पत्थर एक बार मंदिर जाता है और भगवान बन जाता है और आदमी हजारों बार मंदिर जातहै और इंसान भी नहीं बन पाता, ऐसा क्यों ? आखिर ऐसा क्या है कि शिल्पकार पत्थर को तराशकर ऐसा बना देता है कि मनुष्य उसके आगे सजदा करने लगते हैं उसे पूजने लगते हैं और उसपर ऐसे विश्वास करने लगते हैं जैसे परमात्मा उनके सामने खड़ा हैं। वास्तव में ऐसा होता भी है कि सच्चे मन से उस पत्थर के स्वरुप के सामने प्रार्थना करने से सुनवाई होती भी है।
हमारे इस सवाल का जवाब संतजन हमें इस तरह समझाते हैं कि ऐसा इसलिए होता है क्योंकि जब पत्थर शिल्पकार के हाथ में जाता है तो वह अपने आप को पूर्णतया सौंप
देता है। वह इस बात की चिंता छोड़ देता है कि शिल्पकार उसे काटेगा या उसपर छैनी हथोड़े से उसे तराशेगा । और इसी पूर्ण समर्पण भाव के कारण वह पत्थर एक दिन भगवान् का
स्वरुप बन जाता है।
मनुष्य जब मंदिर में जाता है तो वह सत्संग भी सुनता हैं , घंटियाँ भी बजाता है , अपने मस्तक तो प्रभु के स्वरुप के आगे झुकाता भी है परन्तु वह अपने अहम् को नहीं त्याग पाता और अपने आप को पूर्णतया समर्पित नहीं कर पाता । इसीलिए वह सच्चे अर्थों में इंसान भी
नहीं बन पाता ।
संत वाणी
प्रस्तुति राकेश खुराना
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