी फिल्म निर्माता मीरा नायर द्वारा निर्मित फिल्म का स्मरण करा दिया। फिल्म पाकिस्तान के मोहसिन हमीद द्वारा लिखित पुस्तक ”दि रिलक्टन्ट फण्डामेंटिलिस्ट” पर आधारित है। मीरा नायर की फिल्म की शीर्षक भी यही है और अनेक समीक्षाओं में इसे सराहा गया है। कनाडा के एक समाचार पत्र नेशनल पोस्ट में प्रकाशित समीक्षा की शुरुआती टिप्पणी इस प्रकार थी: ”ऐसा अक्सर ही होता है कि कोई फिल्म उस पुस्तक को सुधारे जिस पर वह आधारित है, लेकिन मीरा नायर की दि रिलक्टन्ट फण्डामंटिलिस्ट बिल्कुल यह करती है।”
इस समीक्षा में फिल्म का सारांश इस तरह दिया गया है: चंगेज नाम का एक पाकिस्तानी व्यक्ति अमेरिका आता है ताकि वॉल स्ट्रीट में अपना भाग्य बना सके, लेकिन 9/11 के बाद वह अहसास करने लगता है कि वह इसमें फिट नहीं बैठता।
बाला 40 वर्षों से पत्रकारिता में हैं, जैसेकि परिचय में उन्होंने अपने बारे में सही ही लिखा है: ”शायद मैं एकमात्र ऐसा पत्रकार हूं या उन कुछ में से एक हूं जिन्होंने समूचे मीडिया इन्द्रधनुष-समाचारपत्र, पत्रिकाएं, सवांद एजेंसी, रेडियो और टेलीविज़न, तथा वेब (वेबसाइट)- में एक भरोसेमंद स्टाफकर्मी तथा एक गैर भरोसेमंद स्वतंत्र पत्रकार के रुप में काम किया है। इसके अलावा दो पत्रिकाएं मैंने शुरु कीं और सम्पादित की। सत्तर के दशक के शुरुआत में एक व्यापार पत्रिका (यदि यह चलने दी गई होती तो भारत की पहली व्यापार पत्रिका होती) और दूसरी अप्रवासी भारतीयों के लिए एक पाक्षिक पत्रिका, जोकि अपने आप में पहली थी। दोनों वित्तीय पोषण के अभाव में शैशवास्था में ही दम तोड़ गर्इं।
एक विदेशी सवांददाता के रुप में बाला ने सबसे पहले हांगकांग से प्रकाशित साप्ताहिक एशियावीक के लिए काम किया, वह इस महत्वपूर्ण पत्रिका के भारत में पहले स्टाफ सवांददाता बने। बाला कहते हैं कि यह तीन साल तक चला। वह लिखते हैं: ”इसके बाद अनेक अन्य बड़े-बडे अतंरराष्ट्रीय प्रकाशन इस कड़ी जुड़े। उनमें थे रेडियो आस्ट्रेलिया] वांशिगटन पोस्ट, गल्फ न्यूज और रायटर साथ-साथ डेली मेल टूडे जैसे ब्रिटिश साप्ताहिक तथा यूएसए टुडे भी।”
पुस्तक के आवरण पर लेखक की अपनी टिप्पणी बहुत सटीक प्रतीत होती है। वह कहते हैं कि वह तभी लिखते हैं जब वह ‘द्रवित‘ हो उठते हैं, वह आगे लिखते हैं” अनुभव में मुझसे आधे लोग जब अलमारी के एकड़ के ज्यादा हिस्से पर छाए रहते हैं तब मैं केवल एक छोटा सा संग्रह कर पाया हूं जिसे ज्यादा से ज्यादा सम्पादकीय लेखन या निबन्ध वर्णित किया जा सकता है।”
परन्तु मैं इस पुस्तक के प्रकाशक से इस पर पूरी तरह सहमत हूं कि एक लेखक के बारे में निर्णय उसके कार्य के आकार के बजाय उसके लेखन की गुणवत्ता से करना चाहिए। मैं इस 163 पृष्ठीय पुस्तक को थोड़ा पढ़ पाया हूं। उनके द्वारा प्रकट किए गए सभी विचारों से मैं भले ही सहमत नहीं होऊं लेकिन जहां तक उनके लेखन की गुणवत्ता का सम्बन्ध है, मैं अवश्य कहूंगा कि यह शानदार है। अपने परिचय की शुरुआत में अपने बारे में लिखे गए उनके कुछ पैराग्राफ का नमूना यहां प्रस्तुत है। वह कहते हैं:
”लिखने का प्रत्येक प्रयास दिमाग पर धावा बोलना है; और प्रत्येक लेखक अपने निजी आंतरिक विचारों का लुटेरा है; विचारों को वह अपने दिमाग की गहराईयों से लाता है और दुनिया के सामने रखने से पहले उन्हें शब्दों और छवियों में पिरोता है।
निस्संदेह यह अत्यन्त दु:खदायी काम है जहां सारी पीड़ा सिर्फ लेखक की है।
कुछ इसे एक सीरियल किलर के रौब से करते हैं। अन्य इसे एक सजा के रुप में भुगतते हैं जिससे भागने में वे असफल रहे हैं। किसी भी रुप में, यह एक त्याग का काम है, आत्मा की शुध्दि का और इसलिए एक भाव विरेचक अनुभव है।
मैं शब्दों की दुनिया में पत्रकारिता के माध्यम से आया जो केवल लेखन के अलंकृत विश्व के साथ खुरदरा सम्बन्ध रखती है। मैं मानता हूं कि यद्यपि पत्रकारिता में मेरा प्रवेश कभी भविष्य में लेखक बनने की गुप्त इच्छा के बगैर नहीं था, तथापि मैं सोचता हूं कि पत्रकारिता एक ऐसा मार्ग था जो एक लेखक बनने की इच्छा हेतु मार्ग प्रशस्त करती है।
सौभाग्य से या अन्य कारण से प्रत्येक पत्रकार लेखक नहीं बनता। लेकिन जैसे प्रत्येक गणिका पत्नी नहीं बनती। सभी पत्रकार गणिकाएं हैं जो रानियां बनना चाहते हैं: लेकिन दहलीज इतनी चौड़ी है कि उनके यह बनने की प्रगति सदैव सुखद रुप से कम रहती है।”
***आज का ब्लॉग एक पुस्तक के बारे में है जिसे दो दिन पूर्व मैंने विमोचित किया था और जिसके शीर्षक में मैंने लिखा था – ‘अत्यन्त सुंदर ढंग से लिखी गई।‘ लेकिन ब्लॉग अभी तक सिर्फ लेखक के बारे में बोलता है। मैं अपने पाठकों को पुस्तक की सामग्री की एक झलक भी देना चाहता हूं। ब्लॉग के इस हिस्से में मैं पुस्तक से मात्र एक उध्दरण देना चाहता हूं जो हमें बताता है कि कैसे बाला रायसीना हिल की अपनी विशिष्ट स्थिति से भारत के पहले प्रधानमंत्री पण्डित नेहरू, श्रीमती इंदिरा गांधी और श्री अटल बिहारी वाजपेयी को देखते हैं, साथ ही भ्रष्टाचार और परमाणु शक्ति को भी।
पहला उध्दरण शीर्षक ”अवर ट्रायस्ट विद् नेहरूस लैम्प पोस्ट” वाले अध्याय से है। यह कहता है:
पण्डित नेहरू अनेक लोगों के लिए बहुत कुछ थे। वह एक प्रतिभाशाली बैरिस्टर थे जो एक मंहगे वकील बन सकते थे यदि उन्हें पहला पाठ गांधी से न मिला होता तो।
वह संसद में भ्रष्ट न्यायाधीशों या प्रधानमंत्रियों के हत्यारों या उनका भी जिन्होंने करेन्सी नोटो से भरे संदूकों को प्रधानमंत्री को रिश्वत दी थी का बचाव कर रहे होते।
वह एक स्वप्नदर्शी थे जो तब तक नींद में थे जब तक उनके अच्छे दोस्त चाऊ एन लाई ने उन्हें जगा नहीं दिया, भले ही भौण्डे ढंग से क्यों न हो।
और, निस्संदेह वह एक शानदार कलाकार थे जो अपने जीवन भर हेमलेट की भूमिका निभाते रहे और तब भी आभास देते रहे कि वह तो जूलियस सीज़र की भूमिका निभा रहे हैं।
लेकिन इस अधिकांश, और जिसे किसी माप में मापा न जा सके, तो वह हमारे महानतम और सर्वाधिक सफल मध्यस्थ थे, जिन्होंने हमारे लिए बहुप्रतीक्षित हमारी अपनी नियति से हमारा मिलन कराया:
हालांकि हमारी नियति से मिलन तय करते समय, इसे देश के निर्माता नेहरू ने देशभर में कुछ लैम्प पोस्ट खड़े करवाए – हमें बिजली देने के लिए नहीं अपितु भ्रष्टों, कालाबाजारियों और हवाला व्यापारियों को लटकाने के लिए:
उन्हें लटका दो, यदि उन्हें हम खोज सकें। क्योंकि नेहरू सोचते थे कि यह घास के ढेर में सुई ढूंढने जैसा काम होगा, इतना कठिन और इतना अविश्वसनीय। क्योंकि वह सोचते थे कि एक स्वतंत्रता के लिए इतना कड़ा संघर्ष किया गया और इतनी मुश्किल से जीता गया, को इतनी आसानी से नष्ट या बेरंग नहीं किया जा सकता और वह भी उन लोगों द्वारा जिन्होंने इसे बनाया है।
और मात्र 50 वर्षों में इस घास के ढेर की कायापलट होकर यह एक खरपतवार की तरह से आकार और क्रूरता में बढ़ा है, जोकि राष्ट्र की भावना और संवेदनाओं पर प्रहार कर रहा है। 50 वर्षों में, लैम्प पोस्ट एक प्रकार से बदल गई प्रतीत होती हैं उन्हीं राजनीतिज्ञों द्वारा परिवर्तित कर दिया गया है जो इन पर लटकाए जाने वाले थे।
पचास वर्ष पश्चात् अब, जब हम अपने भविष्य से प्रथम महान अर्ध्दरात्रि की मुलाकात का समारोह कर रहे हैं, तब मैं नेहरू को ही उदृत करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूं लेकिन अलग संदर्भ में और किसी अन्य के संदर्भ में – उन अंग्रेजों के बारे में जिन्हें स्वयं नेहरू ने अपने अनोखे अंदाज में स्वतंत्रता के सुदर फूल के रूप में पुकारते थे।
नेहरू ने एक एक ऐसी ही अवसर पर कहा था ”मैं जानता हूं कि ब्रिटिश साम्राज्य में सूर्य क्यों नहीं कभी अस्त होता, क्योंकि ईश्वर अंधेरे में किसी अंग्रेज पर कभी भरोसा नहीं करता।” यह एक निष्कपट विचार है: क्या हमने किसी पर इतना ज्यादा विश्वास नहीं किया जब हम उस अर्ध्दरात्रि की मुलाकात हेतु गए? शायद, हमें यह मुलाकात एक लैम्प पोस्ट के नीचे करनी चाहिए थी जिस पर प्रकाश आ रहा होता।
भारत के एक परमाणु शक्ति बनने पर बाला का टिप्पणियां समान रुप से महत्वपूर्ण हैं, इस लेख का उपशीर्षक है: ”जब वृहत्काय जगा: भारत एक परमाणु शक्ति के रुप में” (When a Giant Wakes up: India as a Nuclear Power)। इसमें लेखक कहते हैं:
अमेरिका के 1500 या रुस के 700 अथवा चीन के 45 विस्फोटों की तुलना में भारत के पांच परमाणु विस्फोटों से आखिर दुनिया में भूकम्प और कूटनीतिक रेडियोधर्मिता पैदा क्यों होनी चाहिए। संभवतया, इसका उत्तर तथाकथित महाशक्तियों के पूर्वाग्रह और भेदभाव वाली मानसिकता में ज्यादा न होकर हमारे अपने सभ्यतागत डीएनए और हमारे लोगों तथा उनके नेताओं-राजनीतिक, सामाजिक और यहां तक कि धार्मिक-की वंशगत भीरुता में है।
हिन्दूइज्म को एक पराजयवादी या एक शांतिवादी जीवन जीने के रुप में गलत परिभाषित करने ने हमारे राष्ट्र-राज्य को स्वयं हिन्दुइज्म की तुलना में ज्यादा नुक्सान पहुंचाया है।
यह अपने आप में साफ करता है कि क्यों पूरी दुनियाभर में थरथराने वाले भूकम्प आया जब यह राष्ट्र, जिसे सदियों से सुस्त शरीर और कमजोर भावना मानकर चला जाता है, जब खड़े होने और अपने जीवन तथा सम्पत्ति का रक्षक बनने का निर्णय किया-जैसाकि 1974 में भारत के पहले परमाणु विस्फोट के समय हुआ।
जब श्रीमती गांधी ने यह निर्णय किया तब वह परमाणु हथियारों और दुनिया पर प्रभुत्व रखने वाले, माने जाने वाले कुछ राष्ट्रों के विरुध्द मात्र खड़ी नहीं हुई थीं। उनकी कोशिश, देश की शांतिवादी परम्परा में व्यवहारगत परिवर्तन लाने की एक बहादुरी वाला प्रयास था। दुर्भाग्य से, यद्यपि 24 वर्ष पूर्व उनका पोखरण विस्फोट कोई ठोस व्यवहारगत परिवर्तन नहीं ला पाया, क्योंकि मुख्य रुप से वह स्वयं, चुनौतियां का सामना करने हेतु राष्ट्र की अन्तर्निहित शक्ति के बारे में अनभिज्ञ थीं।
यह तथ्य कि श्रीमती गांधी का आग्रह कि 1974 का परीक्षण एक शांतिपूर्ण विस्फोट था न कि एक बम-सिर्फ दर्शाता हे कि यह ठोस आधार के अभाव में मात्र एक दिखावा था।
बाद के 24 वर्ष, पहले पोखरण विस्फोट को एक पुरातत्व संग्रह में रखने वाले; और ‘नेक‘ माफ कर देने वाले हिन्दुओं की भांति, हम हमारे राष्ट्र के अतीत के स्वयं के क्षूद्र और बचे-खुचे अवशेष की तरह बने रहे।
जब मई 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी ने किया वह हमें इस पराजित मानसिकता वाली नींद से झकझोर और हमारे राष्ट्रीय गौरव का पुन: दृढ़ता से घोष था। स्वाभाविक रुप से परमाणु मोर्चेबंदी वाले खुश नहीं हुए।
निस्संदेह, सभी एक अच्छे व्यक्ति को पसंद करते हैं लेकिन सभी दृढ़ व्यक्ति का सम्मान करते हैं। अभी भी सभी एक अच्छे ओर दृढ़ व्यक्ति को प्रेम ओर सम्मान करते हैं। एक नेक बृहकाय बच्चों के हीरो का रोमांटिक विचार होने के साथ-साथ व्यस्कों की दुनिया का भी सपना है।
चौबीस वर्ष पश्चात्, अटल बिहारी वाजपेयी ने इसे एक असली हथियार के रुप में बदल दिया है जो राष्ट्र की रक्षा सभी शत्रुओं-चाहें वे असली हों थी माने जाने वाले-से करेगा। बिल क्लिंटन और नवाज शरीफ ने इसे पसंद नहीं किया।
वाजपेयी इन सज्जनों को खुश करने के लिए ‘नेक‘ इंसान बन सकते थे। लेकिन यह एक तथ्य है कि एक नेक इंसान को अक्सर भू-राजनीति की झुलसाने वाली वास्तविकताओं से सामना करना पड़ता है। और वाजपेयी इसे उसी तरह से समझते थे जैसाकि उनकी स्थिति वाले व्यक्ति को पता है, यदि आज भी इस्राइल जिंदा है तो एक यहूदी राष्ट्र होने के नाते, जिसने शुरु से ही एक ‘नेक इंसान‘ न बनने का फैसला किया।

डा. श्यामा प्रसाद के बलिदान को सच्ची श्रधांजलि देने के लिए जम्मू कश्मीर में धारा 370 की समाप्ति जरुरी है :सीधे एल के अडवाणी के ब्लाग से

भाजपाके पी एम् इन वेटिंग और वरिष्ठ पत्रकार एल के अडवाणी ने अपने ब्लॉग में अपने नेता स्वर्गीय डॉ श्यामा प्रसाद मुखेर्जी को श्रधांजली देते हुए जम्मू कश्मीर में धारा ३७० को समाप्त किये जाने पर बल दिया है प्रस्तुत है सीधे एल के अडवाणी के ब्लाग से :
ठीक साठ वर्ष पूर्व 23 जून १९५३ में इसी दिन देश को जम्मू एवं कश्मीर राज्य से ह्दय विदारक समाचार मिला कि डा. श्यामा प्रसाद मुकर्जी अब हमारे बीच नहीं रहे।मुझे अच्छी तरह से स्मरण है कि रात्रि के लगभग 2 बजे या उसके आसपास मैं जयपुर के जनसंघ कार्यालय के बाहर किसी के खटखटाने और रोने की आवाज सुनकर नींद से जागा; और मैंने सुना कि ”आडवाणीजी, उन्होंने हमारे डा. मुकर्जी को मार दिया है!” वह एक स्थानीय पत्रकार था, जिसको टिकर पर यह समाचार मिला और वह अपने को रोक नहीं पाया तथा हमारे कार्यालय आकर इस दु:ख में मेरे साथ शामिल हुआ।
यह समाचार लाखों लोगों के लिए एक गहरा धक्का था। इस वर्ष की शुरुआत में डा. श्यामा प्रसाद की नवगठित पार्टी भारतीय जनसंघ का कानपुर में अखिल भारतीय सम्मेलन सम्पन्न हुआ था। इस सम्मलेन में राजस्थान से एक प्रतिनिधि के रुप में भाग लेने का सौभाग्य मुझे मिला था। यहीं पर फूलबाग में इकठ्ठे हुए हजारों प्रतिनिधियों को डा. मुकर्जी ने यह राष्ट्रभक्तिपूर्ण प्रेरक आह्वान किया था-”एक देश में दो प्रधान, दो निशान, दो विधान, नहीं चलेंगे, नहीं चलेंगे।”
कानपुर में ही पार्टी ने जम्मू एवं कश्मीर के भारत में पूर्ण एकीकरण को लेकर पहला राष्ट्रव्यापी आंदोलन चलाने का संकल्प लिया। डा. मुकर्जी ने तय किया कि वह इस आंदोलन का नेतृत्व आगे रहकर करेंगे-व्यक्तिगत रुप से शेख अब्दुल्ला के द्वारा लागू किए गए परमिट सिस्टम की अवज्ञा कर। उन्होंने यह भी निर्णय किया कि वह इस आन्दोलन के लिए समर्थन जुटाने हेतु देश के विभिन्न हिस्सों में जाएंगे। अपने इस पूर्व-अभियान जोकि रेलगाड़ी के माध्यम से हुआ, में उन्होंने श्री वाजपेयी को अपने साथ रहने को कहा।
उन दिनों मैं राजस्थान के कोटा में था। जब मुझे ज्ञात हुआ कि डा. मुकर्जी और अटलजी कोटा जंक्शन से गुजरेंगे तो मैं उनसे स्टेशन पर मिला। तब मुझे इसका तनिक भी आभास नहीं था कि मैं हमारी पार्टी के महान संस्थापक डा. श्यामा प्रसाद को अंतिम बार देख रहा हूं।
8 मई, 1953 को डा. मुकर्जी दिल्ली से जम्मू जाने के लिए पंजाब रवाना हुए। अमृतसर पर 20,000 से ज्यादा के समूह ने उनका शानदार स्वागत किया। अमृतसर से पठानकोट और वहां से माधोपुर की उनकी यात्रा एक विजयी जुलूस की तरह थी। माधोपुर एक छोटा सा कस्बा है जो पठानकोट सैनिक कैण्ट से करीब बारह किलोमीटर की दूरी पर है। माधोपुर रावी नदी के किनारे पर स्थित है और यही रावी नदी पंजाब को जम्मू एवं कश्मीर से अलग करती है। डा. मुकर्जी, अटलजी के साथ एक जीप पर बैठकर जम्मू-कश्मीर में प्रवेश करने हेतु रावी के पुल की ओर बढे। पुल के बीच में जम्मू एवं कश्मीर पुलिस के एक जत्थे ने जीप को रोका और डा. मुकर्जी से पूछा कि क्या उनके पास परमिट है। डा. मुकर्जी ने नहीं में उत्तर दिया और कहा भारतीय संविधान के तहत प्रत्येक भारतीय नागरिक को देश की किसी भी भाग में जाने की आजादी है। जब पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया तो उन्होंने वाजपेयीजी से कहा ”कृपया आप वापस जाओ और लोगों को बताओ कि मैंने बगैर परमिट के जम्मू एवं कश्मीर राज्य में प्रवेश किया है, भले ही एक कैदी के रुप में।”
यह उल्लेखनीय है कि पठानकोट में पंजाब के वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों ने डा. श्यामा प्रसाद को मिलकर बताया कि उन्हें पंजाब सरकार से निर्देश हैं कि यदि डा. मुकर्जी के पास परमिट नहीं भी हो तो भी उन्हें पुल पर स्थित माधोपुर पोस्ट जाने दिया जाए।
साफ है कि यह केन्द्र सरकार और जम्मू एवं कश्मीर राज्य सरकार का संयुक्त ऑपरेशन था कि डा. मुकर्जी को जम्मू एवं कश्मीर राज्य में बंदी बनाकर रखा जाए न कि पंजाब में।इस सुनियोजित अभियान का परिणाम देश के लिए सदमा पहुंचाने वाली विपदा के रुप में सामने आया। 23 जून, 1953 को राष्ट्र को यह समाचार पाकर सदमा पहुंचा कि डा. मुकर्जी जिन्हें बंदी बनाकर श्रीनगर के एक घर में रखा गया था, अचानक बीमार हुए, और थोड़ी बीमारी के बाद चल बसे!
पश्चिम बंगाल के तत्कालीन कांग्रेसी मुख्यमंत्री डा. विधान चन्द्र राय, डा. मुकर्जी की पूजनीय माताजी श्रीमती जोगोमाया देवी और देश के सभी भागों से अनेकानेक प्रबुध्द नागरिकों ने प्रधानमंत्री कार्यालय को टेलीग्राम और पत्र इत्यादि भेजकर न केवल अपना दु:ख और आक्रोश प्रकट किया अपितु तुरंत जांच कराने की भी मांग की कि यह त्रासदी कैसे घटी। इस राष्ट्रीय आक्रोश का कोई नतीजा नहीं निकला। इस असाधारण व्यक्ति की मृत्यु आज भी रहस्य बनी हुई है। ऐसी किसी अन्य घटना के संदर्भ में, एक औपचारिक जांच सर्वदा गठित की जाती रही हैं। लेकिन इस मामले में नहीं। कोई नहीं कह सकता कि क्या यह मात्र अपराधिक असंवेदनशीलता का मामला है या वास्तव में अपराध बोध का भाव!
****हालांकि, रहस्यमय परिस्थितियों में डा. मुकर्जी की मृत्यु को लेकर उमड़े व्यापक जनाक्रोश के चलते अगले कुछ महीनों में घटनाक्रम तेजी से बदला जिससे राष्ट्रीय एकीकरण की प्रक्रिया महत्वपूर्ण रुप से आगे बढ़ी।
सर्वप्रथम और सर्वाधिक महत्वपूर्ण रहा परमिट सिस्टम की समाप्ति।
उस समय तक न तो सर्वोच्च न्यायालय, न ही निर्वाचन आयोग और न ही नियंत्रक एवं महालेखाकार के क्षेत्राधिकार में जम्मू एवं कश्मीर राज्य नहीं था। इन तीनों संवैधानिक संस्थाओं का क्षेत्राधिकार जम्मू एवं कश्माीर पर भी लागू किया गया। उस समय तक राज्य के मुख्यमंत्री को वजीरे-आजम और राज्य के प्रमुख को सदरे-रियासत कहा जाता था। सैध्दान्तिक रुप से, न तो भारत के राष्ट्रपति और न ही प्रधानमंत्री का इस राज्य पर कोई अधिकार था।
डा. मुकर्जी के बलिदान ने इस स्थिति में भी बदलाव लाया। राज्य में प्रधानमंत्री मुख्यमंत्री बन गये, सदरे-रियासत राज्यपाल बन गये और राष्ट्रपति एवं प्रधानमंत्री के औपचारिक अधिकार जम्मू एवं कश्मीर राज्य पर भी लागू हुए।
एक प्रकार से, इस प्रेरक नारे की तीन मांगों में से एक, दो प्रधान एक हो गए, और यद्यपि दो निशान अभी भी हैं मगर राष्ट्रीय तिरंगा राज्य में ऊपर लहराता है।इसके अलावा, दो प्रधानमंत्री एक बने, दो सर्वोच्च न्यायालय एक हुए, दो निर्वाचन प्राधिकरण एक हुए – यह सब डा. श्यामा प्रसाद के बलिदान के कारण हुआ।
देश व्यग्रता से उस दिन की प्रतीक्षा कर रहा है जब धारा 370 समाप्त होगी और दो विधान भी एक हो जाएंगे!