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Tag: प्रस्तुती राकेश खुराना

सद्विचारों की रस्सी से मोह माया के सागर से बाहर निकला जा सकता है

तन रहीम है कर्म बस , मन रखो ओहि ओर
जल में उलटी नाव ज्यों , खैंचत गुन के जोर
अब्दुर्रहीम खानखाना
अर्थ : कवि रहीम कहते हैं कि शरीर तो कर्म फल के आधीन है परन्तु मन को प्रभु भक्ति
की ओर लीन करके रखना चाहिए . जैसे – जल में नाव के उलट जाने पर उसे रस्सी से
खींचकर ही बचाया जाता है .
भाव : हमारा यह शारीर हमारे कर्म फल को ही हमेशा प्राप्त करता है . हम जैसा करते हैं ,
ईश्वर हमें वैसा ही फल देता है . ऐसे प्रभु के प्रति सदैव भक्ति – भाव बनाए रखना चाहिए .
जिस प्रकार जल में नाव के उलट जाने पर उसे रस्सी से बांधकर जल से बाहर निकालते हैं .
उसी प्रकार यदि संसार रुपी भवसागर की मोह – माया में हमारा मन लिप्त हो जाए तो हमें
दृढ़ता से अपने मन के चंचल स्वभाव पर अंकुश लगाना चाहिए और उसे सद्विचारों की रस्सी
से बांधकर इस मोह – माया से बाहर खींचकर लाना चाहिए , तभी हम अपने जीवन को सफल
बना सकते हैं अर्थात चंचल मन पर अंकुश रखना परम आवश्यक है
संत रहीम वाणी
(अब्दुल रहीम ख़ान-ए-ख़ाना[ १७-१२-१५५६-१६२७],मुग़ल बादशाह अकबर के नव रत्नों में से एक थे| जहाँ इन्हें इनके दोहों के लिए हिंदी साहित्य में इतिहास में श्रेष्ठ स्थान दिया गया है वहीं आस्ट्रालोजी पर उनकी किताब भी मील का पत्थर है|इन्ही के नाम पर पंजाब के नवांशहर में खानखाना गावं है|इनकी ननिहाल में कृष्ण भक्ति की जड़े बताई जाती है|
प्रस्तुती राकेश खुराना

बुल्ल्हा शौह नूं सोई पावे , जेह्ड़ा बकरा बणे कसाई दा

तेरा नाम तिहाई दा, साईं तेरा नाम तिहाई दा
बुल्ल्हे नालों चुल्ल्हा चंगा , जिस पर ताम पकाई दा
रल्ल फकीरां मजलस कीती , भोर भोर खाई दा
रंगड़े वालों खिंगर चंगा , जिस पर पैर घिसाई दा
बुल्ल्हा शौह नूं सोई पावे , जेह्ड़ा बकरा बणे कसाई दा
साईं बुल्लेशाह
सतगुरु परमात्मा का को प्राप्त करने का मार्ग अत्यंत कठिन है . इस मार्ग पर चलने से पहले अपने अहंकार और
स्वार्थ का त्याग करना पड़ता है. बुल्लेशाह इसी को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि हे सतगुरु परमात्मा ! हम बस तेरे
नाम का ही सुमिरन करते हैं .
बुल्ले से तो यह चूल्हा अच्छा है , क्योंकि इस पर कम – से – कम रोटी तो पकती है जिसे फकीर एकत्र होकर अत्यंत
संतोष से बांटकर खा लेते हैं .
अहंकारी से तो वह पत्थर अच्छा है जिस पर पैर घिसकर मैल साफ़ कर लिया जाता है परन्तु अहंकार तो रोज नई
गंदगी इस मन में एकत्र करता है .
सतगुरु परमात्मा को वही प्राप्त कर सकता है जो कसाई का बकरा बनने के लिए तैयार हो अर्थात सतगुरु परमात्मा
को प्राप्त करने के लिए ‘मैं ‘ को मिटाना पड़ता है क्योंकि परमात्मा का मिलन ही जीवन के चरम लक्ष्य की प्राप्ति है .

फल इच्छा बिना कर्म करने से ईश्वर प्राप्ति सरल होती है


न में पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि
श्रीमदभगवदगीता
भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को समझाते हुए कहते हैं -हे पार्थ ! मुझे तीनों लोकों में न तो कुछ कर्तव्य है
और न कोई प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्य है , फिर भी मैं कर्तव्य में लगा रहता हूँ .
व्याख्या : भगवान भी अवतार काल में सदा कर्तव्य , कर्म में लगे रहते हैं , इसलिए जो साधक फल की
इच्छा से रहित और आसक्ति से रहित होकर सदा कर्तव्य , कर्म में लगा रहता है , वह आसानी
से भगवान को प्राप्त कर लेता है.
भगवद गीता
प्रस्तुती राकेश खुराना

बुल्ल्हे नालों चुल्ल्हा चंगा , जिस पर ताम पकाई दा

तेरा नाम तिहाई दा, साईं तेरा नाम तिहाई दा
बुल्ल्हे नालों चुल्ल्हा चंगा , जिस पर ताम पकाई दा
रल्ल फकीरां मजलस कीती , भोर भोर खाई दा
रंगड़े वालों खिंगर चंगा , जिस पर पैर घिसाई दा
बुल्ल्हा शौह नूं सोई पावे , जेह्ड़ा बकरा बणे कसाई दा
साईं बुल्लेशाह
सतगुरु परमात्मा का को प्राप्त करने का मार्ग अत्यंत कठिन है . इस मार्ग पर चलने से पहले अपने अहंकार और
स्वार्थ का त्याग करना पड़ता है. बुल्लेशाह इसी को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि हे सतगुरु परमात्मा ! हम बस तेरे
नाम का ही सुमिरन करते हैं .
बुल्ले से तो यह चूल्हा अच्छा है , क्योंकि इस पर कम – से – कम रोटी तो पकती है जिसे फकीर एकत्र होकर अत्यंत
संतोष से बांटकर खा लेते हैं .
अहंकारी से तो वह पत्थर अच्छा है जिस पर पैर घिसकर मैल साफ़ कर लिया जाता है परन्तु अहंकार तो रोज नई
गंदगी इस मन में एकत्र करता है .
सतगुरु परमात्मा को वही प्राप्त कर सकता है जो कसाई का बकरा बनने के लिए तैयार हो अर्थात सतगुरु परमात्मा
को प्राप्त करने के लिए ‘मैं ‘ को मिटाना पड़ता है क्योंकि परमात्मा का मिलन ही जीवन के चरम लक्ष्य की प्राप्ति है

बुल्ले शाह दी काफी

बादशाह औरंगजेब के शासन काल में सय्यद परिवार में लाहौर के कसूर पंडोकी गावं में १६८० में जन्मे अब्दुलाह शाह कादिर को बाबा बुल्ले शाह भी कहा जाता है|बाबा ने पंजाबी गूड रहस्यवाद की अभिव्यक्ति पर कमांड हासिल की और विश्व के सर्वश्रेष्ठ सूफी का रुतबा हासिल किया|इनकी मृत्यु की त७८ वर्ष में हुई बताई जाती है\

प्रस्तुतकर्ता राकेश खुराना .

बादशाह औरंगजेब के शासन काल में सय्यद परिवार में लाहौर के कसूर पंडोकी गावं में १६८० में जन्मे अब्दुलाह शाह कादिर को बाबा बुल्ले शाह भी कहा जाता है|बाबा ने पंजाबी गूड रहस्यवाद की अभिव्यक्ति पर कमांड हासिल की और विश्व के सर्वश्रेष्ठ सूफी का रुतबा हासिल किया|इनकी मृत्यु की त७८ वर्ष में हुई बताई जाती है\

दैविक प्रेम अमरत्व का प्रतीक है.

प्रेम भक्ति को पैडो न्यारों, हमकू गैल लगा जा.

संत मीराबाई जी सतगुरु से प्रार्थना करती हुई कहती है, हे सतगुरु! प्रेम और
भक्ति का मार्ग मेरे लिए नितांत अजनबी और कठिन है. तुम मुझे इस पथ पर लगा
दो ताकि मैं सरलता से परमात्मा के दर्शन पा सकूँ.
प्रेम कि महान मूर्ति मीराबाई के जीवन से हमें यह सन्देश मिलता है कि दैहिक प्रेम
क्षणभंगुर है जबकि दैविक प्रेम अमरत्व का प्रतीक है. क्योंकि सच्चे प्रेम को तो
परमात्मा के स्वरुप में समाहित हो जाना है. प्रभु से एकाकार होना ही सबसे बड़ी
आराधना है और उसका एकमात्र रास्ता प्रेम है.
संत मीरा बाई वाणी

ज़िन्दगी मिली है दोस्ती के वास्ते= संत दर्शन सिंह

संत दर्शन सिंह जी महाराज के देश – विदेश में किए गए प्रवचनों से लिया गया एक अंश

ज़िन्दगी हमको मिली है दोस्ती के वास्ते
जान तक दे दो मुहब्बत की ख़ुशी के वास्ते
रूहानी मिशन सावन आश्रम के संत दर्शन सिंह जी महाराज
हमारी जो जिंदगी है उसका ये मकसद है कि हम दूसरों से हमदर्दी करें , दोस्ती करें , दूसरों के दुःख – दर्द हम बांटें
और अगर हम इतिहास के पन्ने पलटें , तारीखों पर नजर डालें तो हम देखेंगे कि जितने भी महापुरुष हुए हैं उन सबने हमारे
दुखों और दर्दों को बांटने में क़ुरबानी दी है . प्रभु को पाने का जो रास्ता है , ये क़ुरबानी का रास्ता है परम संत कृपाल सिंह जी
महाराज अक्सर फ़रमाया करते थे कि प्रेम निष्काम सेवा और त्याग करना जनता है .इशु -मसीह के जीवन को देखिए वो सूली
पर चढ़ गए , शम्स तरवेज की खाल खींच ली गई. पंचम पातशाह श्री गुरु अर्जुन देव जी महाराज को गर्म तवे पर बिठाया गया .
उनके दोस्त हजरत मियां मीर से ये बात देखी नहीं गई और उन्होंने गुरु अर्जुन देव जी महाराज से कहा , अगर आप इजाजत दें
तो मैं खानदाने मुगलिया की ईंट से ईंट बजा दूँ ,तो सच्चे पातशाह ने फ़रमाया – दोस्त , क्या ये मैं नहीं कर सकता ? मगर हमारा
जो रास्ता है वो राज़ी – बा – रज़ा रहने का है वो ‘तेरा भाणा मीठा लागे ‘ का मार्ग है और यही शब्द उच्चारण करते हुए उन्होंने
प्राण त्याग दिए

इन्द्रियों का प्रकाशक मन है

श्रीमदभागवद गीता के अनंत ज्ञान के सागर की कुछ बूँदें

परमात्मा सम्पूर्ण ज्योतियों की ज्योति तथा अज्ञान से अत्यंत परे हैं. परमात्मा ज्ञान स्वरुप एवं ज्ञान से प्राप्त
करने योग्य हैं. प्रभु सब के ह्रदय में विराजमान हैं.
शब्द का प्रकाशक कान है. स्पर्श का प्रकाशक त्वचा है. रूप का प्रकाशक नेत्र है. रस का प्रकाशक जिव्ह्या है.
गंध का प्रकाशक नासिका है. इन मन का प्रकाशक बुद्धि है. बुद्धि का प्रकाशक
आत्मा है एवं आत्मा का प्रकाशक परमात्मा है. परम पिता परमात्मा का प्रकाशक कोई नहीं है.
जैसे सूर्य मैं अन्धकार कभी नहीं आ सकता इसी प्रकार परम प्रकाशक परमात्मा में अज्ञान कभी नहीं आ सकता

संसार की प्यास हो तो परमात्मा लुप्त हो जाते हैं.

प्रभु को पाने के लिए प्यासे जिज्ञासुओं को समझाते हुए प्रभु कहते हैं कि जिसके भीतर
प्यास होती है उसे ही जल दीखता है. अगर प्यास ना हो तो जल सामने रहते हुए भी नहीं दीखता .ऐसे ही जिस में परमात्मा कि प्यास (लालसा) है, उसे परमात्मा दीखते हैं और जिसके भीतर संसार कि प्यास है , उसे संसार दीखता है. परमात्मा कि प्यास है तो संसार लुप्त हो जाता है और अगर

परमात्मा कि प्यास जाग्रत होने पर भक्त को भूतकाल का चिंतन नहीं होता, भविष्य की आशा
नहीं रहती और वर्तमान में परमात्मा को पाने की निरंतर कोशिश रहती है.

जब साधक संसार में किसी भी वस्तु-व्यक्ति को अपना तथा अपने लिए नहीं मानता बल्कि
एकमात्र भगवान् को ही अपना एवं अपने लिए मानता है, तब वह अकिंचन हो कर भगवान् का प्रेमी हो जाता है.
श्री मदभगवदगीता की अमृतमयी वर्षा की एक बूँद.

मनुष्य की विशेषताएं ईश्वरीय देन हैं

संतजन मनुष्यों को समझाते हुए कहते हैं कि मनुष्य में जो भी विशेषता आती है, वह सब भगवान से ही आती है.
अगर भगवान में विशेषता न होती तो वह मनुष्य में कैसे आती? जो वस्तु अंशी में नहीं है, वह अंश में कैसे आ सकती
है? जो विशेषता बीज में नहीं है वह वृक्ष में कैसे आएगी?
उन्ही भगवान कवित्व शक्ति कवि में आती है,
उन्हीं की वक्तृत्व शक्ति वक्ता मैं आती है!
उन्ही की लेखन शक्ति लेखक में आती है,
उन्ही की दातृत्व शक्ति दाता में आती है.
जिनसे मुक्ति, ज्ञान, प्रेम आदि मिले हैं उनकी तरफ दृष्टि ना जाने से ही ऐसा दीखता है कि मुक्ति मेरी है, ज्ञान मेरा
है, प्रेम मेरा है. यह तो देने वाले भगवान् की विशेषता है कि सबकुछ देकर भी वे अपने को प्रकट नहीं करते, जिस से
लेने वाले को वह वस्तु अपनी ही मालूम होती है. मनुष्य से यह बड़ी भूल होती है कि वह मिली हुई वस्तु को तो अपनी
मान लेता है किन्तु जहाँ से वह मिली है उसको अपना नहीं मानता.
संतवाणी

संत के चरण कमलों में मुक्ति मार्ग है

चारि पदारथ जे को मांगै, साध जना की सेवा लागै
जे को आपुना दुखु मिटावै, हरि-हरि नामु रिदै सद गावै
जे को अपुनी सोभा लोरै, साध संगी इह हउमै छोरै
जे को जनम मरण ते डरे , साध जना की सरनी परै .

भाव:

चारों पदार्थों ( धर्म, अर्थ,काम,मोक्ष) में से कोई कुछ चाहे तो उसे सद्गुरु की सेवा करनी चाहिए. अगर किसी को
दुःख और कष्टों से छुटकारा पाने की इच्छा हो तो उसे अपने आन्तरिक ह्रदय आकाश की गहराई में जाकर शब्द (नाम)
के साथ संपर्क स्थापित करना चाहिए. अगर किसी को अपनी प्रसिद्धि और नाम की इच्छा हो तो किसी संत की संगत
में जाकर अपने अहंकार का त्याग करना चाहिए. अगर किसी को जीने- मरने के कष्ट से डर लगता है तो किसी संत
के चरण कमलों का सहारा ढूँढना चाहिए.
गुरु वाणी गुरु अर्जुन देव जीl