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14th&Current PM Modi Paid Tributes To Ist PM Nehru

(New Delhi)14th&Current PM Modi Paid Tributes To Ist PM Nehru
Prime Minister Narendra Modi on Thursday paid tributes to Jawaharlal Nehru on his 130th birth anniversary.
Nehru, the first prime minister of India, held office between August 1947 and May 1964.
“Tributes to our former PM Pandit Jawaharlal Nehru on his birth anniversary,” Modi tweeted.
Nehru was born on this day in 1889 in Allahabad.

भारत में जनरल एलक्शन के समय विदेशी पत्रकार अपने ओनली हाथ और पैर ही नहीं मुंह भी धोकर रखते हैं

झल्ले दी झल्लियां गल्लां

चिंतित कांग्रेसी

ओये झल्लेया ये सारे के सारे हसाड़ी कांग्रेस की छोटी सी जान के पीछे दोनों हाथ +पैर धो कर क्यूँ पड़ गए हैं? पहले केबिल वाले विकिलीक्स के जूलियन असांजे ही सम्भाले नहीं जा रहे थे कि अब आधी शताब्दी पुरानी हैंडरसन ब्रुक्‍स रिपोर्ट पर से भी धूल हटाई जाने लगी है| यारा हसाडे पहले प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू ने खुद ही यह रिपोर्ट तैयार करने के आदेश दिए थेअगर हसाडे दिल में कोई चोर होता तो हम क्यूँ ऐसा मौका देते इस रिपोर्ट में सैनिक महत्त्व के अनेकों महत्वपूर्ण पहलुओं को भी छुआ गया है इसीलिए इस रिपोर्ट को अति गोपनीय की श्रेणी में रखा गया |अब इस रिपोर्ट के हवाले से कहा जा रहा है कि चीन से १९६२ में जंग हारने के लिए नेहरू ही जिम्मेदार थे

झल्ला

अरे चतुर सुजाण जी इलेक्शन का दौर हैं और इस दौर में तो इतिहास की कब्रों की खुदाई तो होती ही है बेशक आप जी की सरकार ने इस रिपोर्ट को एक अत्‍यन्‍त गोपनीय दस्‍तावेज रूप में वर्गीकृत किया है इसीलिए नेवेल्‍ली मैक्‍सवेल द्वारा डाली गई इसकी विषय वस्‍तु पर टिप्पणी करना उचित तो हरगिज नहीं होगा लेकिन झल्लेविचारानुसार भारत में चुनावों के दौर में हथियारों के सौदागरों के हितेषी अमेरिकी+ आस्ट्रेलियाई पत्रकार ओनली हाथ और पैर ही नहीं अपने मुंह भी धोकर रखते हैं |

“पटेल” के सफल हैदराबाद ऑपरेशन से नाराज “नेहरू” ने “के एम् मुंशी” पर खीझ उतारी:सीधे ल क अडवाणी ब्लॉग से

केंद्र सरकार ने ने बेशक उन्नाव के डोंड़िआखेड़ा में खोदाई बंद करने की घोषणा कर दी है लेकिन लाल कृष्ण अडवाणी की इतिहास की खोदाई जारी है अपने नए ब्लॉग में उन्होंने जवाहर लाल नेहरू के अलगाव वादी निजाम हैदराबाद के प्रेम को उजागर किया है |अपने ब्लॉग के टेल पीस [TAILPIECE]में के एम् मुंशी की किताब पिल्ग्रिमेज टू फ्रीडम [ Pilgrimage to Freedom] का उल्लेख किया है |
भारतीय जनता पार्टी के वयोवृद्ध नेता और वरिष्ठ पत्रकार एल के अडवाणी ने अपने इस ब्लॉग में सरदार वल्ल्भ भाई पटेल और मुंशी के बीच के संवादों के हवाले से जवाहर लाल नेहरू की तुष्टिकरण की नीति का उपहास उड़ाया है |
अडवाणी ने लिखा है कि पाकिस्तान में शामिल होने को आतुर हैदराबाद को भारत में विलय के लिए चलाये गए अभियान की सफलता के पश्चात गृह मंत्री सरदार पटेल ने के एम् मुंशी को तत्कालीन प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू से शिष्टाचार वश [ Courtesy ]मुलाकात करने के लिए भेजा |के एम् मुंशी पार्लियामेंट हाउस में पी एम् कार्यालय पहुंचे |नेहरू अंटे रूम [ante-room] में आये और बेहद ठंडेपन [भाव रहित]से पहले बोले हेल्लो मुंशी “I have come to call on you, now that I am back in Delhi,” इसके साथ ही उन्होंने हाथ मिलाया और लौट गए |इसके पश्चात मुंशी ने सरेडर पटेल को इस भाव रहित ठन्डे व्यवहार के विषय में बताया तो सरेडर ने हँसते जवाब दिया इत्तेहादी शक्तियों को परास्त करने से कुछ लोग तुमसे नाराज हैं “Some of them are angry that you helped in liquidating the Ittehad Power” इसके लिए मुझ पर गुस्सा करने में असमर्थ लोग तुम पर खीझ उतार रहे हैं |
हैदराबाद में भारतीय सेना के सफल ऑपरेशन के बाद के एम् मुंशी ने एजेंट जनरल Agent General.के कार्यालय से त्याग दे दिया

अडवाणी घर बैठे ही इतिहास की खोदाई में लगे हैं और रोज अस्थि पंजर निकाल कांग्रेसियों को जवाब देने को मजबूर कर रहे हैं

झल्ले दी झल्लियां गल्लां

उत्साहित भाजपाई

ओये झल्लेया एवेंए लोगी हसाडे लाल कृषण अडवाणी जी को बुड्डा कह रहे हैं देख तो आजकल उन्होंने कांग्रेसियों की साँसे फुला दी हैं|बेशक नरेंदर भाई मोदी भाजपा की रैलियों में अपनी ताकत दिखा रहे हैं लेकिन हसाडे डड्डा आडवाणी तो घर बैठे बैठे ही अपने ब्लॉग से अपने सरदार वल्ल्भ भाई पटेल और कांग्रेसियों के जवाहर लाल नेहरू में विवाद की बात उठा कर तहलका मचा रहे हैं| हैदराबाद और अब जे & के में नेहरू की असफल पालिसी को उजागर करके रख दिया है|पहले ब्लॉग में उन्होंने नौकरशाह एम् के के नायर की किताब का हवाला दिया तो सूचना एवं प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी ने नाक भोएं सिकोड़ी इस पर अब डड्डा ने नेट पर उपलब्ध रीडिफ़ के हवाले से फील्ड मार्शल सैम शा के इंटरव्यू में से जे & के कांग्रेसी नीतियों को भी खोल कर रख दिया है

झल्ला

वाकई कांग्रेसी साधू+स्वामी+संत+महात्मा [जो भी कहों] के आदेश से उन्नाव के किले की खोदाई से खजाना तो निकला नहीं हां आपजी के अडवाणी की इतिहास की खोदाई में जरुर ऐतिहासिक अस्थि पंजर मिल रहे हैं और ये अस्थि पंजर ऐसे हैं कि जिन पर कांग्रेसी मनीष तिवारी तक को भी जवाब देना पड़ रहा है |इसीलिए कहा जाता है कि घर की बारात में एक बुजुर्ग का होना लाजमी है वक्त -बेवक्त बड़े काम आता है

चीनियों ने अरुणाचल के चागलागम इलाके में छोलदारी लगा कर चार दिन की चांदनी लूटी और लौट गए


झल्ले दी झल्लियाँ गल्ला

एक चिंतित फौजी

ओये झल्लेया ये हसाड़े बार्डर पर क्या मखौल हो रहा है?पहले पाकिस्तान फिर तालिबान और अब चीन ने हसाडी फौजों के साथ आंख मिचौली का खेल खेलना शुरू कर दिया है| 15 अप्रैल को चीनी सैनिक लद्दाख के दिपसांग इलाके में केवल 19 किमी भीतर तक घुसे तो अब अरुणाचल के चागलागम इलाके में 20 किमी भीतर तक घुस आए और लगातार चार दिन तक डेरे डाले रहे| ओये चीन शायद भूल गया है कि अभी हमने सुपर एयरक्राफ्ट आईएएफ सी 130जे-30 को अक्‍साई चीन की हवाईपट्टी दौलत बेग ओल्‍डी पर ऐतिहासिक लैंड करवा कर उच्चाई पर लैंडिंग का विश्‍व कीर्तिमान बनाया है|

झल्ला

ओये जवाना ये चीनी अब अफीमी नहीं रहे इन्हें मालूम चल गया है कि हसाड़े मुल्क में स्वतंत्रता दिवस पर चार दिन की सरकारी चांदनी रहती है इसीलिए चीन से आये इन टूरिस्ट फोजियों ने ११ अगस्त को भारत की सीमा में आकर छोलदारी लगाईं और चार दिन की चांदनी लूट कर १५ अगस्त को वापिस चले गए|इसीलिए लाल किले की प्राचीर से प्रधान मंत्री डॉ मन मोहन सिंह और विपक्षी नरेंदर मोदी ने अपने भाषणों में भी चीन के इस टूरिज्म को गंभीरता से नहीं लिया |वैसे अगर इतिहास में जाएँ तो पहले प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरु ने पहले चीन के बड़े आक्रमण में हथियाई गई भारतीय भूमि को यह कह कर छोड़ दिया था कि वोह तो बंजर भूमि है |

कश्मीर समस्या को सुलझाने के लिए नेहरू ने ही ,सेना का उपयोग करने के बजाय, यूं.एन का रुख किया था

भाजपा के पी एम् इन वेटिंग और वरिष्ठ पत्रकार लाल कृष्ण आडवाणी ने स्वतंत्र भारत के इतिहास में जम्मू &काश्मीर के पन्नो को पलटते हुए एक बार फिर कश्मीर समस्या के लिए कांग्रेस को कटघरे में खडा करने का प्रयास किया है|
अपने नए ब्लॉग के पश्च्यलेख [ TAILPIECE] में ब्लॉगर अडवाणी ने आई ऐ एस अधिकारी [१९४७]एम् के के नायर की पुस्तक विद नो इल फीलिंग टू एनीबडी [ With No Ill Feeling to Anybody”] और पायनियर [ Pioneer ] के हवाले से कहा है कि तत्कालीन केबिनेट मीटिंग के दौरान लोह पुरुष भारतीय बिस्मार्क सरदार वल्लभ भाई पटेल , प्रथम पी एम् की आपत्तिजनक टिपण्णी पर ,मीटिंग छोड़ कर चले गए थे| उन्होंने आगे कहा है कि पुस्तक में लिखा गया है कि कांग्रेस के पहले प्रधान मंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने कश्मीर में पटेल के सैनिक अभियान के सुझाव का हमेशा विरोध किया और संयुक्त राष्ट्र की और रुख किया|

एल के अडवाणी के ब्लाग से :न्यायिक नियुक्तियों सम्बन्धी कॉलिजियम पध्दति इमरजेंसी से भी ज्यादा घातक

एन डी ऐ के पी एम् इन वेटिंग और वरिष्ठ पत्रकार लाल कृषण अडवाणी ने अपने ब्लॉग में वर्तमान न्यायिक नियुक्तियों सम्बन्धी कॉलिजियम पध्दति पर चिंता व्यक्त करते हुए इसे लोक तंत्र के लिए इमरजेंसी कल से भी ज्यादा घातक बताया है उन्होंने इस कॉलिजियम पध्दति की पुनरीक्षा की जरूरत पर बल दिया है|इस ब्लाग में श्री अडवाणी ने टेलपीस नही दिया है
प्रस्तुत है एल के अडवाणी के ब्लाग से एक वरिष्ठ पत्रकार की चिंता
भारत को स्वतंत्र हुए 65 से ज्यादा वर्ष हो गए हैं। यदि कोई मुझसे पूछे कि साढ़े छ: दशकों की इस अवधि में देश की सर्वाधिक बड़ी उपलब्धि क्या रही है, तो निस्संकोच मेरा जवाब होगा : लोकतंत्र।

एल के अडवाणी के ब्लाग से :न्यायिक नियुक्तियों सम्बन्धी कॉलिजियम पध्दति इमरजेंसी से भी ज्यादा घातक

एल के अडवाणी के ब्लाग से :न्यायिक नियुक्तियों सम्बन्धी कॉलिजियम पध्दति इमरजेंसी से भी ज्यादा घातक

हम गरीबी, निरक्षरता और कुपोषण पर विजय नहीं पा सके हैं। लेकिन पश्चिमी विद्वानों के प्रचंड निराशावाद के विपरीत 1947 के बाद से औपनिवेशिक दासता से मुक्त होने वाले देशों में विशेष रूप से भारत जीवंत और बहुदलीय लोकतंत्र बना हुआ है।
यह भी सत्य है कि 1975-77 के आपातकाल की अवधि के दो वर्ष का कालखण्ड एक काले धब्बे की तरह है, जब कानून का शासन, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और लोकतंत्र की अन्य जरूरी विशेषताओं पर ग्रहण लग गया था।
मेरा मानना है कि 1975 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय जिसने न केवल प्रधानमंत्री श्रीमती गांधी के चुनाव को अवैध करार दिया था अपितु उनके 6 वर्षों तक कोई भी चुनाव लड़ने पर रोक लगाई थी, की आड़ में सत्ता में बैठे लोगों ने हमारे संविधान निर्माताओं द्वारा प्रदत्त लोकतंत्र को ही समाप्त करने का गंभीर प्रयास किया।
पं. नेहरू द्वारा शुरू किये गये नई दिल्ली से प्रकाशित दैनिक समाचार-पत्र नेशनल हेराल्ड ने तंजानिया जैसे अफ्रीकी देशों में लागू एकदलीय प्रणाली की प्रशंसा करते हुए एक सम्पादकीय लिखा:
जरूरी नहीं कि वेस्टमिनिस्टर मॉडल सबसे उत्तम मॉडल हो और कई अफ्रीकी देशों ने इस बात का प्रदर्शन कर दिया है कि लोकतंत्र का बाहरी स्वरूप कुछ भी हो, जनता की आवाज का महत्व बना रहेगा। एक मजबूत केन्द्र की आवश्यकता पर जोर देकर प्रधानमंत्री ने भारतीय लोकतंत्र की शक्ति की ओर संकेत किया है। एक कमजोर केंद्र होने से देश की एकता, अखंडता और स्वतंत्रता की रक्षा को खतरा पहुंच सकता है। उन्होंने एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्रश्न उठाया है : यदि देश की स्वतंत्रता कायम नहीं रह सकती तो लोकतंत्र कैसे कायम रह सकता है?
दो सदियों के ब्रिटिश राज में भी अभिव्यक्ति के अधिकार को इतनी निर्ममता से नहीं कुचला गया जितना कि 1975-77 के आपातकाल के दौरान। 1,10,806 लोगों को जेलों में ठूंस दिया गया, जिनमें 253 पत्रकार थे।
इस सबके बावजूद यदि लोकतंत्र जीवित है तो इसका श्रेय मुख्य रूप से मैं दो कारणों को दूंगा: पहला, न्यायपालिका; और दूसरा मतदाताओं को जिन्होंने 1977 में कांग्रेस पार्टी को इतनी कठोरता से दण्डित किया कि कोई भी सरकार आपातकाल के प्रावधान का दुरूपयोग करने की हिम्मत नहीं कर पाएगी जैसा कि 1975 में किया गया।
सभी प्रमुख राजनीतिक नेताओं, सांसदों इत्यादि को आपातकाल में मीसा-आंतरिक सुरक्षा बनाए रखने वाले कानून-के तहत बंदी बना लिया गया था। इनमें जयप्रकाश नारायण के अलावा पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई, चन्द्रशेखरजी और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेता भी थे। कुल मिलाकर मीसाबंदियों की संख्या 34,988 थी। कानून के तहत मीसाबंदियों को कोई राहत नहीं मिल सकती थी।
सभी मीसाबंदियों ने अपने-अपने राज्यों के उच्च न्यायालयों में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर की हुई थी। सभी स्थानों पर सरकार ने एक सी आपत्ति उठाई: आपातकाल में सभी मौलिक अधिकार निलम्बित हैं और इसलिए किसी बंदी को बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर करने का अधिकार नहीं है। लगभग सभी उच्च न्यायालयों ने सरकारी आपत्ति को रद्द करते हुए याचिकाकर्ताओं के पक्ष में निर्णय दिए। सरकार ने इसके विरोध में न केवल सर्वोच्च न्यायालय में अपील की अपितु उसने इन याचिकाओं की अनुमति देने वाले न्यायाधीशों को दण्डित भी किया। अपने बंदीकाल के दौरान मैं जो डायरी लिखता था उसमें मैंने 19 न्यायाधीशों के नाम दर्ज किए हैं जिनको एक उच्च न्यायालय से दूसरे उच्च न्यायालय में इसलिए स्थानांतरित किया गया कि उन्होंने सरकार के खिलाफ निर्णय दिया था!
16 दिसम्बर, 1975 की मेरी डायरी के अनुसार:
सर्वोच्च न्यायालय मीसाबन्दियों के पक्ष में दिये गये उच्च न्यायालय के फैसलों के विरूध्द भारत सरकार की अपील सुनवाई कर रहा है। इसमें हमारा केस (चार सांसद जो एक संसदीय समिति की बैठक हेतु बंगलौर गए थे लेकिन उन्हें वहां बंदी बना लिया गया) भी है। न्यायमूर्ति खन्ना ने निरेन डे से पूछा कि : संविधान की धारा 21 में केवल व्यक्तिगत स्वतंत्रता नहीं बल्कि जिंदा रहने के अधिकार का भी उल्लेख है। क्या महान्यायवादी का यह भी अभिमत है कि चूंकि इस धारा को निलंबित कर दिया गया है और यह न्यायसंगत नहीं है, इसलिए यदि कोई व्यक्ति मार डाला जाता है तो भी इसका कोई संवैधानिक इलाज नहीं है? निरेन डे ने उत्तर दिया कि : ”मेरा विवेक झकझोरता है, पर कानूनी स्थिति यही है।”
यहां यह विशेष उल्लेखनीय है कि सर्वोच्च न्यायालय के अधिकांश न्यायाधीशों ने बाद में स्वीकारा कि उक्त कुख्यात केस में फैसला गलत था। इनमें से कई ने सार्वजनिक रूप् से अपने विचारों को प्रकट किया।
सन् 2011 में, सर्वोच्च न्यायालय ने औपचारिक रुप से घोषित किया कि सन् 1976 में इस अदालत की संवैधानिक पीठ द्वारा अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला केस में दिया गया निर्णय ”त्रुटिपूर्ण‘ था, चूंकि बहुमत निर्णय ”इस देश में बहुसंख्यक लोगों के मूलभूत अधिकारों का उल्लंघन करता है,” और यह कि न्यायमूर्ति खन्ना का असहमति वाला निर्णय देश का कानून बन गया है।
इन दिनों देश में सर्वाधिक चर्चा का विषय भ्रष्टाचार है। एक समय था जब भ्रष्टाचार की बात कार्यपालिका-राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों के संदर्भ में की जाती थी। कोई भी न्यायपालिका में भ्रष्टाचार की बात नहीं करता था, विशेषकर उच्च न्यायपालिका के बारे में तो नही ही।
परन्तु हाल ही के वर्षों में इसमें बदलाव आया है। सर्वोच्च न्यायालय की एक पूर्व न्यायाधीश रूमा पाल ने नवम्बर, 2011 में तारकुण्डे स्मृति व्याख्यानमाला में बोलते हुए ”न्यायाधीशों के सात घातक पापों” को गिनाया। इनमें भ्रष्टाचार भी एक था।
अपने भाषण में उन्होंने कहा कि यह मानना कि आजकल न्यायपालिका में भ्रष्टाचार है, भी ”न्यायपालिका की स्वतंत्रता की विश्वसनीयता के लिए उतना ही हानिकारक है जितना कि भ्रष्टाचार।”
मैं अक्सर इस पर आश्चर्य व्यक्त करता हूं कि यदि जून 1975 जैसी स्थिति आज देखने को मिले तो न्यायपालिका की प्रतिक्रिया कैसी होगी। क्या उच्च न्यायालयों के कम से कम 19 न्यायाधीश मीसाबंदियों के पक्ष में निर्णय कर कार्यपालिका की नाराजगी मोल लेने का साहस जुटा पाएंगे? सचमुच में मुझे संदेह है।
कालान्तर में, चयनित न्यायाधीशों के स्तर के सम्बन्ध में काफी बदलाव आया है जब रूमा पाल ने न्यायाधीशों के सात पापों के बारे में बोला तो, स्वयं एक सम्मानित न्यायविद् होने के नाते उन्होंने अपने भाषण में जानबूझकर यह चेतावनी जोड़ी कि वह ”सेवानिवृत्ति के बाद सुरक्षित” होकर बोल रही हैं।
वर्तमान में, न्यायिक नियुक्तियों और न्यायाधीशों के तबादले – भारत के मुख्य न्यायाधीश और सर्वोच्च न्यायालय के चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों की एक समिति जिसे ‘कॉलिजियम‘ कहा जाता है, द्वारा किए जाते हैं। इस कॉलिजियम प्रणाली की जड़ें तीन न्यायिक फैसलों (1993, 1994 और 1998) में निहित हैं। इनमें से पहला और दूसरा निर्णय भारत के मुख्य न्यायाधीश रहे न्यायमूर्ति जे.एस. वर्मा ने दिया। फ्रंटलाइन पत्रिका (10 अक्तूबर, 2008) को दिए गए एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा ”सन् 1993 का मेरा निर्णय जिसका हवाला दिया जाता है को बहुत ज्यादा गलत समझा गया, दुरूपयोग किया गया। यह उस संदर्भ में कहा गया कि कुछ समय से निर्णयों की कार्यपध्दति के बारे में जो गंभीर प्रश्न उठ रहे हैं उन्हें गलत नहीं कहा जा सकता। इसलिए पुनर्विचार जैसा कुछ होना चाहिए।”
सन् 2008 में, विधि आयोग ने अपनी 214वीं रिपोर्ट में विभिन्न देशों की स्थितियों का विश्लेषण करते हुए कहा: ”अन्य सभी संविधानों में न्यायाधीशों की नियुक्ति में या तो कार्यपालिका एकमात्र प्राधिकरण्ा है या कार्यपालिका मुख्य न्यायाधीशों की सलाह से न्यायधीशों की नियुक्ति करती है। भारतीय संविधान दूसरी प्रणाली का अवलम्बन करता है। हालांकि, दूसरा निर्णय कार्यपालिका को पूर्णतया विलोपित अथवा बाहर करता है।”
‘फ्रंटलाइन‘ में प्रकाशित न्यायमूर्ति वर्मा के साक्षात्कार को उदृत करते हुए विधि आयोग लिखता है: ”भारतीय संविधान अनुच्छेद 124 (2) और 217(1) के तहत नियंत्रण और संतुलन की सुंदर पध्दति का प्रावधान करता है कि सर्वोच्च न्यायालयों और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति में कार्यपालिका और न्यायपालिका की संतुलित भूमिका का उल्लेख है। यही समय है कि अधिकारों के संतुलन का वास्तविक स्वरुप पुर्नस्थापित किया जाए।”
हम, विश्व का सर्वाधिक बड़ा लोकतंत्र हैं जिसमें स्वाभाविक रुप से आशा की जाती है कि कम से कम उच्च न्यायिक पदों से जुड़ी नियुक्तियां पारदर्शी, निष्पक्ष और योग्यता आधारित पध्दति से हों। तारकुण्डे स्मृति व्याख्यानमाला में न्यायमूर्ति रुमा पाल ने टिप्पणी की कि ”सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया देश में सर्वाधिक रुप में गुप्त रखे जाने वाला विषय है।”
उन्होंने कहा कि ”इस प्रक्रिया की ‘रहस्यात्मकता‘ जिस छोटे से समूह से यह चयन किया जाता है और बरती जाने वाली ‘गुप्तता और गोपनीयता‘ सुनिश्चित करती है कि ‘अवसरों पर प्रक्रिया में गलत नियुक्तियां हो जाती हैं और इससे ज्यादा अपने आप को भाईभतीजावाद में फंसा देती हैं।”
वे कहती हैं कि एक अविवेकपूर्ण टिप्पणी या अनायास अफवाह ही पद के लिए किसी व्यक्ति की दृष्टव्य सुयोग्यता को बाहर कर सकती है। उनके अनुसार मित्रता और एहसान कभी-कभी अनुशंसाओं को सार्थक बना देते हैं।