साधो सो सतगुरु मोहिं भावै ।
सतनाम का भरि – भरि प्याला , आप पिवै मोहिं प्यावै ।
मेले जाय न महंत कहावै , पूजा भेंट न लावै ।
परदा दूरि करै आँखिन को , निज दरसन दिखलावै ।
ऐसा सतगुरु मेलों में नहीं जाता , क्योंकि वह तो खुद परमात्मा के साथ जुड़ा हुआ है , बाहर की दुनिया की उसे कोई परवाह नहीं होती और न ही वह महंत की तरह से, पंडित की तरह से जीता है । न ही वह अपनी पूजा करवाता है , न ही भेंट में कुछ लेता है । ऐसा सतगुरु अपनी ही कमाई पर जीता है । वह प्रभु की देन को बिना किसी कीमत के औरों में बाँटता रहता है ।वह हमारी आँखों पर पड़े माया के परदे को हटाता है ।वह अपने दर्शन हमें अन्दर देते हैं । उस नूरी स्वरूप को हमारे साथ मिला देते हैं और इसी तरह हमें सचखंड तक पहुंचा देते हैं ।
संत कबीर दास जी
प्रस्तुती राकेश खुराना
Recent Comments