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पारस लोहे को सोना बनाता है , पारस नहीं बनाता लेकिन सच्चा संत हमें भी संत बना देता है

सत्संग का प्रभाव
[१]सुभर भरे प्रेम रस रंग , उपजे चाव साध के संग ।
भावर्थ
महापुरुष प्रेम के रस और मस्ती के लबालब भरे प्याले के समान हैं । उनको देखकर हरि मिलन का चाव उपजता है । जैसे पहलवान को देखकर पहलवान बनने का चाव उपजता है, खरबूजे को देख खरबूजा रंग पकड़ता है , ऐसे ही आध्यात्मिक पुरुषों का प्रभाव हमें आध्यात्मिक बना देता है । सब पर प्रेम की बूंद छिडकी जाती है । पढ़ा, अपढ़ सब उससे रंग ले जाते हैं । सतगुरु का दिव्य आकर्षण जैसा भी पात्र हो , उसको आकृष्ट करता है । उसके मंडल में बैठे हुए समय का भान नहीं रहता ।
इसी सन्दर्भ में आता है –
[२]पारस और संत में बड़ो अन्तरो जान।
वह लोहा कंचन करे , वह करले आप समान।
अर्थात पारस और संत में बड़ा अंतर है । पारस लोहे को सोना बनाता है , पारस नहीं बनाता । परन्तु संत हमें संत बना देता है ।
महापवित्र साध का संग, जिस भेंटत लागे हरि रंग ।
साधू की संगति निर्मलता प्रदान करती है , उससे प्रभु का रंग मिलता है ।
प्रस्तुती राकेश खुराना