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एल के अडवाणी के ब्लाग से: पटेल के सहयोगी मेनन को भी भुलाया

एन डी ऐ के सर्वोच्च नेता एल के अडवाणी ने अपने ब्लॉग में जर्मन लेखिका आलेक्स फॉन टूनसेलमान की पुस्तक इण्डियन समर के हवाले से भारत के एकीकरण के इतिहास को खंगाला है
पुरस्कार विजेता इतिहासकार विलियम डलरिम्पल ने इस पुस्तक को ‘एक श्रेष्ठ कृति‘ और ”स्वतंत्रता तथा भारत व पाकिस्तान विभाजन पर अडवाणी ने उत्तम पुस्तक” के रुप में वर्णित किया है।में भी इतिहास का छात्र रहा हूँ संभवत इसीलिए यह ब्लाग ख़ास रूचिकर लगा| मुझे इस पुस्तक की एक विशेषता यह लगी कि आज़ादी के बाद विभाजित देश को संयुक्त भारत राष्ट्र बनाने के लिए अभी तक सरदार वल्लभ भाई पटेल और जवाहर लाल नेहरू का ही जिक्र किया जाता रहा है| इतिहास रचने में उल्लेखनीय भूमिका निभाने वाले अनेको देश भक्तों को अँधेरे में धकेला जा चुका है कांग्रेस पार्टी के ही गुलजारी लाल नंदा+सरदार पटेल+ लाल बहादुर शास्त्री + महात्मा गांधी के अपने परिवार आदि आदि को वोह सम्मान नहीं मिला जिसके वोह हक़दार थे| मगर इस इस ब्लॉग में पटेल कि मृत्यु के उपरान्त गुमनामी में धकेले गए वापल पनगुन्नी मेनन[ वी पी मेनन] के योगदान का भी अच्छा ख़ासा उल्लेख है| कहा जाता है कि इतिहास से सबक लेना चाहिए उससे छेड़ छाड़ नहीं की जानी चाहिए इसीलिए बिना छेड़ छाड़ के प्रस्तुत है एल के अडवानी के ब्लाग से

एल के अडवाणी के ब्लाग से:


जब भारत पर अंग्रेजी राज था तब देश एक राजनीतिक इकाई नहीं था। इसके दो मुख्य घटक थे: पहला, ब्रिटिश भारत; दूसरा, रियासतों वाला भारत। रियासतों वाले भारत में 564 रियासतें थी।
वी.पी. मेनन की पुस्तक: दि स्टोरी ऑफ इंटग्रेशन ऑफ दि इण्डियन स्टेट्स में प्रसिध्द पत्रकार एम.वी. कामथ ने लेखक के बारे में यह टिप्पणी की है:
”जबकि सभी रियासतों-जैसाकि उन्हें पुकारा जाता था-को भारत संघ में विलय कराने का श्रेय सरदार को जाता है, लेकिन वह भी ऐसा इसलिए कर पाए कि उन्हें एक ऐसे व्यक्ति का उदार समर्थन मिला जो राजाओं की मानसिकता और मनोविज्ञान से भलीभांति परिचित थे, और यह व्यक्ति कौन था? यह थे वापल पनगुन्नी मेनन-वी.पी. मेनन के नाम से उन्हें जल्दी ही पहचाना जाने लगा।”
”वीपी के प्रारम्भिक जीवन के बारे में कम जानकारी उपलब्ध है। एक ऐसा व्यक्ति जो सभी व्यवहारिक रुप से पहले, अंतिम वायसराय लार्ड लुईस माउंटबेटन और बाद में,, भारत के लौह पुरुष महान सरदार वल्लभ भाई पटेल के खासमखास बने, ने स्वयं गुमनामी में जाने से पहले अपने बारे में बहुत कम जानकारी छोड़ी। यदि वह सत्ता के माध्यम से कुछ भी पाना चाहते तो जो मांगते मिल जाता।”
यह पुस्तक वी.पी. मेनन द्वारा भारतीय इतिहास के इस चरण पर लिखे गए दो विशाल खण्डों में से पहली (1955) है। दूसरी पुस्तक (1957) का शीर्षक है: दि ट्रांसफर ऑफ पॉवर इन इण्डियाA
जिस पुस्तक ने मुझे आज का ब्लॉग लिखने हेतु बाध्य किया, उसमें रियासती राज्यों के मुद्दे पर ‘ए फुल बास्केट ऑफ ऐप्पल्स‘ शीर्षक वाला अध्याय है। इस अध्याय की शुरुआत इस प्रकार है:
”18 जुलाई को राजा ने लंदन में इण्डिया इंटिपेंडेंस एक्ट पर हस्ताक्षर किए और माउंटबेटन दम्पति ने अपने विवाह की रजत जयंती दिल्ली में मनाई, पच्चीस वर्ष बाद उसी शहर में जहां दोनों की सगाई हुई थी।”
यह पुस्तक कहती है कि रियासती राज्यों के बारे में ब्रिटिश सरकार के इरादे ”अटली द्वारा जानबूझकर अस्पष्ट छोड़ दिए गए थे।” माउंटबेटन से यह अपेक्षा थी कि वह रियासतों की ब्रिटिश भारत से उनके भविष्य के रिश्ते रखने में सही दृष्टिकोण अपनाने हेतु सहायता करेंगे। नए वायसराय को भी यह बता दिया गया था कि ‘जिन राज्यों में राजनीतिक प्रक्रिया धीमी थी, के शासकों को वे अधिक लोकतांत्रिक सरकार के किसी भी रुप हेतु तैयार करें।”
माउन्टबेंटन ने इसका अर्थ यह लगाया कि वह प्रत्येक राजवाड़े पर दबाव बना सकें कि वह भारत या पाकिस्तान के साथ जाने हेतु अपनी जनता के बहुमत के अनुरुप निर्णय करें। उन्होंने पटेल को सहायता करना स्वीकार किया और 15 अगस्त से पहले ‘ए फुल बास्केट ऑफ ऐपल्स‘ देने का वायदा किया।
9 जुलाई को स्टेट्स के प्रतिनिधि अपनी प्रारम्भिक स्थिति के बारे में मिले। टुनसेलमान के मुताबिक अधिकांश राज्य भारत के साथ मिलना चाहते थे। ”लेकिन सर्वाधिक महत्वपूर्ण राज्यों में से चार-हैदराबाद, कश्मीर, भोपाल और त्रावनकोर-स्वतंत्र राष्ट्र बनना चाहते थे। इनमें से प्रत्येक राज्य की अपनी अनोखी समस्याएं थीं। हैदराबाद का निजाम दुनिया में सर्वाधिक अमीर आदमी था: वह मुस्लिम था, और उसकी प्रजा अधिकांश हिन्दू। उसकी रियासत बड़ी थी और ऐसी अफवाहें थीं कि फ्रांस व अमेरिका दोनों ही उसको मान्यता देने को तैयार थे। कश्मीर के महाराजा हिन्दू थे और उनकी प्रजा अधिकांशतया मुस्लिम थी। उनकी रियासत हैदराबाद से भी बड़ी थी परन्तु व्यापार मार्गों और औद्योगिक संभावनाओं के अभाव के चलते काफी सीमित थी। भोपाल के नवाब एक योग्य और महत्वाकांक्षी रजवाड़े थे और जिन्ना के सलाहकारों में से एक थे: उनके दुर्भाग्य से उनकी रियासत हिन्दूबहुल थी और वह भारत के एकदम बीचोंबीच थी, पाकिस्तान के साथ संभावित सीमा से 500 मील से ज्यादा दूर। हाल ही में त्रावनकोर में यूरेनियम भण्डार पाए गए, जिससे स्थिति ने अत्यधिक अंतर्राष्ट्रीय दिलचस्पी बड़ा दी।”
इस समूचे प्रकरण में मुस्लिम लीग की रणनीति इस पर केंद्रित थी कि अधिक से अधिक रजवाड़े भारत में मिलने से इंकार कर दें। जिन्ना यह देखने के काफी इच्छुक थे कि नेहरु और पटेल को ”घुन लगा हुआ भारत मिले जो उनके घुन लगे पाकिस्तान” के साथ चल सके। लेकिन सरदार पटेल, लार्ड माउंटबेंटन और वी.पी. मेनन ने एक ताल में काम करते हुए ऐसे सभी षडयंत्रों को विफल किया।
इस महत्वपूर्ण अध्याय की अंतिम पंक्तियां इस जोड़ी की उपलब्धि के प्रति एक महान आदरांजलि है। ऑलेक्स फॉन टुनेसलेमान लिखती हैं:
”माउंटबेटन की तरकीबों या पटेल के तरीकों के बारे में चाहे जो कहा जाए, उनकी उपलब्धि उल्लेखनीय रहेगी। और एक वर्ष के भीतर ही, इन दोनों के बारे में तर्क दिया जा सकता है कि इन दोनों ने 90 वर्ष के ब्रिटिश राज, मुगलशासन के 180 वर्षों या अशोक अथवा मौर्या शासकों के 130 वर्षों की तुलना में एक विशाल भारत, ज्यादा संगठित भारत हासिल किया।”
जो जर्मन महिला ने जो अर्थपूर्ण ढंग से लिखा है उसकी पुष्टि वी.पी. मेनन द्वारा दि स्टोरी ऑफ इंटीगिरेशन ऑफ दि इण्डियन स्टेट्स‘ के 612 पृष्ठों में तथ्यों और आंकड़ों से इस प्रकार की है।
”564 भारतीय राज्य पांचवा हिस्सा या लगभग आधा देश बनाते हैं: कुछ बड़े स्टेट्स थे, कुछ केवल जागीरें। जब भारत का विभाजन हुआ और पाकिस्तान एक पृथक देश बना तब भारत का 364, 737 वर्ग मील और 81.5 मिलियन जनसंख्या से हाथ धोना पड़ा लेकिन स्टेट्स का भारत में एकीकरण होने से भारत को लगभग 500,000 वर्ग मील और 86.5 मिलियन जनसंख्या जुड़ी जिससे, भारत की पर्याप्त क्षतिपूर्ति हुई।”
स्टेट्स के एकीकरण सम्बंधी अपनी पुस्तक की प्रस्तावना में वी.पी. मेनन लिखते हैं: यह पुस्तक स्वर्गीय सरदार वल्लभभाई पटेल को किए गए वायदे की आंशिक पूर्ति है। यह उनकी तीव्र इच्छा थी कि मैं दो पुस्तकें लिखूं, जिसमें से एक में उन घटनाओं का वर्णन हो जिनके चलते सत्ता का हस्तांतरण हुआ और दूसरी भारतीय स्टेट्स के एकीकरण से सम्बन्धित हो।