प्रभु की सरणि सगल भै लाथे दुःख बिनसे सुखु पाइआ ।
दइआलु होआ पारब्रहमु सुआमी पूरा सतिगुरु धिआइआ ।
वाणी : श्री गुरु अर्जनदेव जी महाराज , श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी
प्रस्तुति राकेश खुराना
प्रभु की सरणि सगल भै लाथे दुःख बिनसे सुखु पाइआ ।
दइआलु होआ पारब्रहमु सुआमी पूरा सतिगुरु धिआइआ ।
श्री रामशरणम आश्रम , गुरुकुल डोरली , मेरठ में दिनांक 13 जनवरी 2013 को प्रात:कालीन सत्संग के अवसर पर पूज्यश्री भगत नीरज मणि ऋषि जी ने अमृतमयी प्रवचनों की वर्षा करते हुए कहा :-
ये जन्म तुझे अनमोल मिला चाहे जो इससे कमा बाबा ।
कुछ दीं कमा, कुछ दुनिया कमा, कुछ हरि के हेतु लगा बाबा ।
भाव : हमें
नकली मंदिर मसजिदों में जाए सद अफ़सोस है ।
कुदरती मसजिद का साकिन दुःख उठाने के लिए ।
कुदरती काबे की तू महराब में सुन ग़ौर से ।
आ रही धुर से सदा तेरे बुलाने के लिए ।
रहिमन रहिला की भली ,जो परसै चित लाय ।
परसत मन मैलो करे , सो मैदा जरि जाय ।
अर्थ : कवि रहीम कहते हैं कि बेसन का आटा हितकर है, जिसको प्रेमपूर्वक शरीर पर मला जाता है , परन्तु मलने पर जो तन-मन को मैला कर दे , उस मैदा का नष्ट हो जाना ही बेहतर है।
मीरा मन मानी सुरत सैल असमानी ।
जब जब सुरत लगे वा घर की , पल पल नैनन पानी ।
श्लोक श्रीमद्भगवद्गीता
श्रीभगवानुवाच
कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि ।
योगिन: कर्म कुर्वन्ति संगं त्यक्त्वात्मशुद्धये ।
कर्मयोगी आसक्ति का त्याग करके केवल (ममता रहित )इन्द्रियां , शरीर , मन और बुद्धि के द्वारा अंत:करण की शुद्धि के लिए ही कर्म करते हैं ।
व्याख्या : ममता का सर्वथा नाश होना ही अंत:करण की शुद्धि है । कर्मयोगी साधक शरीर -इन्द्रियाँ -मन -बुद्धि को अपना तथा अपने लिए मानते हुए , प्रत्युत संसार का तथा संसार के लिए मानते हुए ही कर्म करते हैं । इस प्रकार कर्म करते – करते जब ममता का सर्वथा अभाव हो जाता है , तब अंत:करण पवित्र हो जाता है ।
श्लोक
वर्तमान राजनीति में आ रहे रोजाना के आपत्तिजनक बयानों के परिपेक्ष्य में सेकड़ों साल पहले प्रतिष्ठित श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी की वाणी आज प्रासंगिक और अनुकरणीय है
अवलि अलह नूर उपाइआ कुदरति के सभ बन्दे ।
एक नूर ते सभु जगु उपजिआ कउन भले को मंदे
करता हूँ मैं वंदना , नत शिर बारम्बार ।
तुझे देव परमात्मन , मंगल शिव शुभकार ।
अंजलि पर मस्तक किये , विनय भक्ति के साथ ।
नमस्कार मेरा तुझे , होवे जग के नाथ ।
माँगूं मैं राम – कृपा दिन रात,
राम – कृपा हरे सब उत्पात ।
राम -कृपा लेवे अन्त सम्भाल ,
राम -प्रभु है जन प्रतिपाल ।
भावार्थ : जिज्ञासु परमात्मा से प्रार्थना करता है कि मैं आपका बालक आपकी शरण में हूँ । मैं आपकी कृपा हर समय चाहता हूँ क्योंकि राम – कृपा से ही मन की उथल – पुथल एवं चंचलता शांत होती है । जब मन की चंचलता शांत होती है , तब ही परमात्मा के नाम में चित्त लगता है और नाम जपने से ही व्यक्ति राम कृपा का पात्र बनता है ।बाकी सारा धन और पूंजियाँ तो इही लोक की हैं और सांसारिक धन अंत समय में हमारे साथ नहीं जाता , केवल राम नाम का धन ही एक ऐसी पूंजी है जो अंत समय में हमारी रक्षा करती है और हमारे साथ जाती है । ईश्वर को सभी प्राणियों का ध्यान , चिंता रहती है । वो ही सबका पालनहार है ।
श्री स्वामी सत्यानन्द जी महाराज द्वारा रचित अमृत वाणी का एक अंश
प्रस्तुति राकेश खुराना
जाल परे जल जात बहि , तजि मीनन को मोह ।
रहिमन मछरी नीर को , तऊ न छाडत छोह ।
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