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Tag: Religeous poetry

मन रुपी मदमस्त हाथी के लिए ज्ञान रुपी रत्न अंकुश के समान है

काया कदली वन अहै , मन कुंजर महमंत ।
अंकुस ज्ञान का रतन है, फ़ेरै हैं संतजन ।
वाणी : संत कबीर दास जी
अर्थात :- यह शरीर तो केले का वन है और मन मदमस्त हाथी की भांति है जिस प्रकार केले हाथी को प्रिय होते हैं , अतः केलों के वन में घुस जाने वाला पुरे वन को तहस – नहस कर देता है , उसी प्रकार मन को शरीर से , शरीर की इन्द्रियों व उनके विषयों से लगाव होता है । वह इन्द्रियों को भोगों की ओर प्रवृत्त करके शरीर को उसके वास्तविक उद्देश्य से दूर कर देता है । किन्तु ज्ञान रुपी रत्न इस मन रुपी हाथी के लिए अंकुश के समान है ज्ञानीजन इस अंकुश को फेर कर मन रुपी हाथी को वश में रखते हैं ।
श्री गीता जी में श्री कृष्ण जी इसी तथ्य को रथ के उदाहरण से समझाते हैं –
शरीर रुपी रथ को इन्द्रियों रुपी घोड़े मनमानी दिशा में ले जाते हैं । किन्तु मन रुपी सारथी जब बुद्धि रुपी लगाम से उन्हें नियंत्रित कर लेता है तब आत्मा रुपी उस रथ के यात्री को ये घोड़े लक्ष्य पर ले जाते हैं ।
श्री गीता जी ,
श्री कृष्ण ,
संत कबीर दास जी,
प्रस्तुती राकेश खुराना

पारस लोहे को सोना बनाता है , पारस नहीं बनाता लेकिन सच्चा संत हमें भी संत बना देता है

सत्संग का प्रभाव
[१]सुभर भरे प्रेम रस रंग , उपजे चाव साध के संग ।
भावर्थ
महापुरुष प्रेम के रस और मस्ती के लबालब भरे प्याले के समान हैं । उनको देखकर हरि मिलन का चाव उपजता है । जैसे पहलवान को देखकर पहलवान बनने का चाव उपजता है, खरबूजे को देख खरबूजा रंग पकड़ता है , ऐसे ही आध्यात्मिक पुरुषों का प्रभाव हमें आध्यात्मिक बना देता है । सब पर प्रेम की बूंद छिडकी जाती है । पढ़ा, अपढ़ सब उससे रंग ले जाते हैं । सतगुरु का दिव्य आकर्षण जैसा भी पात्र हो , उसको आकृष्ट करता है । उसके मंडल में बैठे हुए समय का भान नहीं रहता ।
इसी सन्दर्भ में आता है –
[२]पारस और संत में बड़ो अन्तरो जान।
वह लोहा कंचन करे , वह करले आप समान।
अर्थात पारस और संत में बड़ा अंतर है । पारस लोहे को सोना बनाता है , पारस नहीं बनाता । परन्तु संत हमें संत बना देता है ।
महापवित्र साध का संग, जिस भेंटत लागे हरि रंग ।
साधू की संगति निर्मलता प्रदान करती है , उससे प्रभु का रंग मिलता है ।
प्रस्तुती राकेश खुराना