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Indira And Rajiv Not Makers of India So Postal Stamps Discontinued

[New Delhi]Indira And Rajiv Gandhi Are Not Builders of Modern India So Stamps In Their Honor Are Discontinued
Govt today discontinued stamps of Rajiv and Indira Gandhi
Government Of India has decided to discontinue stamps of former Prime Ministers, Rajiv and Indira Gandhi, under the new definitive theme of postal stamps.
The NDA government has replaced Builders of Modern India theme, which included stamps of Indira and Rajiv Gandhi, with Makers of India theme.
However, stamps of Jawaharlal Nehru, Mahatma Gandhi, B R Ambedkar and Mother Teresa have been retained.
The new definitive theme, which means stamps for regular services, brings in host of eminent personalities like Shyama Prasad Mukherjee, Deen Dayal Upadhyay, Netaji Subhash Chandra Bose, Sardar Vallabhbhai Patel, Shivaji, Maulana Azad, Bhagat Singh, Jayaprakash Narayan, Ram Manohar Lohia, Vivekananda and Maharana Pratap.
Earlier, commemorative stamps, which are limited in numbers, of most of these personalities were issued and some were also made available for regular use.
Stamps of Homi J Bhabha, JRD Tata, C V Raman, Satyajit Ray have also been discontinued under the new theme.
As per sources “The stamps of the new theme are under print and expected to be available across post offices within a month. The stock of old theme is still available and will be there under it gets exhausted,”
Stamps of Bal Gangadhar Tilak, Rajendra Prasad, Srinivasa Ramanujan, Rabindranath Tagore, Subramania Bharati, Bhimsen Joshi, M S Subbulakshmi and Bismillah Khan will also be made available for regular use.

हेमलेट की भूमिका निभाने वाले पहले पी एम् हमेशा स्वयम को जूलियस सीज़र ही बताते रहे: सीधे एल के अडवाणी के ब्लाग से

भाजपा के पी एम् इन वेटिंग और वरिष्ठ पत्रकार लाल कृष्ण अडवाणी ने अपने ब्लॉग में पुस्तकों के माध्यम से अपने पुराने [अब दिवंगत हो चुके] साथियों के यौगदान को याद किया और कांग्रेस की नीतियों की आलोचना की है| प्रस्तुत है सीधे एल के अडवाणी के ब्लाग से:
6 जुलाई को पूरे देश में डा. श्यामा प्रसाद मुकर्जी की जयंती मनाई गई।उस शाम मैंने राष्ट्रीय संग्रहालय सभागार में एक पुस्तक: ”जम्मू-कश्मीर की अनकही कहानी” का लोकार्पण किया।
मेरे जैसे लाखों पार्टी कार्यकर्ता सही ही गर्व करते हैं कि हम एक ऐसी पार्टी से जुड़े हैं जिसका पहला राष्ट्रीय आंदोलन राष्ट्रीय एकता के मुद्दे पर हुआ और राष्ट्रीय एकात्मता के लिए ही हमारी पार्टी के संस्थापक अध्यक्ष ने अपना जीवन न्यौछावर कर दिया। लेकिन हममें से अनेक को यह शायद जानकारी न हो कि हमने जो देशव्यापी संघर्ष शुरु किया था, वह जम्मू-कश्मीर में जनसंघ के 1951 में जन्म से पूर्व ही एक

क्षेत्रीय पार्टी-प्रजा परिषद

ने शुरु किया था जिसका नेतृत्व पण्डित प्रेमनाथ डोगरा के हाथों में था। प्रजा परिषद के संघर्ष और त्याग की अनकही कहानी को देश के सामने लाने के लेखक के निर्णय की मैं प्रशंसा करता हूं।
यह उल्लेखनीय है कि डा. मुकर्जी के बलिदान के बाद, प्रजा परिषद ने जनसंघ में विलय का फैसला किया। कुछ समय बाद, पण्डित डोगरा जनसंघ के अध्यक्ष निर्वाचित हुए।
सात जुलाई को दिल्ली के केशवपुरम में दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री डा. साहिब सिंह वर्मा की छठी पुण्यतिथि के अवसर पर आयोजित भव्य कार्यक्रम में मैंने दिवगंत नेता की प्रतिमा का अनावरण किया और उनकी पुत्री रचना सिंधु द्वारा उनके जीवन तथा उपलब्धियों पर लिखी गई पुस्तक का लोकार्पण किया। देश में दिल्ली पहला स्थान है जहां जनसंघ ने अपनी प्रारम्भिक जड़ें जमाई। लेकिन इससे पार्टी की एक असंतुलित छवि भी बनी कि यह प्रमुख रुप से एक शहरी पार्टी है। इस छवि को सुधारने का श्रेय साहिब सिंहजी को जाता है, साथ ही ग्रामीण दिल्ली के विकास और कल्याण हेतु सुविचारित योगदान का श्रेय भी उनके मुख्यमंत्रित्व काल को जाता है। उनके पुत्र प्रवेश वर्मा द्वारा आयोजित कार्यक्रम में अच्छी संख्या में लोग आए थे। इसमें साहिब सिंह की खूब प्रशंसा हुई, अनेक वक्ताओं ने उन्हें ‘न केवल व्यक्ति अपितु एक संस्थान‘ के रुप में निरुपित किया।
दो दिन पूर्व 12 जुलाई को एक

प्रमुख पत्रकार पी.पी. बालाचन्द्रन की पुस्तक ”ए व्यू फ्राम दि रायसीना हिल”

का मैंने लोकार्पण किया। इस मास के पहले पखवाड़े में यह तीसरी पुस्तक भी जिसे मैंने लोकर्पित किया।
पुस्तक विमोचन के कार्यक्रमों में, मैं अक्सर 1975-77 के आपातकाल में बंगलौर सेंट्रल जेल में अपने बंदी होने का स्मरण कराता हूं। उन बंदी दिनों में एक शब्द ऐसा था जो हम सब साथियों को राहत और आनन्द देता था, और वह शब्द था ‘रिलीज‘। तब से, जब भी कोई मेरे पास पुस्तक को ‘रिलीज‘ करने का अनुरोध लेकर आता है तो मैं शायद ही उसे मना कर पाता हूं।
लेखक का नाम ‘बाला‘ लोकप्रिय है जो स्वयं के परिचय में अपने को ‘एक अनिच्छुक लेखक‘ वर्णित करते हैं, ने मुझे हाल ही में अमेरिकी फिल्म निर्माता मीरा नायर द्वारा निर्मित फिल्म का स्मरण करा दिया। फिल्म पाकिस्तान के मोहसिन हमीद द्वारा लिखित पुस्तक ”दि रिलक्टन्ट फण्डामेंटिलिस्ट” पर आधारित है। मीरा नायर की फिल्म की शीर्षक भी यही है और अनेक समीक्षाओं में इसे सराहा गया है। कनाडा के एक समाचार पत्र नेशनल पोस्ट में प्रकाशित समीक्षा की शुरुआती टिप्पणी इस प्रकार थी: ”ऐसा अक्सर ही होता है कि कोई फिल्म उस पुस्तक को सुधारे जिस पर वह आधारित है, लेकिन मीरा नायर की दि रिलक्टन्ट फण्डामंटिलिस्ट बिल्कुल यह करती है।”
इस समीक्षा में फिल्म का सारांश इस तरह दिया गया है: चंगेज नाम का एक पाकिस्तानी व्यक्ति अमेरिका आता है ताकि वॉल स्ट्रीट में अपना भाग्य बना सके, लेकिन 9/11 के बाद वह अहसास करने लगता है कि वह इसमें फिट नहीं बैठता।
बाला 40 वर्षों से पत्रकारिता में हैं, जैसेकि परिचय में उन्होंने अपने बारे में सही ही लिखा है: ”शायद मैं एकमात्र ऐसा पत्रकार हूं या उन कुछ में से एक हूं जिन्होंने समूचे मीडिया इन्द्रधनुष-समाचारपत्र, पत्रिकाएं, सवांद एजेंसी, रेडियो और टेलीविज़न, तथा वेब (वेबसाइट)- में एक भरोसेमंद स्टाफकर्मी तथा एक गैर भरोसेमंद स्वतंत्र पत्रकार के रुप में काम किया है। इसके अलावा दो पत्रिकाएं मैंने शुरु कीं और सम्पादित की। सत्तर के दशक के शुरुआत में एक व्यापार पत्रिका (यदि यह चलने दी गई होती तो भारत की पहली व्यापार पत्रिका होती) और दूसरी अप्रवासी भारतीयों के लिए एक पाक्षिक पत्रिका, जोकि अपने आप में पहली थी। दोनों वित्तीय पोषण के अभाव में शैशवास्था में ही दम तोड़ गर्इं।
एक विदेशी सवांददाता के रुप में बाला ने सबसे पहले हांगकांग से प्रकाशित साप्ताहिक एशियावीक के लिए काम किया, वह इस महत्वपूर्ण पत्रिका के भारत में पहले स्टाफ सवांददाता बने। बाला कहते हैं कि यह तीन साल तक चला। वह लिखते हैं: ”इसके बाद अनेक अन्य बड़े-बडे अतंरराष्ट्रीय प्रकाशन इस कड़ी जुड़े। उनमें थे रेडियो आस्ट्रेलिया] वांशिगटन पोस्ट, गल्फ न्यूज और रायटर साथ-साथ डेली मेल टूडे जैसे ब्रिटिश साप्ताहिक तथा यूएसए टुडे भी।”
पुस्तक के आवरण पर लेखक की अपनी टिप्पणी बहुत सटीक प्रतीत होती है। वह कहते हैं कि वह तभी लिखते हैं जब वह ‘द्रवित‘ हो उठते हैं, वह आगे लिखते हैं” अनुभव में मुझसे आधे लोग जब अलमारी के एकड़ के ज्यादा हिस्से पर छाए रहते हैं तब मैं केवल एक छोटा सा संग्रह कर पाया हूं जिसे ज्यादा से ज्यादा सम्पादकीय लेखन या निबन्ध वर्णित किया जा सकता है।”
परन्तु मैं इस पुस्तक के प्रकाशक से इस पर पूरी तरह सहमत हूं कि एक लेखक के बारे में निर्णय उसके कार्य के आकार के बजाय उसके लेखन की गुणवत्ता से करना चाहिए। मैं इस 163 पृष्ठीय पुस्तक को थोड़ा पढ़ पाया हूं। उनके द्वारा प्रकट किए गए सभी विचारों से मैं भले ही सहमत नहीं होऊं लेकिन जहां तक उनके लेखन की गुणवत्ता का सम्बन्ध है, मैं अवश्य कहूंगा कि यह शानदार है। अपने परिचय की शुरुआत में अपने बारे में लिखे गए उनके कुछ पैराग्राफ का नमूना यहां प्रस्तुत है। वह कहते हैं:
”लिखने का प्रत्येक प्रयास दिमाग पर धावा बोलना है; और प्रत्येक लेखक अपने निजी आंतरिक विचारों का लुटेरा है; विचारों को वह अपने दिमाग की गहराईयों से लाता है और दुनिया के सामने रखने से पहले उन्हें शब्दों और छवियों में पिरोता है।
निस्संदेह यह अत्यन्त दु:खदायी काम है जहां सारी पीड़ा सिर्फ लेखक की है।
कुछ इसे एक सीरियल किलर के रौब से करते हैं। अन्य इसे एक सजा के रुप में भुगतते हैं जिससे भागने में वे असफल रहे हैं। किसी भी रुप में, यह एक त्याग का काम है, आत्मा की शुध्दि का और इसलिए एक भाव विरेचक अनुभव है।
मैं शब्दों की दुनिया में पत्रकारिता के माध्यम से आया जो केवल लेखन के अलंकृत विश्व के साथ खुरदरा सम्बन्ध रखती है। मैं मानता हूं कि यद्यपि पत्रकारिता में मेरा प्रवेश कभी भविष्य में लेखक बनने की गुप्त इच्छा के बगैर नहीं था, तथापि मैं सोचता हूं कि पत्रकारिता एक ऐसा मार्ग था जो एक लेखक बनने की इच्छा हेतु मार्ग प्रशस्त करती है।
सौभाग्य से या अन्य कारण से प्रत्येक पत्रकार लेखक नहीं बनता। लेकिन जैसे प्रत्येक गणिका पत्नी नहीं बनती। सभी पत्रकार गणिकाएं हैं जो रानियां बनना चाहते हैं: लेकिन दहलीज इतनी चौड़ी है कि उनके यह बनने की प्रगति सदैव सुखद रुप से कम रहती है।”
***आज का ब्लॉग एक पुस्तक के बारे में है जिसे दो दिन पूर्व मैंने विमोचित किया था और जिसके शीर्षक में मैंने लिखा था – ‘अत्यन्त सुंदर ढंग से लिखी गई।‘ लेकिन ब्लॉग अभी तक सिर्फ लेखक के बारे में बोलता है। मैं अपने पाठकों को पुस्तक की सामग्री की एक झलक भी देना चाहता हूं। ब्लॉग के इस हिस्से में मैं पुस्तक से मात्र एक उध्दरण देना चाहता हूं जो हमें बताता है कि कैसे बाला रायसीना हिल की अपनी विशिष्ट स्थिति से भारत के पहले प्रधानमंत्री पण्डित नेहरू, श्रीमती इंदिरा गांधी और श्री अटल बिहारी वाजपेयी को देखते हैं, साथ ही भ्रष्टाचार और परमाणु शक्ति को भी।
पहला उध्दरण शीर्षक ”अवर ट्रायस्ट विद् नेहरूस लैम्प पोस्ट” वाले अध्याय से है। यह कहता है:
पण्डित नेहरू अनेक लोगों के लिए बहुत कुछ थे। वह एक प्रतिभाशाली बैरिस्टर थे जो एक मंहगे वकील बन सकते थे यदि उन्हें पहला पाठ गांधी से न मिला होता तो।
वह संसद में भ्रष्ट न्यायाधीशों या प्रधानमंत्रियों के हत्यारों या उनका भी जिन्होंने करेन्सी नोटो से भरे संदूकों को प्रधानमंत्री को रिश्वत दी थी का बचाव कर रहे होते।
वह एक स्वप्नदर्शी थे जो तब तक नींद में थे जब तक उनके अच्छे दोस्त चाऊ एन लाई ने उन्हें जगा नहीं दिया, भले ही भौण्डे ढंग से क्यों न हो।
और, निस्संदेह वह एक शानदार कलाकार थे जो अपने जीवन भर हेमलेट की भूमिका निभाते रहे और तब भी आभास देते रहे कि वह तो जूलियस सीज़र की भूमिका निभा रहे हैं।
लेकिन इस अधिकांश, और जिसे किसी माप में मापा न जा सके, तो वह हमारे महानतम और सर्वाधिक सफल मध्यस्थ थे, जिन्होंने हमारे लिए बहुप्रतीक्षित हमारी अपनी नियति से हमारा मिलन कराया:
हालांकि हमारी नियति से मिलन तय करते समय, इसे देश के निर्माता नेहरू ने देशभर में कुछ लैम्प पोस्ट खड़े करवाए – हमें बिजली देने के लिए नहीं अपितु भ्रष्टों, कालाबाजारियों और हवाला व्यापारियों को लटकाने के लिए:
उन्हें लटका दो, यदि उन्हें हम खोज सकें। क्योंकि नेहरू सोचते थे कि यह घास के ढेर में सुई ढूंढने जैसा काम होगा, इतना कठिन और इतना अविश्वसनीय। क्योंकि वह सोचते थे कि एक स्वतंत्रता के लिए इतना कड़ा संघर्ष किया गया और इतनी मुश्किल से जीता गया, को इतनी आसानी से नष्ट या बेरंग नहीं किया जा सकता और वह भी उन लोगों द्वारा जिन्होंने इसे बनाया है।
और मात्र 50 वर्षों में इस घास के ढेर की कायापलट होकर यह एक खरपतवार की तरह से आकार और क्रूरता में बढ़ा है, जोकि राष्ट्र की भावना और संवेदनाओं पर प्रहार कर रहा है। 50 वर्षों में, लैम्प पोस्ट एक प्रकार से बदल गई प्रतीत होती हैं उन्हीं राजनीतिज्ञों द्वारा परिवर्तित कर दिया गया है जो इन पर लटकाए जाने वाले थे।
पचास वर्ष पश्चात् अब, जब हम अपने भविष्य से प्रथम महान अर्ध्दरात्रि की मुलाकात का समारोह कर रहे हैं, तब मैं नेहरू को ही उदृत करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूं लेकिन अलग संदर्भ में और किसी अन्य के संदर्भ में – उन अंग्रेजों के बारे में जिन्हें स्वयं नेहरू ने अपने अनोखे अंदाज में स्वतंत्रता के सुदर फूल के रूप में पुकारते थे।
नेहरू ने एक एक ऐसी ही अवसर पर कहा था ”मैं जानता हूं कि ब्रिटिश साम्राज्य में सूर्य क्यों नहीं कभी अस्त होता, क्योंकि ईश्वर अंधेरे में किसी अंग्रेज पर कभी भरोसा नहीं करता।” यह एक निष्कपट विचार है: क्या हमने किसी पर इतना ज्यादा विश्वास नहीं किया जब हम उस अर्ध्दरात्रि की मुलाकात हेतु गए? शायद, हमें यह मुलाकात एक लैम्प पोस्ट के नीचे करनी चाहिए थी जिस पर प्रकाश आ रहा होता।
भारत के एक परमाणु शक्ति बनने पर बाला का टिप्पणियां समान रुप से महत्वपूर्ण हैं, इस लेख का उपशीर्षक है: ”जब वृहत्काय जगा: भारत एक परमाणु शक्ति के रुप में” (When a Giant Wakes up: India as a Nuclear Power)। इसमें लेखक कहते हैं:
अमेरिका के 1500 या रुस के 700 अथवा चीन के 45 विस्फोटों की तुलना में भारत के पांच परमाणु विस्फोटों से आखिर दुनिया में भूकम्प और कूटनीतिक रेडियोधर्मिता पैदा क्यों होनी चाहिए। संभवतया, इसका उत्तर तथाकथित महाशक्तियों के पूर्वाग्रह और भेदभाव वाली मानसिकता में ज्यादा न होकर हमारे अपने सभ्यतागत डीएनए और हमारे लोगों तथा उनके नेताओं-राजनीतिक, सामाजिक और यहां तक कि धार्मिक-की वंशगत भीरुता में है।
हिन्दूइज्म को एक पराजयवादी या एक शांतिवादी जीवन जीने के रुप में गलत परिभाषित करने ने हमारे राष्ट्र-राज्य को स्वयं हिन्दुइज्म की तुलना में ज्यादा नुक्सान पहुंचाया है।
यह अपने आप में साफ करता है कि क्यों पूरी दुनियाभर में थरथराने वाले भूकम्प आया जब यह राष्ट्र, जिसे सदियों से सुस्त शरीर और कमजोर भावना मानकर चला जाता है, जब खड़े होने और अपने जीवन तथा सम्पत्ति का रक्षक बनने का निर्णय किया-जैसाकि 1974 में भारत के पहले परमाणु विस्फोट के समय हुआ।
जब श्रीमती गांधी ने यह निर्णय किया तब वह परमाणु हथियारों और दुनिया पर प्रभुत्व रखने वाले, माने जाने वाले कुछ राष्ट्रों के विरुध्द मात्र खड़ी नहीं हुई थीं। उनकी कोशिश, देश की शांतिवादी परम्परा में व्यवहारगत परिवर्तन लाने की एक बहादुरी वाला प्रयास था। दुर्भाग्य से, यद्यपि 24 वर्ष पूर्व उनका पोखरण विस्फोट कोई ठोस व्यवहारगत परिवर्तन नहीं ला पाया, क्योंकि मुख्य रुप से वह स्वयं, चुनौतियां का सामना करने हेतु राष्ट्र की अन्तर्निहित शक्ति के बारे में अनभिज्ञ थीं।
यह तथ्य कि श्रीमती गांधी का आग्रह कि 1974 का परीक्षण एक शांतिपूर्ण विस्फोट था न कि एक बम-सिर्फ दर्शाता हे कि यह ठोस आधार के अभाव में मात्र एक दिखावा था।
बाद के 24 वर्ष, पहले पोखरण विस्फोट को एक पुरातत्व संग्रह में रखने वाले; और ‘नेक‘ माफ कर देने वाले हिन्दुओं की भांति, हम हमारे राष्ट्र के अतीत के स्वयं के क्षूद्र और बचे-खुचे अवशेष की तरह बने रहे।
जब मई 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी ने किया वह हमें इस पराजित मानसिकता वाली नींद से झकझोर और हमारे राष्ट्रीय गौरव का पुन: दृढ़ता से घोष था। स्वाभाविक रुप से परमाणु मोर्चेबंदी वाले खुश नहीं हुए।
निस्संदेह, सभी एक अच्छे व्यक्ति को पसंद करते हैं लेकिन सभी दृढ़ व्यक्ति का सम्मान करते हैं। अभी भी सभी एक अच्छे ओर दृढ़ व्यक्ति को प्रेम ओर सम्मान करते हैं। एक नेक बृहकाय बच्चों के हीरो का रोमांटिक विचार होने के साथ-साथ व्यस्कों की दुनिया का भी सपना है।
चौबीस वर्ष पश्चात्, अटल बिहारी वाजपेयी ने इसे एक असली हथियार के रुप में बदल दिया है जो राष्ट्र की रक्षा सभी शत्रुओं-चाहें वे असली हों थी माने जाने वाले-से करेगा। बिल क्लिंटन और नवाज शरीफ ने इसे पसंद नहीं किया।
वाजपेयी इन सज्जनों को खुश करने के लिए ‘नेक‘ इंसान बन सकते थे। लेकिन यह एक तथ्य है कि एक नेक इंसान को अक्सर भू-राजनीति की झुलसाने वाली वास्तविकताओं से सामना करना पड़ता है। और वाजपेयी इसे उसी तरह से समझते थे जैसाकि उनकी स्थिति वाले व्यक्ति को पता है, यदि आज भी इस्राइल जिंदा है तो एक यहूदी राष्ट्र होने के नाते, जिसने शुरु से ही एक ‘नेक इंसान‘ न बनने का फैसला किया।

एल के अडवाणी के ब्लाग से :न्यायिक नियुक्तियों सम्बन्धी कॉलिजियम पध्दति इमरजेंसी से भी ज्यादा घातक

एन डी ऐ के पी एम् इन वेटिंग और वरिष्ठ पत्रकार लाल कृषण अडवाणी ने अपने ब्लॉग में वर्तमान न्यायिक नियुक्तियों सम्बन्धी कॉलिजियम पध्दति पर चिंता व्यक्त करते हुए इसे लोक तंत्र के लिए इमरजेंसी कल से भी ज्यादा घातक बताया है उन्होंने इस कॉलिजियम पध्दति की पुनरीक्षा की जरूरत पर बल दिया है|इस ब्लाग में श्री अडवाणी ने टेलपीस नही दिया है
प्रस्तुत है एल के अडवाणी के ब्लाग से एक वरिष्ठ पत्रकार की चिंता
भारत को स्वतंत्र हुए 65 से ज्यादा वर्ष हो गए हैं। यदि कोई मुझसे पूछे कि साढ़े छ: दशकों की इस अवधि में देश की सर्वाधिक बड़ी उपलब्धि क्या रही है, तो निस्संकोच मेरा जवाब होगा : लोकतंत्र।

एल के अडवाणी के ब्लाग से :न्यायिक नियुक्तियों सम्बन्धी कॉलिजियम पध्दति इमरजेंसी से भी ज्यादा घातक

एल के अडवाणी के ब्लाग से :न्यायिक नियुक्तियों सम्बन्धी कॉलिजियम पध्दति इमरजेंसी से भी ज्यादा घातक

हम गरीबी, निरक्षरता और कुपोषण पर विजय नहीं पा सके हैं। लेकिन पश्चिमी विद्वानों के प्रचंड निराशावाद के विपरीत 1947 के बाद से औपनिवेशिक दासता से मुक्त होने वाले देशों में विशेष रूप से भारत जीवंत और बहुदलीय लोकतंत्र बना हुआ है।
यह भी सत्य है कि 1975-77 के आपातकाल की अवधि के दो वर्ष का कालखण्ड एक काले धब्बे की तरह है, जब कानून का शासन, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और लोकतंत्र की अन्य जरूरी विशेषताओं पर ग्रहण लग गया था।
मेरा मानना है कि 1975 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय जिसने न केवल प्रधानमंत्री श्रीमती गांधी के चुनाव को अवैध करार दिया था अपितु उनके 6 वर्षों तक कोई भी चुनाव लड़ने पर रोक लगाई थी, की आड़ में सत्ता में बैठे लोगों ने हमारे संविधान निर्माताओं द्वारा प्रदत्त लोकतंत्र को ही समाप्त करने का गंभीर प्रयास किया।
पं. नेहरू द्वारा शुरू किये गये नई दिल्ली से प्रकाशित दैनिक समाचार-पत्र नेशनल हेराल्ड ने तंजानिया जैसे अफ्रीकी देशों में लागू एकदलीय प्रणाली की प्रशंसा करते हुए एक सम्पादकीय लिखा:
जरूरी नहीं कि वेस्टमिनिस्टर मॉडल सबसे उत्तम मॉडल हो और कई अफ्रीकी देशों ने इस बात का प्रदर्शन कर दिया है कि लोकतंत्र का बाहरी स्वरूप कुछ भी हो, जनता की आवाज का महत्व बना रहेगा। एक मजबूत केन्द्र की आवश्यकता पर जोर देकर प्रधानमंत्री ने भारतीय लोकतंत्र की शक्ति की ओर संकेत किया है। एक कमजोर केंद्र होने से देश की एकता, अखंडता और स्वतंत्रता की रक्षा को खतरा पहुंच सकता है। उन्होंने एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्रश्न उठाया है : यदि देश की स्वतंत्रता कायम नहीं रह सकती तो लोकतंत्र कैसे कायम रह सकता है?
दो सदियों के ब्रिटिश राज में भी अभिव्यक्ति के अधिकार को इतनी निर्ममता से नहीं कुचला गया जितना कि 1975-77 के आपातकाल के दौरान। 1,10,806 लोगों को जेलों में ठूंस दिया गया, जिनमें 253 पत्रकार थे।
इस सबके बावजूद यदि लोकतंत्र जीवित है तो इसका श्रेय मुख्य रूप से मैं दो कारणों को दूंगा: पहला, न्यायपालिका; और दूसरा मतदाताओं को जिन्होंने 1977 में कांग्रेस पार्टी को इतनी कठोरता से दण्डित किया कि कोई भी सरकार आपातकाल के प्रावधान का दुरूपयोग करने की हिम्मत नहीं कर पाएगी जैसा कि 1975 में किया गया।
सभी प्रमुख राजनीतिक नेताओं, सांसदों इत्यादि को आपातकाल में मीसा-आंतरिक सुरक्षा बनाए रखने वाले कानून-के तहत बंदी बना लिया गया था। इनमें जयप्रकाश नारायण के अलावा पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई, चन्द्रशेखरजी और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेता भी थे। कुल मिलाकर मीसाबंदियों की संख्या 34,988 थी। कानून के तहत मीसाबंदियों को कोई राहत नहीं मिल सकती थी।
सभी मीसाबंदियों ने अपने-अपने राज्यों के उच्च न्यायालयों में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर की हुई थी। सभी स्थानों पर सरकार ने एक सी आपत्ति उठाई: आपातकाल में सभी मौलिक अधिकार निलम्बित हैं और इसलिए किसी बंदी को बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर करने का अधिकार नहीं है। लगभग सभी उच्च न्यायालयों ने सरकारी आपत्ति को रद्द करते हुए याचिकाकर्ताओं के पक्ष में निर्णय दिए। सरकार ने इसके विरोध में न केवल सर्वोच्च न्यायालय में अपील की अपितु उसने इन याचिकाओं की अनुमति देने वाले न्यायाधीशों को दण्डित भी किया। अपने बंदीकाल के दौरान मैं जो डायरी लिखता था उसमें मैंने 19 न्यायाधीशों के नाम दर्ज किए हैं जिनको एक उच्च न्यायालय से दूसरे उच्च न्यायालय में इसलिए स्थानांतरित किया गया कि उन्होंने सरकार के खिलाफ निर्णय दिया था!
16 दिसम्बर, 1975 की मेरी डायरी के अनुसार:
सर्वोच्च न्यायालय मीसाबन्दियों के पक्ष में दिये गये उच्च न्यायालय के फैसलों के विरूध्द भारत सरकार की अपील सुनवाई कर रहा है। इसमें हमारा केस (चार सांसद जो एक संसदीय समिति की बैठक हेतु बंगलौर गए थे लेकिन उन्हें वहां बंदी बना लिया गया) भी है। न्यायमूर्ति खन्ना ने निरेन डे से पूछा कि : संविधान की धारा 21 में केवल व्यक्तिगत स्वतंत्रता नहीं बल्कि जिंदा रहने के अधिकार का भी उल्लेख है। क्या महान्यायवादी का यह भी अभिमत है कि चूंकि इस धारा को निलंबित कर दिया गया है और यह न्यायसंगत नहीं है, इसलिए यदि कोई व्यक्ति मार डाला जाता है तो भी इसका कोई संवैधानिक इलाज नहीं है? निरेन डे ने उत्तर दिया कि : ”मेरा विवेक झकझोरता है, पर कानूनी स्थिति यही है।”
यहां यह विशेष उल्लेखनीय है कि सर्वोच्च न्यायालय के अधिकांश न्यायाधीशों ने बाद में स्वीकारा कि उक्त कुख्यात केस में फैसला गलत था। इनमें से कई ने सार्वजनिक रूप् से अपने विचारों को प्रकट किया।
सन् 2011 में, सर्वोच्च न्यायालय ने औपचारिक रुप से घोषित किया कि सन् 1976 में इस अदालत की संवैधानिक पीठ द्वारा अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला केस में दिया गया निर्णय ”त्रुटिपूर्ण‘ था, चूंकि बहुमत निर्णय ”इस देश में बहुसंख्यक लोगों के मूलभूत अधिकारों का उल्लंघन करता है,” और यह कि न्यायमूर्ति खन्ना का असहमति वाला निर्णय देश का कानून बन गया है।
इन दिनों देश में सर्वाधिक चर्चा का विषय भ्रष्टाचार है। एक समय था जब भ्रष्टाचार की बात कार्यपालिका-राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों के संदर्भ में की जाती थी। कोई भी न्यायपालिका में भ्रष्टाचार की बात नहीं करता था, विशेषकर उच्च न्यायपालिका के बारे में तो नही ही।
परन्तु हाल ही के वर्षों में इसमें बदलाव आया है। सर्वोच्च न्यायालय की एक पूर्व न्यायाधीश रूमा पाल ने नवम्बर, 2011 में तारकुण्डे स्मृति व्याख्यानमाला में बोलते हुए ”न्यायाधीशों के सात घातक पापों” को गिनाया। इनमें भ्रष्टाचार भी एक था।
अपने भाषण में उन्होंने कहा कि यह मानना कि आजकल न्यायपालिका में भ्रष्टाचार है, भी ”न्यायपालिका की स्वतंत्रता की विश्वसनीयता के लिए उतना ही हानिकारक है जितना कि भ्रष्टाचार।”
मैं अक्सर इस पर आश्चर्य व्यक्त करता हूं कि यदि जून 1975 जैसी स्थिति आज देखने को मिले तो न्यायपालिका की प्रतिक्रिया कैसी होगी। क्या उच्च न्यायालयों के कम से कम 19 न्यायाधीश मीसाबंदियों के पक्ष में निर्णय कर कार्यपालिका की नाराजगी मोल लेने का साहस जुटा पाएंगे? सचमुच में मुझे संदेह है।
कालान्तर में, चयनित न्यायाधीशों के स्तर के सम्बन्ध में काफी बदलाव आया है जब रूमा पाल ने न्यायाधीशों के सात पापों के बारे में बोला तो, स्वयं एक सम्मानित न्यायविद् होने के नाते उन्होंने अपने भाषण में जानबूझकर यह चेतावनी जोड़ी कि वह ”सेवानिवृत्ति के बाद सुरक्षित” होकर बोल रही हैं।
वर्तमान में, न्यायिक नियुक्तियों और न्यायाधीशों के तबादले – भारत के मुख्य न्यायाधीश और सर्वोच्च न्यायालय के चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों की एक समिति जिसे ‘कॉलिजियम‘ कहा जाता है, द्वारा किए जाते हैं। इस कॉलिजियम प्रणाली की जड़ें तीन न्यायिक फैसलों (1993, 1994 और 1998) में निहित हैं। इनमें से पहला और दूसरा निर्णय भारत के मुख्य न्यायाधीश रहे न्यायमूर्ति जे.एस. वर्मा ने दिया। फ्रंटलाइन पत्रिका (10 अक्तूबर, 2008) को दिए गए एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा ”सन् 1993 का मेरा निर्णय जिसका हवाला दिया जाता है को बहुत ज्यादा गलत समझा गया, दुरूपयोग किया गया। यह उस संदर्भ में कहा गया कि कुछ समय से निर्णयों की कार्यपध्दति के बारे में जो गंभीर प्रश्न उठ रहे हैं उन्हें गलत नहीं कहा जा सकता। इसलिए पुनर्विचार जैसा कुछ होना चाहिए।”
सन् 2008 में, विधि आयोग ने अपनी 214वीं रिपोर्ट में विभिन्न देशों की स्थितियों का विश्लेषण करते हुए कहा: ”अन्य सभी संविधानों में न्यायाधीशों की नियुक्ति में या तो कार्यपालिका एकमात्र प्राधिकरण्ा है या कार्यपालिका मुख्य न्यायाधीशों की सलाह से न्यायधीशों की नियुक्ति करती है। भारतीय संविधान दूसरी प्रणाली का अवलम्बन करता है। हालांकि, दूसरा निर्णय कार्यपालिका को पूर्णतया विलोपित अथवा बाहर करता है।”
‘फ्रंटलाइन‘ में प्रकाशित न्यायमूर्ति वर्मा के साक्षात्कार को उदृत करते हुए विधि आयोग लिखता है: ”भारतीय संविधान अनुच्छेद 124 (2) और 217(1) के तहत नियंत्रण और संतुलन की सुंदर पध्दति का प्रावधान करता है कि सर्वोच्च न्यायालयों और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति में कार्यपालिका और न्यायपालिका की संतुलित भूमिका का उल्लेख है। यही समय है कि अधिकारों के संतुलन का वास्तविक स्वरुप पुर्नस्थापित किया जाए।”
हम, विश्व का सर्वाधिक बड़ा लोकतंत्र हैं जिसमें स्वाभाविक रुप से आशा की जाती है कि कम से कम उच्च न्यायिक पदों से जुड़ी नियुक्तियां पारदर्शी, निष्पक्ष और योग्यता आधारित पध्दति से हों। तारकुण्डे स्मृति व्याख्यानमाला में न्यायमूर्ति रुमा पाल ने टिप्पणी की कि ”सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया देश में सर्वाधिक रुप में गुप्त रखे जाने वाला विषय है।”
उन्होंने कहा कि ”इस प्रक्रिया की ‘रहस्यात्मकता‘ जिस छोटे से समूह से यह चयन किया जाता है और बरती जाने वाली ‘गुप्तता और गोपनीयता‘ सुनिश्चित करती है कि ‘अवसरों पर प्रक्रिया में गलत नियुक्तियां हो जाती हैं और इससे ज्यादा अपने आप को भाईभतीजावाद में फंसा देती हैं।”
वे कहती हैं कि एक अविवेकपूर्ण टिप्पणी या अनायास अफवाह ही पद के लिए किसी व्यक्ति की दृष्टव्य सुयोग्यता को बाहर कर सकती है। उनके अनुसार मित्रता और एहसान कभी-कभी अनुशंसाओं को सार्थक बना देते हैं।

एल के अडवाणी के नज़रिए से तवलीन सिंह की १० जनपथी” दरबार” L K Advani On “Darbar” Of TAVLEEN SINGH

एल के अडवाणी ने अपने ब्लाग में तवलीन सिंह की पुस्तक दरबार के हवाले से इंडिया गेट+और रायसीना हिल्स पर हो रही दमनात्मक कार्यवाही को आज़ादी के विरुद्ध आपातकालीन युग की शुरुआत बताने का प्रयास किया है|उन्होंने इसके लिए पुस्तक में से आपातकाल के दौरान रैली में दिए गए अपने नेता अटल बिहारी वाजपई की इस टिपण्णी का भी उल्लेख किया|

एल के अडवाणी के नज़रिए से तवलीन सिंह की १० जनपथी” दरबार”


अडवाणी ने ब्लाग के टेलपीस (पश्च्यलेख)में कहा है की मेरा मानना है कि तवलीन की पुस्तक के पाठक अध्याय पांच शीर्षक 1977 चुनाव को बड़े चाव से पढ़ेंगे-विशेषकर इस चुनावी भाषण के उदाहरण को, सर्वश्रेष्ठ वाजपेयी (Vintage Vajpayee)।
जब दिल्ली की दीवारों पर पहला पोस्टर लगा कि रामलीला मैदान में एक रैली होगी जिसे प्रमुख विपक्षी नेता सम्बोधित करेंगे, तो हम सभी को लगा कि यह एक मजाक है। स्टेट्समैन के रिपोरटर्स कक्ष में यह धारणा थी कि यदि पोस्टर सही भी हैं तो रैली फ्लॉप होगी क्योंकि लोग इसमें भाग लेने से डरेंगे। अभी भी आपातकाल प्रभावी था और पिछले अठारह महीनों से बना भय का वातावरण छंटा नहीं था।
चीफ रिपोर्टर राजू, सदैव की भांति निराशावादी था और उसने कहा कि श्रीमती गांधी को कोई हरा नहीं सकता, इसलिए इसमें कोई दम नहीं है। ‘यहां तक कि यह विपक्ष की रैली है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा। यदि उन्हें अपनी जीत के बारे में थोड़ा भी संदेह होता तो वह चुनाव नहीं कराती‘।
‘हां, लेकिन वह गलती तो कर सकती है,’ मैंने कहा। ‘मैंने सुना है कि उनका बेटा और उत्तराधिकारी इसके विरुध्द थे। उन्होंने बताया कि वह हार सकती हैं।‘ अनेक वर्ष बाद जब संजय गांधी के अच्छे दोस्त कमलनाथ दिल्ली में कांग्रेस सरकार में केबिनेट मंत्री थे, से मैंने पूछा कि क्या यह सही है कि संजय ने अपनी मां के चुनाव कराने सम्बन्धी निर्णय का विरोध किया था, कमलनाथ ने इसकी पुष्टि की। उन्होंने बताया कि जब उन्होंने चुनावों के बारे में सुना तब संजय और वह श्रीनगर में एक साथ थे और इस पर संजय काफी खफा थे।
जब हम मैदान पर पहुंचे तो हमने दखा कि लोग सभी दिशाओं से उमड़ रहे हैं। मगर अंदर और ज्यादा भीड़ थी। इतनी भीड़ मैंने कभी किसी राजनीतिक रैली में नहीं देखी थी। भीड़ रामलीला मैदान के आखिर तक और उससे भी आगे तक भरी हुई थी।
लगभग शाम को 6 बजे विपक्षी नेता सफेद एम्बेसडर कारों के काफिले में पहुंचे। एक के बाद एक ने मंच पर उबाऊ, लम्बे भाषण दिए कि उन्होंने जेल में कितने कष्ट उठाए। हिन्दुस्तान टाइम्स के अपने एक सहयोगी को मैंने कहा यदि किसी ने कोई प्रेरणादायक भाषण देना शुरु नहीं किया तो लोग जाना शुरु कर देंगे। उस समय रात के 9 बज चुके थे और रात ठंडी होने लगी थी यद्यपि बारिश रुक गई थी। उसने मुस्कराहट के साथ उत्तर दिया ‘चिंता मत करो, जब तक अटलजी नहीं बोलेंगे, कोई उठकर नहीं जाएगा।‘ उसने एक छोटे से व्यक्ति की ओर ईशारा किया जिसके बाल सफेद थे और उस शाम के अंतिम वक्ता थे। ‘क्यों?’ ‘क्योंकि वह भारत के सर्वश्रेठ वक्ता हैं।‘
जब अटलजी की बारी आई उस समय तक रात के 9.30 बज चुके थे और जैसे ही वह बोलने के लिए खड़े हुए तो विशाल भीड़ खड़ी हो गई और तालियां बजानी शुरु कर दी: पहले थोड़ा हिचक कर, फिर और उत्साह से उन्होंने नारा लगाया, ‘इंदिरा गांधी मुर्दाबाद, अटल बिहारी जिंदाबाद!‘ उन्होंने नारे का जवाब नमस्ते की मुद्रा और एक हल्की मुस्कान से दिया। तब उन्होंने भीड़ को शांत करने हेतु दोनों हाथ उठाए और एक मजे हुए कलाकार की भांति अपनी आंखे बंद कीं, और कहा बाद मुद्दत के मिले हैं दिवाने। उन्होंने चुप्पी साधी। भीड़ उतावली हो उठी। जब तालियां थमीं उन्होंने अपनी आंखें फिर खोलीं और फिर लम्बी चुप्पी के बाद बोले ‘कहने सुनने को बहुत हैं अफसाने।‘ तालियों की गड़गडाहट लम्बी थी और इसकी अंतिम पंक्ति जो उन्होंने बाद में मुझे बताई थी, तभी रची: ‘खुली हवा में जरा सांस तो ले लें, कब तक रहेगी आजादी कौन जाने।‘ अब भीड़ उन्मत्त हो चुकी थी।
रात की ठंड बढ़ने और फिर से शुरु हुई हल्की बूंदाबांदी के बावजूद कोई भी अपने स्थान से नहीं हटा। उन्होंने अटलजी को पूरी शांति के साथ सुना।
सरल हिन्दी में, वाकपटुता से अटलजी ने उन्हें बताया कि क्यों उन्हें इंदिरा गांधी को वोट नहीं देना चाहिए। उस रात दिए गए भाषण की प्रति मेरे पास नहीं है और वैसे भी वह बिना तैयारी के बोले थे, लेकिन जो मुझे याद है उसे मैं यहां सविस्तार बता सकती हूं। उन्होंने शुरु किया आजादी, लोकतांत्रिक अधिकारों, सत्ता में बैठे लोगों से असहमत होने का मौलिक अधिकार, जब तक आपसे ले लिए नहीं जाते उनका कोई अर्थ नहीं होता। पिछले दो वर्षों में यह न केवल ले लिए गए बल्कि जिन्होंने विरोध करने का साहस किया उन्हें दण्डित किया गया। जिस भारत को उसके नागरिक प्यार करते थे, अब मौजूद नहीं था। उन्होंने यह कहते हुए जोड़ा कि यह विशाल बंदी कैम्प बन गया है, एक ऐसा बंदी कैंप जिसमें मनुष्य को मनुष्य नहीं माना जाता। उनके साथ इस तरह से बर्ताव किया गया कि उन्हें उनकी इच्छा के विरुध्द काम करने को बाध्य किया गया जोकि एक मनुष्य की स्वतंत्र इच्छा के विरुध्द नहीं किया जाना चाहिए। विपक्षी नेता (उन्होंने कहा ‘हम‘) जानते हैं कि भारत की बढ़ती जनसंख्या के बारे में कुछ करने की जरुरत है; वे परिवार नियोजन का विरोध नहीं करते, लेकिन वे इसमें भी विश्वास नहीं करते कि मनुष्यों को जानवरों की तरह ट्रकों में डालकर उनकी इच्छा के विरुध्द उनकी नसबंदी कर दी जाए और वापस भेज दिया जाए। इस टिप्पणी पर तालियां बजीं और बजती रहीं, बजती रहीं तथा चुनाव वाले दिन ही मुझे समझ आया कि यह क्यों बज रहीं थीं।
अटलजी के भाषण समाप्ति के रुकी भीड़ ने और विपक्षी नेता अपनी सफेद एम्बेसेडर कारों में बैठे तथा भीड़ को छोड़ चले गए मानों तय किया था कि प्रेरणास्पद भाषण सुनने के बाद तालियों से भी ज्यादा कुछ और करना है। इसलिए जब पार्टी कार्यकर्ता चादर लेकर चंदा इक्ठ्ठा करते दिखाई दिए तो सभी ने कुछ न कुछ दिया। जनवरी की उस सर्द रात को मैंने देखा कि रिक्शा वाले और दिल्ली की सड़कों पर दयनीय हालत में रहने वाले दिहाड़ी मजदूर भी जो दे सकते थे, दे रहे थे तो पहली बार मुझे लगा कि इंदिरा गांधी के चुनाव हारने की संभावना हो सकती है।