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Tag: अहम्

मोह,माया,ममता,अहम, फरेब को त्यागे बगैर अगर कहूं परमात्मा नहीं मिलता तो झल्ली ही कह्लाउंगी

तांघ माहि दी जली आं
नित काग उडावां खली आन
नै चन्दन दे शोर किनारे
घुम्मन घेरा ते ठाठा मारे
डुब डुब मोहे तारु सारे
शोर करा ते मैं झल्ली आं ।

Rakesh khurana

भाव: आत्मा की सबसे बड़ी इच्छा सद्गुरु परमात्मा को पाने की चाह होती है । सद्गुरु परमात्मा को पाने के लिए खुद को खोना भी पड़ता है तभी परमात्मा की समीपता प्राप्त हो सकती है । जीवन की सबसे बड़ी सार्थकता यही है ।
बुल्ले शाह फरमाते हैं कि हे प्रियतम मैं तेरी चाह में विरह की आग में जल रही हूँ , कागों[क्रो] के रूप में सांसारिक वासनाओं को अपने समीप नहीं आने देती,
संसार के तमाम रिश्ते नाते, कामनाएँ , वासनाएं प्रेम नदी के किनारे इतना शोर मचा रही हैं जिसके कारण आत्मा नदी में उतर ही नहीं पा रही है । तथा नदी भी इतनी भयानक है कि मोह , माया एवं ममता की भँवरे इतनी तेज पड़ती हैं कि तैरने वाला तो तैरने वाला कभी कभी दूसरों को पार पहुँचाने वाली लकड़ी की नाव भी इस में डूब जाती हैं । कितने ज्ञानी विज्ञानी इस नदी में डूब कर मर गए ऐसे में मेरा क्या होगा ? एक तरफ तो मैं तो इन मोह , माया, ममता, अहम्, फरेब, का त्याग नहीं कर पा रही , तथा दूसरी तरफ मैं शोर मचा रही हूँ की मुझे सद्गुरु परमात्मा की समीपता नहीं मिल पा रही, तो लोग तो मुझे झल्ली ही कहेंगे नां ।
सूफी संत बुल्ले शाह का कलाम
प्रस्तुति राकेश खुराना

अहम् को त्यागो तो इंसान बनो

पत्थर एक बार मंदिर जाता है और भगवान बन जाता है और आदमी हजारों बार मंदिर जातहै और इंसान भी नहीं बन पाता, ऐसा क्यों ? आखिर ऐसा क्या है कि शिल्पकार पत्थर को तराशकर ऐसा बना देता है कि मनुष्य उसके आगे सजदा करने लगते हैं उसे पूजने लगते हैं और उसपर ऐसे विश्वास करने लगते हैं जैसे परमात्मा उनके सामने खड़ा हैं। वास्तव में ऐसा होता भी है कि सच्चे मन से उस पत्थर के स्वरुप के सामने प्रार्थना करने से सुनवाई होती भी है।

अहम् को त्यागो तो इंसान बनो


हमारे इस सवाल का जवाब संतजन हमें इस तरह समझाते हैं कि ऐसा इसलिए होता है क्योंकि जब पत्थर शिल्पकार के हाथ में जाता है तो वह अपने आप को पूर्णतया सौंप
देता है। वह इस बात की चिंता छोड़ देता है कि शिल्पकार उसे काटेगा या उसपर छैनी हथोड़े से उसे तराशेगा । और इसी पूर्ण समर्पण भाव के कारण वह पत्थर एक दिन भगवान् का
स्वरुप बन जाता है।
मनुष्य जब मंदिर में जाता है तो वह सत्संग भी सुनता हैं , घंटियाँ भी बजाता है , अपने मस्तक तो प्रभु के स्वरुप के आगे झुकाता भी है परन्तु वह अपने अहम् को नहीं त्याग पाता और अपने आप को पूर्णतया समर्पित नहीं कर पाता । इसीलिए वह सच्चे अर्थों में इंसान भी
नहीं बन पाता ।

संत वाणी
प्रस्तुति राकेश खुराना