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एल के अडवाणी के नज़रिए से तवलीन सिंह की १० जनपथी” दरबार” L K Advani On “Darbar” Of TAVLEEN SINGH

एल के अडवाणी ने अपने ब्लाग में तवलीन सिंह की पुस्तक दरबार के हवाले से इंडिया गेट+और रायसीना हिल्स पर हो रही दमनात्मक कार्यवाही को आज़ादी के विरुद्ध आपातकालीन युग की शुरुआत बताने का प्रयास किया है|उन्होंने इसके लिए पुस्तक में से आपातकाल के दौरान रैली में दिए गए अपने नेता अटल बिहारी वाजपई की इस टिपण्णी का भी उल्लेख किया|

एल के अडवाणी के नज़रिए से तवलीन सिंह की १० जनपथी” दरबार”


अडवाणी ने ब्लाग के टेलपीस (पश्च्यलेख)में कहा है की मेरा मानना है कि तवलीन की पुस्तक के पाठक अध्याय पांच शीर्षक 1977 चुनाव को बड़े चाव से पढ़ेंगे-विशेषकर इस चुनावी भाषण के उदाहरण को, सर्वश्रेष्ठ वाजपेयी (Vintage Vajpayee)।
जब दिल्ली की दीवारों पर पहला पोस्टर लगा कि रामलीला मैदान में एक रैली होगी जिसे प्रमुख विपक्षी नेता सम्बोधित करेंगे, तो हम सभी को लगा कि यह एक मजाक है। स्टेट्समैन के रिपोरटर्स कक्ष में यह धारणा थी कि यदि पोस्टर सही भी हैं तो रैली फ्लॉप होगी क्योंकि लोग इसमें भाग लेने से डरेंगे। अभी भी आपातकाल प्रभावी था और पिछले अठारह महीनों से बना भय का वातावरण छंटा नहीं था।
चीफ रिपोर्टर राजू, सदैव की भांति निराशावादी था और उसने कहा कि श्रीमती गांधी को कोई हरा नहीं सकता, इसलिए इसमें कोई दम नहीं है। ‘यहां तक कि यह विपक्ष की रैली है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा। यदि उन्हें अपनी जीत के बारे में थोड़ा भी संदेह होता तो वह चुनाव नहीं कराती‘।
‘हां, लेकिन वह गलती तो कर सकती है,’ मैंने कहा। ‘मैंने सुना है कि उनका बेटा और उत्तराधिकारी इसके विरुध्द थे। उन्होंने बताया कि वह हार सकती हैं।‘ अनेक वर्ष बाद जब संजय गांधी के अच्छे दोस्त कमलनाथ दिल्ली में कांग्रेस सरकार में केबिनेट मंत्री थे, से मैंने पूछा कि क्या यह सही है कि संजय ने अपनी मां के चुनाव कराने सम्बन्धी निर्णय का विरोध किया था, कमलनाथ ने इसकी पुष्टि की। उन्होंने बताया कि जब उन्होंने चुनावों के बारे में सुना तब संजय और वह श्रीनगर में एक साथ थे और इस पर संजय काफी खफा थे।
जब हम मैदान पर पहुंचे तो हमने दखा कि लोग सभी दिशाओं से उमड़ रहे हैं। मगर अंदर और ज्यादा भीड़ थी। इतनी भीड़ मैंने कभी किसी राजनीतिक रैली में नहीं देखी थी। भीड़ रामलीला मैदान के आखिर तक और उससे भी आगे तक भरी हुई थी।
लगभग शाम को 6 बजे विपक्षी नेता सफेद एम्बेसडर कारों के काफिले में पहुंचे। एक के बाद एक ने मंच पर उबाऊ, लम्बे भाषण दिए कि उन्होंने जेल में कितने कष्ट उठाए। हिन्दुस्तान टाइम्स के अपने एक सहयोगी को मैंने कहा यदि किसी ने कोई प्रेरणादायक भाषण देना शुरु नहीं किया तो लोग जाना शुरु कर देंगे। उस समय रात के 9 बज चुके थे और रात ठंडी होने लगी थी यद्यपि बारिश रुक गई थी। उसने मुस्कराहट के साथ उत्तर दिया ‘चिंता मत करो, जब तक अटलजी नहीं बोलेंगे, कोई उठकर नहीं जाएगा।‘ उसने एक छोटे से व्यक्ति की ओर ईशारा किया जिसके बाल सफेद थे और उस शाम के अंतिम वक्ता थे। ‘क्यों?’ ‘क्योंकि वह भारत के सर्वश्रेठ वक्ता हैं।‘
जब अटलजी की बारी आई उस समय तक रात के 9.30 बज चुके थे और जैसे ही वह बोलने के लिए खड़े हुए तो विशाल भीड़ खड़ी हो गई और तालियां बजानी शुरु कर दी: पहले थोड़ा हिचक कर, फिर और उत्साह से उन्होंने नारा लगाया, ‘इंदिरा गांधी मुर्दाबाद, अटल बिहारी जिंदाबाद!‘ उन्होंने नारे का जवाब नमस्ते की मुद्रा और एक हल्की मुस्कान से दिया। तब उन्होंने भीड़ को शांत करने हेतु दोनों हाथ उठाए और एक मजे हुए कलाकार की भांति अपनी आंखे बंद कीं, और कहा बाद मुद्दत के मिले हैं दिवाने। उन्होंने चुप्पी साधी। भीड़ उतावली हो उठी। जब तालियां थमीं उन्होंने अपनी आंखें फिर खोलीं और फिर लम्बी चुप्पी के बाद बोले ‘कहने सुनने को बहुत हैं अफसाने।‘ तालियों की गड़गडाहट लम्बी थी और इसकी अंतिम पंक्ति जो उन्होंने बाद में मुझे बताई थी, तभी रची: ‘खुली हवा में जरा सांस तो ले लें, कब तक रहेगी आजादी कौन जाने।‘ अब भीड़ उन्मत्त हो चुकी थी।
रात की ठंड बढ़ने और फिर से शुरु हुई हल्की बूंदाबांदी के बावजूद कोई भी अपने स्थान से नहीं हटा। उन्होंने अटलजी को पूरी शांति के साथ सुना।
सरल हिन्दी में, वाकपटुता से अटलजी ने उन्हें बताया कि क्यों उन्हें इंदिरा गांधी को वोट नहीं देना चाहिए। उस रात दिए गए भाषण की प्रति मेरे पास नहीं है और वैसे भी वह बिना तैयारी के बोले थे, लेकिन जो मुझे याद है उसे मैं यहां सविस्तार बता सकती हूं। उन्होंने शुरु किया आजादी, लोकतांत्रिक अधिकारों, सत्ता में बैठे लोगों से असहमत होने का मौलिक अधिकार, जब तक आपसे ले लिए नहीं जाते उनका कोई अर्थ नहीं होता। पिछले दो वर्षों में यह न केवल ले लिए गए बल्कि जिन्होंने विरोध करने का साहस किया उन्हें दण्डित किया गया। जिस भारत को उसके नागरिक प्यार करते थे, अब मौजूद नहीं था। उन्होंने यह कहते हुए जोड़ा कि यह विशाल बंदी कैम्प बन गया है, एक ऐसा बंदी कैंप जिसमें मनुष्य को मनुष्य नहीं माना जाता। उनके साथ इस तरह से बर्ताव किया गया कि उन्हें उनकी इच्छा के विरुध्द काम करने को बाध्य किया गया जोकि एक मनुष्य की स्वतंत्र इच्छा के विरुध्द नहीं किया जाना चाहिए। विपक्षी नेता (उन्होंने कहा ‘हम‘) जानते हैं कि भारत की बढ़ती जनसंख्या के बारे में कुछ करने की जरुरत है; वे परिवार नियोजन का विरोध नहीं करते, लेकिन वे इसमें भी विश्वास नहीं करते कि मनुष्यों को जानवरों की तरह ट्रकों में डालकर उनकी इच्छा के विरुध्द उनकी नसबंदी कर दी जाए और वापस भेज दिया जाए। इस टिप्पणी पर तालियां बजीं और बजती रहीं, बजती रहीं तथा चुनाव वाले दिन ही मुझे समझ आया कि यह क्यों बज रहीं थीं।
अटलजी के भाषण समाप्ति के रुकी भीड़ ने और विपक्षी नेता अपनी सफेद एम्बेसेडर कारों में बैठे तथा भीड़ को छोड़ चले गए मानों तय किया था कि प्रेरणास्पद भाषण सुनने के बाद तालियों से भी ज्यादा कुछ और करना है। इसलिए जब पार्टी कार्यकर्ता चादर लेकर चंदा इक्ठ्ठा करते दिखाई दिए तो सभी ने कुछ न कुछ दिया। जनवरी की उस सर्द रात को मैंने देखा कि रिक्शा वाले और दिल्ली की सड़कों पर दयनीय हालत में रहने वाले दिहाड़ी मजदूर भी जो दे सकते थे, दे रहे थे तो पहली बार मुझे लगा कि इंदिरा गांधी के चुनाव हारने की संभावना हो सकती है।