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Category: Poetry

कायनात का प्रेमी ही परमात्मा को पाता है

कहा भयो जो दोऊलोचन मूंदी कै
बैठ रहिओ बक धिआनु लगाइयो
न्हात फिरिओ लीए सात समुद्रन
लोक गइओ परलोक गवाइओ
बास कीओ बिखिअन सो बैठि कै
ऐसे ही ऐसे सु बैस बिताइओ

सच कहूँ सुनि लेहु सभै
जिनि प्रेम कीओ तिन ही प्रभु पाइओ

भाव : दोनों आँखें मूंद कर बगुले की तरह बैठने से क्या होगा जबकि अन्दर मन में कपट भरा हो .
ऐसा व्यक्ति सात समुंदर पार करके तीर्थों में नहाता फिरे तो समझो उसका इहलोक और
परलोक दोनों बेकार हैं . विषय – विकारों में सदा लिप्त रहने वाला अपनी आयु यूँ ही गवां
देता है . मैं सच कहता हूँ परमात्मा को वही पाता है जो उसे और उसकी कायनात से प्रेम करता है.
वाणी गुरु गोबिंद सिंह जी

प्रभु से अलग होने पर अस्तित्व समाप्त

दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार
तरुवर ज्यों पत्ती झड़ें, बहुरि न लागे डार

संत कबीर दास जी कहते हैं
-हे मनुष्य! एक लाख चौरासी हजार योनिओं में भटकने के बाद
तुझे यह मनुष्य का जन्म मिला है. तुझे यह शरीर बार-बार नहीं मिलेगा . अब भी समय है
तू चेत जा और ईश्वर के भजन में लग जा . नहीं तो तेरा भी वही हाल होगा जैसे एक पेड़
की टहनी के पत्ते जब अलग होकर धरती पर गिर जाते हैं तो सूख जाते हैं और कभी
उस पेड़ की टहनी पर फिर से नहीं लग पाते इसी प्रकार अगर तुम अपने प्रभु से अलग हो
जाओगे तो तुम्हारा अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा.
संत कबीर वाणी

प्रभु नाम के अंकुश से मन की चंचलता शांत होती है

श्री रामशरणम् आश्रम, गुरुकुल डोरली , मेरठ के परमाध्यक्ष

पूज्यश्री भगत नीरज मणि ऋषि जी के प्रवचन का एक अंश.

लाखों जन्मों से हमारा मन जगत के रसों का चाटूकार बना हुआ है. जैसे ही हम परमात्मा को
याद करने के लिए बैठते हैं हमारा मन जगत के रस की तरफ भागता है और हम प्रभु के नाम में लीनता लाभ नहीं कर पाते. इस मन को रोकने के लिए अंकुश की आवश्यकता होती है.
जैसे एक विशालकाय एवं मस्त हाथी महावत के अंकुश से काबू में आ जाता है, इसी प्रकार
प्रभु के नाम के अंकुश से हमारे मन की चंचलता शांत हो जाती है.

भोंरा तब तक गुंजार करता रहता है जब तक उसे फूलों का रस नहीं मिलता, जैसे ही वह फूल पर बैठता है उसकी गुंजार बंद हो जाती है. इसी प्रकार जैसे ही हमारा मन परमात्मा के पावन नाम का पान करता है तो इसकी चंचलता शांत हो जाती है.

मीरा ने कान्हा प्रेम बेल को विरह आंसुओं से सींचा

अंसुवन जल सींच-सींच प्रेम बेलि बोई
अब तो बेल फ़ैल गई, आनंद फल होई.

संत मीराबाई ने प्रभु के प्रति अपनी विरह वेदना प्रकट करते हुए कहा है
कि मैंने अपने विरह आंसुओं से प्रेम की बेल को सींचकर विकसित किया है
वह बेल तन, मन और प्राणों पर छा गई है अब उसपर आनंद के फल लगने
लगे हैं . मेरे स्नेही प्रभु ने मुझे ह्रदय से लगा लिया है अर्थात मैंने प्रभु के प्रेम
का आनंद प्राप्त कर लिया है.
उल्लेखनीय है कि मीरा की विरह व्यथा कवि की मात्र कल्पना उड़ान के समान नहीं
है. संत मीराबाई के पद उनके अनुभवों की अभिव्यक्ति हैं. वास्तव में उनके पद उस प्रेम
दीवानी के सुख-दुखों का वृतांत है.
संत मीरा वाणी

इच्छा के बगैर किसी को सुधारा नहीं जा सकता

इच्छा के बगैर किसी को सुधारा नहीं जा सकता
अनकीन्हीं बातें करै, सोवत जागे जोय,
ताहि सिखाये जगायेबो, रहिमन उचित न होय.

संत कवि रहीम जी कहते हैं कि जो व्यक्ति अकथनीय वार्तालाप करे और जागा हुआ होने
पर भी सोता रहे, ऐसे मनुष्य को जाग्रत होने की शिक्षा देना उचित नहीं है.
भाव: भाव यह है कि जिस व्यक्क्ति ने अपने जीवन में कुछ न करने या न सुधरने
की कसम खाई हुई हो उसे कोई भी सुधार नहीं सकता. अर्थात सही मार्ग पर नहीं ला
सकता. ऐसे व्यक्ति को शिक्षा देना रेत में पानी कि कुछ बूँदें डालना अथवा चिकने घड़े
पर पानी डालने जैसा होता है.
संत कवि रहीम वाणी

बरसे-बरसे आनंद तेरा, मस्त मगन हो मनवा मेरा

बरसे-बरसे आनंद तेरा, मस्त मगन हो मनवा मेरा
श्री शक्तिधाम मंदिर, लाल कुर्ती में प्रवचनों की अमृतमयी वर्षा करते हुए पूज्य श्री भगत
नीरज मणि ऋषि जी ने कहा कि हम सब परमात्मा की कृपा को पाना तो चाहते हैं परन्तु
लाखों जन्मो की पाप कर्मों की धूल ने हमारी बुद्धि को आच्छादित किया हुआ है. हमारे
अंदर ईर्ष्या, द्वेष तथा अहंकार भरे हुए हैं. इसीलिए हम प्रभु की कृपा के पात्र नहीं बनते.
भक्तजन प्रभु से प्रार्थना करते हैं कि हे देव! हम पर अप्रनी कृपा रुपी बरसात कीजिये
जिससे हमारे अंतःकरण की लाखों जन्मों की धूल और ऊष्णता धुल जाए. हमारा मन
परमात्मा के भजन में लीनता लाभ करे.
” बरसे-बरसे आनंद तेरा, मस्त मगन हो मनवा मेरा”
भक्तजनों ने परमात्मा से माँगा कि हे प्रभु आपके आनंद के बादल उमड़ -उमड़ कर
हमारे अंतःकरण में बरसें जिससे हमारा मन निर्मल हो जाए, हमारे मन में किसी के
प्रति ईर्ष्या न रहे, हमारे अन्दर दूसरों को क्षमा करने की भावना पैदा हो जाये जिससे हम
परमात्मा की कृपा के पात्र बन सकें.|

उल्लेखनीय है कि पूज्य श्री भगत नीरज मणि ऋषि ने
छेत्र में धार्मिक और सामजिक सेवा की मान्यताओं को पुनः स्थापित करने में क्रान्ति कारी
पहल की है|

File Photo

कान्हा तुम्हारी राह निहारते नयन दुखने लगे

म्हारे घर आओ प्रीतम प्यारा,
तन मन धन सब भेंट धरुँगी, भजन करूंगी तुम्हारा,
तुम गुणवंत सुसाहिब कहिये, मोमें ओगुण सारा,
में निगुनी कछु गुण नहीं जानू, तुम हो बक्शणहारा
मीरा कहे प्रभु कब रे मिलोगे, तुम बिन नैन दुखारा.

संत मीराबाई जी प्रभु को विरह वेदना प्रकट करते हुए कहती हैं कि आप मेरे
घट मंदिर में विराजो. मैं अपना तन, मन, धन सबकुछ आपको भेंट करुँगी और
आपका गुणगान करुँगी. आप सर्वगुण संपन्न हैं मैं अवगुणों का भंडार हूँ. मुझमें कोई
गुण नहीं है. मैं पापी हूँ और आप बक्शणहारे हो.
आगे मीरा बाई जी कहती हैं हे प्रभु ! आप की राह निहारते-निहारते मेरे नयन दुखने लगे
हैं आप मेरे ह्रदय में कब पधारोगे?
मीरा वाणी

भक्ति मार्ग के पथिक को प्रेम एवं श्रद्धा अनिवार्य है.

द्वेष , कलह विवाद जहाँ, वहां न भक्ति उमंग
यथा ही मिलकर ना रहे, अग्नि गंग के संग.
भक्ति प्रकाश ग्रन्थ के रचयिता संत शिरोमणि श्री स्वामी सत्यानन्द जी महाराज
जिज्ञासुओं को समझाते हुए कहते हैं कि जहाँ ईर्ष्या, क्लेश, तर्क वितर्क हैं वहां
भक्ति का आगमन नहीं हो सकता जैसे अग्नि एवं पानी मिलकर नहीं रह सकते .
अर्थात भक्ति मार्ग पर अग्रसर होने के लिए प्रेम एवं श्रधा का होना अनिवार्य है.

स्वामी सत्यानन्द जी द्वारा रचित भक्ति प्रकाश ग्रन्थ का एक अंश
श्री रामशरणम् आश्रम, गुरुकुल डोरली, मेरठ

परमात्मा का प्रेम पाने के लिए निरभिमानी होना आवश्यक है

श्री रामशरणम् आश्रम, गुरुकुल डोरली, मेरठ के परमाध्यक्ष पूज्यश्री भगत नीरज मणि ऋषि जी ने इश्वर प्राप्ति के लिए अभिमान त्याग कर विनम्रता से प्रभु के प्रति प्रेम भाव से भक्ति किये जाने का उपदेश दिया |प्रस्तुत है उनके प्रवचन के कुछ अंश
.संतजन प्रेम और भक्ति के बारे में समझाते हुए कहते हैं –
आध्यात्म के मार्ग पर परमात्मा का भजन करते-करते यदि आपके मन में प्रेम उत्पन्न नहीं हुआ
तो इसका मतलब आपके मन में नीरसता, ईर्ष्या और शुष्कपन है. तुम अभी भक्ति से बहुत
दूर हो. बिना प्रेम के किसी ने परमात्मा को नहीं पाया. बेल चाहे कितनी भी हरी हो, अगर उसकी
जड़ में कोई अग्नि जला दे तो वह बेल सूख जाती हैं, झुलस जाती है इसी प्रकार जिसके
मन में ईर्ष्या, द्वेष एवं संताप भरा है उसके मन में भगवान् के प्रेम और भक्ति के बेल परवान
नहीं चढ़ती.
परमात्मा से प्रेम तभी पैदा होगा जब हम अपने मान एवं अहम् भाव को मिटा देंगे.
किया अभिमान तो मान नहीं पायेगा.
जब तक आप अभिमान करते रहोगे तब तक प्रभु के घर मान नहीं पा सकोगे. मान तथा
प्रेम परमात्मा के घर से मांगे नहीं जाते. जब आप निमानी और निरभिमानी होंगे तो परमात्मा
का प्रेम अपने आप ही मिल जाता है.

श्रद्धा और विश्वास से भक्ति पथ आसान होता है

श्रद्धा निश्चय हीन मैं, भक्ति न अंकुर लाये ,
केसर कमल कपूर कब, ऊसर में उपजाय.

संतजन मनुष्यों को समझाते हुए कहते हैं कि प्रभु के नाम में जब तक सच्ची श्रधा तथा अटूट निश्चय आपके ह्रदय मैं नहीं होगा तब तक आप भक्ति के पथ पर अग्रसर नहीं हो सकते हैं.
जैसे अगर भूमि उपजाऊ नहीं है तो उस ऊसर भूमि पर केसर, कमल एवं कपूर पैदा नहीं हो सकता है.

स्वामी सत्यानन्द जी द्वारा रचित भक्ति प्रकाश ग्रन्थ का एक अंश

श्री रामशरणम् आश्रम, गुरुकुल डोरली, मेरठ